Haihay hridyansh
" हैहय हृदयांश "
" हैहय हृदयांश "
सुविचार
1- जिस तरह कीड़ा कपड़ो को कुतर डालता है, उसी तरह इर्ष्या मनुष्य को।
2- क्रोध मूर्खता से शुरू होता है, और पश्चाताप पर ख़त्म होता है।
3- नम्रता से देवता भी मनुष्य के वश में हो जाते है।
4- तलवार की चोट उतनी तेज नहीं होती जितनी जिह्वा की।
5- घर में मेल होना पृथ्वी पर स्वर्ग के बराबर है।
6- मनुष्य के तीन सदगुण हैं-आशा, विश्वाश और दान।
7- अंधा वह नहीं, जिसके आँख नहीं है, अंधा वो है जो अपने दोषों को ढकता
है।
8- भूत से प्रेरणा लेकर वर्तमान में भविष्य का चिंतन करने वाला ही उत्तम
मनुष्य होता है।
9- आलसी व्यक्तियों को सिर्फ उतना ही मिलता है, जितना वे कोशिश
करते है।
10- जिन्दगी एक बजता हुआ संगीत है, जिसका भरपूर आनंद लेना
चाहिए।
Right-minded
1 - the worm puts clothes torn up, the same way humans envy.
2 - Anger begins with folly, and ends with repentance.
3 - politely subdued humans become gods.
4 - Sword of the injury is not as sharp as the tongue.
5 - to be matched at home is the equivalent of heaven on earth.
6 - Humans are the three virtues - hope, faith and charity.
7 - not blind, the eye is not blind to his faults which he covers
Is.
8 - taking inspiration from the past to the present to reflect future perfect
Man is.
9 - lazy people get just as much, as they try
Do.
10 - Life is a music rings, which all enjoy
Should.
प्राचीन यूरोप में सेल्ट नामक एक सभ्यता थी, जो जर्मनी से इंग्लैंड तक फैली थी। वे स्वस्तिक को सूर्यदेव का प्रतीक मानते थे। उनके अनुसार स्वस्तिक यूरोप के चारों मौसमों का भी प्रतीक था। बाद में यह चक्र या स्वस्तिक ईसाइयत ने अपनाया। ईसाइयत में स्वस्तिक पुनर्जन्म का प्रतीक भी माना गया है।
मिस्र और अमेरिका में स्वस्तिक का काफी प्रचलन रहा है। इन दोनों जगहों के लोग पिरामिड को पुनर्जन्म से जोड़कर देखा करते थे। प्राचीन मिस्र में ओसिरिस को पुनर्जन्म का देवता माना जाता था और हमेशा उसे चार हाथ वाले तारे के रूप में बताने के साथ ही पिरामिड को सूली लिखकर दर्शाते थे।
इस तरह हम देखते हैं कि स्वस्तिक का प्रचलन प्राचीनकाल से ही हर देश की सभ्यताओं में प्रचलित रहा है। स्वस्तिक को किसी एक धर्म का नहीं मानकर इसे प्राचीन मानवों की बेहतरीन खोज में से एक माना जाना चाहिए।
अदिति: आदित्य (देवता). ये १२ कहलाते हैं. ये हैं अंश, अयारमा, भग, मित्र, वरुण, पूषा, त्वस्त्र, विष्णु, विवस्वत, सावित्री, इन्द्र और धात्रि या त्रिविक्रम (भगवन वामन).
दिति: दैत्य और मरुत. दिति के पहले दो पुत्र हुए: हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप. इनसे सिंहिका नमक एक पुत्री भी हुई. इन दोनों का संहार भगवन विष्णु ने क्रमशः वराह और नरसिंह अवतार लेकर कर दिया. इनकी मृत्यु के पश्चात् दिति ने फिर से आग्रह कर महर्षि कश्यप द्वारा गर्भ धारण किया. इन्द्र ने इनके गर्भ के सात टुकड़े कर दिए जिससे सात मरुतों का जन्म हुआ. इनमे से ४ इन्द्र के साथ, एक ब्रम्ह्लोक, एक इन्द्रलोक और एक वायु के रूप में विचरते हैं.
दनु: दानव जाति. ये कुल ६१ थे पर प्रमुख चालीस माने जाते हैं. वे हैं विप्रचित्त, शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अयःशिरी, अश्वशिरा, अश्वशंकु, गगनमूर्धा, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, घूपवर्वा, अजक, अश्वीग्रीव, सूक्ष्म, तुहुंड़, एकपद, एकचक्र, विरूपाक्ष, महोदर, निचंद्र, निकुंभ, कुजट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य, चंद्र, एकाक्ष, अमृतप, प्रलब, नरक, वातापी, शठ, गविष्ठ, वनायु और दीघजिह्व. इनमें जो चंद्र और सूर्य नाम आए हैं वै देवता चंद्र और सूर्य से भिन्न हैं.
काष्ठा: अश्व और अन्य खुर वाले पशु.
अनिष्ठा: गन्धर्व या यक्ष जाति. ये उपदेवता माने जाते हैं जिनका स्थान राक्षसों से ऊपर होता है. ये संगीत के अधिष्ठाता भी माने जाते हैं. गन्धर्व काफी मुक्त स्वाभाव के माने जाते हैं और इस जाति में विवाह से पहले संतान उत्पत्ति आम मानी जाती थी. गन्धर्व विवाह बहुत ही प्रसिद्ध विवाह पद्धति थी जो राक्षसों और यक्षों में बहुत आम थी जिसके लिए कोई कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती थी. प्रसिद्ध गन्धर्वों या यक्षों में कुबेर और चित्रसेन के नाम बहुत प्रसिद्ध है.
सुरसा: राक्षस जाति. ये जाति विधान और मैत्री में विश्वास नहीं रखती और चीजों को हड़प करने वाली मानी जाति है. कई लोगों का कहना है की राक्षस जाति की शुरुआत रावण द्वारा की गयी. दैत्य, दानव और राक्षस जातियां एक सी लगती जरुर हैं लेकिन उनमे अंतर था. दैत्य जाति अत्यंत बर्बर और निरंकुश थी. दानव लोग लूटपाट और हत्याएं कर अपना जीवन बिताते थे तथा मानव मांस खाना इनका शौक होता था. राक्षस इन दोनों जातियों की अपेक्षा अधिक संस्कारी और शिक्षित होते थे. रावण जैसा विद्वान् इसका उदाहरण है. राक्षस जाति का मानना था कि वे रक्षा करते हैं. एक तरह से राक्षस जाति इन सब में क्षत्रियों की भांति थी और इनका रहन सहन, जीवन और ऐश्वर्य दैत्यों और दानवों की अपेक्षा अधिक अच्छा होता था.
इला: वृक्ष और समस्त वनस्पति.
मुनि: समस्त अप्सरागण. ये स्वर्गलोक की नर्तकियां कहलाती थीं जिनका काम देवताओं का मनोरंजन करना और उन्हें प्रसन्न रखना था. उर्वशी, मेनका, रम्भा एवं तिलोत्तमा इत्यादि कुछ मुख्य अप्सराएँ हैं.
क्रोधवषा: सर्प जाति, बिच्छू और अन्य विषैले जीव और सरीसृप.
सुरभि: सम्पूर्ण गोवंश (गाय, भैंस, बैल इत्यादि). इसके आलावा इनसे ११ रुद्रों का जन्म हुआ जो भगवान शंकर के अंशावतार माने जाते हैं. भगवान शंकर ने महर्षि कश्यप की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने अंशावतार के पिता होने का वरदान दिया था. वे हैं: कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुधन्य, शम्भू, चंड एवं भव.
सरमा: हिंसक और शिकारी पशु, कुत्ते इत्यादि.
ताम्रा: गीध, बाज और अन्य शिकारी पक्षी.
तिमि: मछलियाँ और अन्य समस्त जलचर.
विनता: अरुण और गरुड़. अरुण सूर्य के सारथि बन गए और गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन.
कद्रू: समस्त नाग जाति. कद्रू से १००० नागों की जातियों का जन्म हुआ. इनमे आठ मुख्य नागकुल चले. वे थे वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड, महापद्म और धनञ्जय. सर्प जाति और नाग जाति अलग अलग थी. सर्पों का मतलब जहाँ सरीसृपों की जाति से है वहीँ नाग जाति उपदेवताओं की श्रेणी में आती है जिनका उपरी हिस्सा मनुष्यों की तरह और निचला हिस्सा सर्पों की तरह होता था. ये जाति पाताल में निवास करती है और सर्पों से अधिक शक्तिशाली, लुप्त और रहस्यमयी मानी जाती है.
पतंगी: पक्षियों की समस्त जाति.
यामिनी: कीट पतंगों की समस्त जाति.
इसके अलावा महर्षि कश्यप ने वैश्वानर की दो पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया. पुलोमा से पौलोम नमक दानव वंश चला और कालका से ६०००० दैत्यों ने जन्म लिया जो कालिकेय कहलाये. रावण की बहन शूर्पनखा का पति विद्युत्जिह्य भी कालिकेय दैत्य था जो रावण के हाथों मारा गया था.
Right-minded
1 - the worm puts clothes torn up, the same way humans envy.
2 - Anger begins with folly, and ends with repentance.
3 - politely subdued humans become gods.
4 - Sword of the injury is not as sharp as the tongue.
5 - to be matched at home is the equivalent of heaven on earth.
6 - Humans are the three virtues - hope, faith and charity.
7 - not blind, the eye is not blind to his faults which he covers
Is.
8 - taking inspiration from the past to the present to reflect future perfect
Man is.
9 - lazy people get just as much, as they try
Do.
10 - Life is a music rings, which all enjoy
Should.
दोस्तों जाने अनजाने हम ऐसी कई चीजें करते हैं जो हमारे personal development के लिए ठीक नहीं होतीं. वैसे तो इन चीजों की list बहुत लम्बी हो सकती है पर मैं आपके साथ सिर्फ पांच ऐसी बातें share कर रहा हूँ जो मैं follow करता हूँ .हो सकता है कि आप already इनमे से कुछ चीजें practice करते हों , पर अगर आप यहाँ से कुछ add-on कर पाते हैं तो definitely वो आपके life को better बनाएगा . So , let’s see those 5 things:
5 चीजें जो आपको नहीं करनी चाहिए और क्यों ?
1) दूसरे की बुराई को enjoy करना
ये तो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं की दुसरे के सामने तीसरे की बुराई नहीं करनी चाहिए , पर एक और बात जो मुझे ज़रूरी लगती है वो ये कि यदि कोई किसी और की बुराई कर रहा है तो हमें उसमे interest नहीं लेना चाहिए और उसे enjoy नहीं करना चाहिए . अगर आप उसमे interest दिखाते हैं तो आप भी कहीं ना कहीं negativity को अपनी ओर attract करते हैं . बेहतर तो यही होगा की आप ऐसे लोगों से दूर रहे पर यदि साथ रहना मजबूरी हो तो आप ऐसे topics पर deaf and dumb हो जाएं , सामने वाला खुद बखुद शांत हो जायेगा . For example यदि कोई किसी का मज़ाक उड़ा रहा हो और आप उस पे हँसे ही नहीं तो शायद वो अगली बार आपके सामने ऐसा ना करे . इस बात को भी समझिये की generally जो लोग आपके सामने औरों का मज़ाक उड़ाते हैं वो औरों के सामने आपका भी मज़ाक उड़ाते होंगे . इसलिए ऐसे लोगों को discourage करना ही ठीक है .
2) अपने अन्दर को दूसरे के बाहर से compare करना
इसे इंसानी defect कह लीजिये या कुछ और पर सच ये है की बहुत सारे दुखों का कारण हमारा अपना दुःख ना हो के दूसरे की ख़ुशी होती है . आप इससे ऊपर उठने की कोशिश करिए , इतना याद रखिये की किसी व्यक्ति की असलियत सिर्फ उसे ही पता होती है , हम लोगों के बाहरी यानि नकली रूप को देखते हैं और उसे अपने अन्दर के यानि की असली रूप से compare करते हैं . इसलिए हमें लगता है की सामने वाला हमसे ज्यादा खुश है , पर हकीकत ये है की ऐसे comparison का कोई मतलब ही नहीं होता है . आपको सिर्फ अपने आप को improve करते जाना है और व्यर्थ की comparison नहीं करनी है.
3) किसी काम के लिए दूसरों पर depend करना
मैंने कई बार देखा है की लोग अपने ज़रूरी काम भी बस इसलिए पूरा नहीं कर पाते क्योंकि वो किसी और पे depend करते हैं . किसी व्यक्ति विशेष पर depend मत रहिये . आपका goal; समय सीमा के अन्दर task का complete करना होना चाहिए , अब अगर आपका best friend तत्काल आपकी मदद नहीं कर पा रहा है तो आप किसी और की मदद ले सकते हैं , या संभव हो तो आप अकेले भी वो काम कर सकते हैं .
ऐसा करने से आपका confidence बढेगा , ऐसे लोग जो छोटे छोटे कामों को करने में आत्मनिर्भर होते हैं वही आगे चल कर बड़े -बड़े challenges भी पार कर लेते हैं , तो इस चीज को अपनी habit में लाइए : ये ज़रूरी है की काम पूरा हो ये नहीं की किसी व्यक्ति विशेष की मदद से ही पूरा हो .
4) जो बीत गया उस पर बार बार अफ़सोस करना
अगर आपके साथ past में कुछ ऐसा हुआ है जो आपको दुखी करता है तो उसके बारे में एक बार अफ़सोस करिए…दो बार करिए….पर तीसरी बार मत करिए . उस incident से जो सीख ले सकते हैं वो लीजिये और आगे का देखिये . जो लोग अपना रोना दूसरों के सामने बार-बार रोते हैं उसके साथ लोग sympathy दिखाने की बजाये उससे कटने लगते हैं . हर किसी की अपनी समस्याएं हैं और कोई भी ऐसे लोगों को नहीं पसंद करता जो life को happy बनाने की जगह sad बनाए . और अगर आप ऐसा करते हैं तो किसी और से ज्यादा आप ही का नुकसान होता है . आप past में ही फंसे रह जाते हैं , और ना इस पल को जी पाते हैं और ना future के लिए खुद को prepare कर पाते हैं .
5) जो नहीं चाहते हैं उसपर focus करना
सम्पूर्ण ब्रह्मांड में हम जिस चीज पर ध्यान केंद्रित करते हैं उस चीज में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि होती है. इसलिए आप जो होते देखना चाहते हैं उस पर focus करिए , उस बारे में बात करिए ना की ऐसी चीजें जो आप नहीं चाहते हैं . For example: यदि आप अपनी income बढ़ाना चाहते हैं तो बढती महंगाई और खर्चों पर हर वक़्त मत बात कीजिये बल्कि नयी opportunities और income generating ideas पर बात कीजिये .
इन बातों पर ध्यान देने से आप Self Improvement के रास्ते पर और भी तेजी से बढ़ पायेंगे और अपनी life को खुशहाल बना पायेंगे . All the best.
—————————————————————-
स्वस्तिक का रहस्य जानिए...
॥ ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा।
स्वस्ति न-ह ताक्षर्यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु॥
अर्थात : महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरूड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो।
स्वस्तिक का आविष्कार आर्यों ने किया और पूरे विश्व में यह फैल गया। आज स्वस्तिक का प्रत्येक धर्म और संस्कृति में अलग-अलग रूप में इस्तेमाल किया गया है। कुछ धर्म, संगठन और समाज ने स्वस्तिक को गलत अर्थ में लेकर उसका गलत जगहों पर इस्तेमाल किया है तो कुछ ने उसके सकारात्मक पहलू को समझा।
स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्र, ब्रिटेन, अमेरिका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन किसी न किसी रूप में मिलता है।
स्वस्तिक शब्द को 'सु' एवं 'अस्ति' का मिश्रण योग माना जाता है। 'सु' का अर्थ है शुभ और 'अस्ति' का अर्थ है- होना। अर्थात 'शुभ हो', 'कल्याण हो'। स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण।
हिंदू धर्म में स्वस्तिक को शक्ति, सौभाग्य, समृद्धि और मंगल का प्रतीक माना जाता है। हर मंगल कार्य में इसको बनाया जाता है। स्वस्तिक का बायां हिस्सा गणेश की शक्ति का स्थान 'गं' बीजमंत्र होता है। इसमें जो चार बिंदियां होती हैं, उनमें गौरी, पृथ्वी, कच्छप और अनंत देवताओं का वास होता है।
इस मंगल-प्रतीक का गणेश की उपासना, धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ, बही-खाते की पूजा की परंपरा आदि में विशेष स्थान है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरुण एवं सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है। यह चारों दिशाओं और जीवन चक्र का भी प्रतीक है।
घर के वास्तु को ठीक करने के लिए स्वस्तिक का प्रयोग किया जाता है। स्वस्तिक के चिह्न को भाग्यवर्धक वस्तुओं में गिना जाता है। स्वस्तिक के प्रयोग से घर की नकारात्मक ऊर्जा बाहर चली जाती है।
जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर और उनके चिह्न में स्वस्तिक को शामिल किया गया है। तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का शुभ चिह्न है स्वस्तिक जिसे साथिया या सातिया भी कहा जाता है।
जैन धर्म के प्रतीक चिह्न में स्वस्तिक को प्रमुखता से शामिल किया गया है। स्वस्तिक की चार भुजाएं चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। जैन लेखों से संबंधित प्राचीन गुफाओं और मंदिरों की दीवारों पर भी यह स्वस्तिक प्रतीक अंकित मिलता है।
यहूदी और ईसाई धर्म में भी स्वस्तिक का महत्व है। ईसाई धर्म में स्वस्तिक क्रॉस के रूप में चिह्नित है। एक ओर जहां ईसा मसीह को सूली यानी स्वस्तिक के साथ दिखाया जाता है तो दूसरी ओर यह ईसाई कब्रों पर लगाया जाता है। स्वस्तिक को ईसाई धर्म में कुछ लोग पुनर्जन्म का प्रतीक मानते हैं।
स्वस्ति न-ह ताक्षर्यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु॥
अर्थात : महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरूड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो।
स्वस्तिक का आविष्कार आर्यों ने किया और पूरे विश्व में यह फैल गया। आज स्वस्तिक का प्रत्येक धर्म और संस्कृति में अलग-अलग रूप में इस्तेमाल किया गया है। कुछ धर्म, संगठन और समाज ने स्वस्तिक को गलत अर्थ में लेकर उसका गलत जगहों पर इस्तेमाल किया है तो कुछ ने उसके सकारात्मक पहलू को समझा।
स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्र, ब्रिटेन, अमेरिका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन किसी न किसी रूप में मिलता है।
FILE
|
स्वस्तिक शब्द को 'सु' एवं 'अस्ति' का मिश्रण योग माना जाता है। 'सु' का अर्थ है शुभ और 'अस्ति' का अर्थ है- होना। अर्थात 'शुभ हो', 'कल्याण हो'। स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण।
हिंदू धर्म में स्वस्तिक को शक्ति, सौभाग्य, समृद्धि और मंगल का प्रतीक माना जाता है। हर मंगल कार्य में इसको बनाया जाता है। स्वस्तिक का बायां हिस्सा गणेश की शक्ति का स्थान 'गं' बीजमंत्र होता है। इसमें जो चार बिंदियां होती हैं, उनमें गौरी, पृथ्वी, कच्छप और अनंत देवताओं का वास होता है।
इस मंगल-प्रतीक का गणेश की उपासना, धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ, बही-खाते की पूजा की परंपरा आदि में विशेष स्थान है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरुण एवं सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है। यह चारों दिशाओं और जीवन चक्र का भी प्रतीक है।
घर के वास्तु को ठीक करने के लिए स्वस्तिक का प्रयोग किया जाता है। स्वस्तिक के चिह्न को भाग्यवर्धक वस्तुओं में गिना जाता है। स्वस्तिक के प्रयोग से घर की नकारात्मक ऊर्जा बाहर चली जाती है।
जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर और उनके चिह्न में स्वस्तिक को शामिल किया गया है। तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का शुभ चिह्न है स्वस्तिक जिसे साथिया या सातिया भी कहा जाता है।
जैन धर्म के प्रतीक चिह्न में स्वस्तिक को प्रमुखता से शामिल किया गया है। स्वस्तिक की चार भुजाएं चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। जैन लेखों से संबंधित प्राचीन गुफाओं और मंदिरों की दीवारों पर भी यह स्वस्तिक प्रतीक अंकित मिलता है।
यहूदी और ईसाई धर्म में भी स्वस्तिक का महत्व है। ईसाई धर्म में स्वस्तिक क्रॉस के रूप में चिह्नित है। एक ओर जहां ईसा मसीह को सूली यानी स्वस्तिक के साथ दिखाया जाता है तो दूसरी ओर यह ईसाई कब्रों पर लगाया जाता है। स्वस्तिक को ईसाई धर्म में कुछ लोग पुनर्जन्म का प्रतीक मानते हैं।
प्राचीन यूरोप में सेल्ट नामक एक सभ्यता थी, जो जर्मनी से इंग्लैंड तक फैली थी। वे स्वस्तिक को सूर्यदेव का प्रतीक मानते थे। उनके अनुसार स्वस्तिक यूरोप के चारों मौसमों का भी प्रतीक था। बाद में यह चक्र या स्वस्तिक ईसाइयत ने अपनाया। ईसाइयत में स्वस्तिक पुनर्जन्म का प्रतीक भी माना गया है।
मिस्र और अमेरिका में स्वस्तिक का काफी प्रचलन रहा है। इन दोनों जगहों के लोग पिरामिड को पुनर्जन्म से जोड़कर देखा करते थे। प्राचीन मिस्र में ओसिरिस को पुनर्जन्म का देवता माना जाता था और हमेशा उसे चार हाथ वाले तारे के रूप में बताने के साथ ही पिरामिड को सूली लिखकर दर्शाते थे।
इस तरह हम देखते हैं कि स्वस्तिक का प्रचलन प्राचीनकाल से ही हर देश की सभ्यताओं में प्रचलित रहा है। स्वस्तिक को किसी एक धर्म का नहीं मानकर इसे प्राचीन मानवों की बेहतरीन खोज में से एक माना जाना चाहिए।
कश्यप ऋषि से सम्पूर्ण जाति की उत्पत्ति
महर्षि कश्यप ब्रम्हा के मानस पुत्र मरीचि के पुत्र थे. इस प्रकार वे ब्रम्हा के पोते हुए. महर्षि कश्यप ने ब्रम्हा के पुत्र प्रजापति दक्ष की १७ कन्याओं से विवाह किया. संसार की सारी जातियां महर्षि कश्यप की इन्ही १७ पत्नियों की संतानें मानी जाति हैं. इसी कारण महर्षि कश्यप की पत्नियों को लोकमाता भी कहा जाता है. उनकी पत्नियों और उनसे उत्पन्न संतानों का वर्णन नीचे है.
अदिति: आदित्य (देवता). ये १२ कहलाते हैं. ये हैं अंश, अयारमा, भग, मित्र, वरुण, पूषा, त्वस्त्र, विष्णु, विवस्वत, सावित्री, इन्द्र और धात्रि या त्रिविक्रम (भगवन वामन).
दिति: दैत्य और मरुत. दिति के पहले दो पुत्र हुए: हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप. इनसे सिंहिका नमक एक पुत्री भी हुई. इन दोनों का संहार भगवन विष्णु ने क्रमशः वराह और नरसिंह अवतार लेकर कर दिया. इनकी मृत्यु के पश्चात् दिति ने फिर से आग्रह कर महर्षि कश्यप द्वारा गर्भ धारण किया. इन्द्र ने इनके गर्भ के सात टुकड़े कर दिए जिससे सात मरुतों का जन्म हुआ. इनमे से ४ इन्द्र के साथ, एक ब्रम्ह्लोक, एक इन्द्रलोक और एक वायु के रूप में विचरते हैं.
दनु: दानव जाति. ये कुल ६१ थे पर प्रमुख चालीस माने जाते हैं. वे हैं विप्रचित्त, शंबर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केशी, दुर्जय, अयःशिरी, अश्वशिरा, अश्वशंकु, गगनमूर्धा, स्वर्भानु, अश्व, अश्वपति, घूपवर्वा, अजक, अश्वीग्रीव, सूक्ष्म, तुहुंड़, एकपद, एकचक्र, विरूपाक्ष, महोदर, निचंद्र, निकुंभ, कुजट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य, चंद्र, एकाक्ष, अमृतप, प्रलब, नरक, वातापी, शठ, गविष्ठ, वनायु और दीघजिह्व. इनमें जो चंद्र और सूर्य नाम आए हैं वै देवता चंद्र और सूर्य से भिन्न हैं.
काष्ठा: अश्व और अन्य खुर वाले पशु.
अनिष्ठा: गन्धर्व या यक्ष जाति. ये उपदेवता माने जाते हैं जिनका स्थान राक्षसों से ऊपर होता है. ये संगीत के अधिष्ठाता भी माने जाते हैं. गन्धर्व काफी मुक्त स्वाभाव के माने जाते हैं और इस जाति में विवाह से पहले संतान उत्पत्ति आम मानी जाती थी. गन्धर्व विवाह बहुत ही प्रसिद्ध विवाह पद्धति थी जो राक्षसों और यक्षों में बहुत आम थी जिसके लिए कोई कर्मकांड की आवश्यकता नहीं होती थी. प्रसिद्ध गन्धर्वों या यक्षों में कुबेर और चित्रसेन के नाम बहुत प्रसिद्ध है.
सुरसा: राक्षस जाति. ये जाति विधान और मैत्री में विश्वास नहीं रखती और चीजों को हड़प करने वाली मानी जाति है. कई लोगों का कहना है की राक्षस जाति की शुरुआत रावण द्वारा की गयी. दैत्य, दानव और राक्षस जातियां एक सी लगती जरुर हैं लेकिन उनमे अंतर था. दैत्य जाति अत्यंत बर्बर और निरंकुश थी. दानव लोग लूटपाट और हत्याएं कर अपना जीवन बिताते थे तथा मानव मांस खाना इनका शौक होता था. राक्षस इन दोनों जातियों की अपेक्षा अधिक संस्कारी और शिक्षित होते थे. रावण जैसा विद्वान् इसका उदाहरण है. राक्षस जाति का मानना था कि वे रक्षा करते हैं. एक तरह से राक्षस जाति इन सब में क्षत्रियों की भांति थी और इनका रहन सहन, जीवन और ऐश्वर्य दैत्यों और दानवों की अपेक्षा अधिक अच्छा होता था.
इला: वृक्ष और समस्त वनस्पति.
मुनि: समस्त अप्सरागण. ये स्वर्गलोक की नर्तकियां कहलाती थीं जिनका काम देवताओं का मनोरंजन करना और उन्हें प्रसन्न रखना था. उर्वशी, मेनका, रम्भा एवं तिलोत्तमा इत्यादि कुछ मुख्य अप्सराएँ हैं.
क्रोधवषा: सर्प जाति, बिच्छू और अन्य विषैले जीव और सरीसृप.
सुरभि: सम्पूर्ण गोवंश (गाय, भैंस, बैल इत्यादि). इसके आलावा इनसे ११ रुद्रों का जन्म हुआ जो भगवान शंकर के अंशावतार माने जाते हैं. भगवान शंकर ने महर्षि कश्यप की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने अंशावतार के पिता होने का वरदान दिया था. वे हैं: कपाली, पिंगल, भीम, विरूपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुधन्य, शम्भू, चंड एवं भव.
सरमा: हिंसक और शिकारी पशु, कुत्ते इत्यादि.
ताम्रा: गीध, बाज और अन्य शिकारी पक्षी.
तिमि: मछलियाँ और अन्य समस्त जलचर.
विनता: अरुण और गरुड़. अरुण सूर्य के सारथि बन गए और गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन.
कद्रू: समस्त नाग जाति. कद्रू से १००० नागों की जातियों का जन्म हुआ. इनमे आठ मुख्य नागकुल चले. वे थे वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शंख, चूड, महापद्म और धनञ्जय. सर्प जाति और नाग जाति अलग अलग थी. सर्पों का मतलब जहाँ सरीसृपों की जाति से है वहीँ नाग जाति उपदेवताओं की श्रेणी में आती है जिनका उपरी हिस्सा मनुष्यों की तरह और निचला हिस्सा सर्पों की तरह होता था. ये जाति पाताल में निवास करती है और सर्पों से अधिक शक्तिशाली, लुप्त और रहस्यमयी मानी जाती है.
पतंगी: पक्षियों की समस्त जाति.
यामिनी: कीट पतंगों की समस्त जाति.
इसके अलावा महर्षि कश्यप ने वैश्वानर की दो पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया. पुलोमा से पौलोम नमक दानव वंश चला और कालका से ६०००० दैत्यों ने जन्म लिया जो कालिकेय कहलाये. रावण की बहन शूर्पनखा का पति विद्युत्जिह्य भी कालिकेय दैत्य था जो रावण के हाथों मारा गया था.
(pradeep singh taamer)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें