श्री हंश्ध्वज वही प्रसिद्ध पुरुष है जिनके वीर सुधन्वा का कथानक महाभारत में वर्णित है। महाराज हंश्ध्वज के राज्य में प्रजा सात्विक वृत्ति से जीवन यापन करती थी। यही नहीं राज्य कुल के सभी सदस्य एवं प्रजा एक पत्नी व्रतधारी थे। पर स्त्री रमण करने वाले व्यक्ति को राज्य में रहने का अधिकार नहीं था। इनके पञ्च पुत्र एवं एक पुत्री थी। सुबल, शुरथ , संसम, सुदर्शन और सुधन्वा tatha पुत्री का नाम कुवला था।
हस्तिनापुर नरेश युधिस्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ का अश्व हंश्ध्वज की राज्य सीमा में आया। हंश्ध्वज के कनिष्ठ पुत्र सुधन्वा ने उक्त अश्व को पकड़ लिया एवं अपने पिता को यह समाचार दिया। समाचार पाकर हंश्ध्वज प्रसन्न हुए की युद्ध के साथ साथ रण में अर्जुन के सखा भगवान् श्री कृष्ण के दर्शन कर सकूंगा। इस कारण युद्ध की घोषणा कर दी और राज्य में संख और लिखित नामके राज्य पुरोहितो की आज्ञानुसार करवा दी की सभी योधा एवं प्रजा के पुरुष रणभूमि में युद्ध करने एवं भगवान् श्री कृष्णा के दर्शनार्थ उपस्थित हो। आगया की अवहेलना करने वाले व्यक्ति को उबलते हुए तेल के कडाहे में डलवा दिया जायेगा। भले ही वाल व्यक्ति प्रजा या राज घराने से ही क्यों न सम्बन्ध रखता हो। आज के युद्ध में सेनापति को चुनने के लिए दरबार में उपस्थित हो। आज्ञानुसार सभी वीर योधागण दरबार में उपस्थित हुए। अब सेनापति के निर्वाचन का प्रश्न सामने था। युक्ति निकली गई एवं पान बीड़ा दरबार में रखा गया। यह बीड़ा वीरता और पौरुष की चुनौती का द्योतक था। किसी का साहस न हुआ की महारथी अर्जुन के विपरीत युद्ध के सेनापतित्व का बीड़ा उठाने का ख़तरा अपने सर पर ले। परन्तु धन्य है उस सुधन्वा को जिसने अपने पूज्य पिता के शौर्य परम्परा को सुरक्षित रखते हुए आगे बढ़कर वह बीड़ा उठा लिया। वीर सुधन्वा के जयकार से पूरा दरबार गूँज उठा।
सेनापति के भेष से सुसज्जित राजकुमार सुधन्वा युद्ध क्षेत्र में जाने को तैयार खड़े है परन्तु इसके पूर्व माता का आशिर्वाद एवं पत्नी का प्रणय दान स्वीकार करना भी आवश्यक था। अतः राजकुमार सुधन्वा अपनी पूज्य माता के पास पहुच कर प्रणाम करते है। उनकी माता वीरोचित होकर उपदेश देती हुई वीर माता , सुधन्वा को सम्भोधित करती हुयी बोली " बेटा , भले ही अर्जुन और कृष्ण तुझे अपने पराक्रम से परस्त कर दे, परन्तु तू अपने क्षत्रियत्व की रक्षा में प्राणों की बाजी लगा देना। युद्ध में मन को कायर बनाना अपनी पराजय स्वीकार करने के वरावर मणि जाती है। यदि भगवान् कृष्ण के समक्ष तू वीर गति को प्राप्त भी हुआ तो तुझे अमरत्व की प्राप्ति होगी। इस भांति अनेक वीरोचित वचनों द्वारा वीर माँ ने अपने वीर पुत्र सुधन्वा को विदा किया। बहिन कुब्ला ने भी अपने भाई के माथे पर रोली, चन्दन का टीका लगाया और भाई के धिरायुश्य की मंगल कामना की। "
घर के आँगन में आरती का थाल लिए और चेहरे पर मधुर मुस्कान लिए चकोरी की भांति निहारती हुई, मंगल मुखी पत्नी सामने खड़ी थी, उसके सामने सन्तति विहीन भविष्य के द्रश्य उपस्थित थे। वह भी चाहती है की हमारे आराध्य देव अपने क्षत्रित्व की मान मर्यादा को बनाये रखे, परन्तु--------------. सुधन्वा ने अपनी प्रियतमा के चेहरे पर उभरते हुए विभिन्न भाषो को एक ही दृष्टि में परख लिया। यह वही क्षण है जो वियोग के लम्बे भविष्य को अपने संकुचित अंक में समेट लेना चाहता था। इस प्रकार पत्नी का भी प्रणय दान प्राप्त कर , स्नान एवं इश्वर आराधना से निवृत्त होकर युद्ध क्षेत्र के लिए प्रणय किया। पिता ने विलम्ब से युद्ध क्षेत्र में पहुचने का कारन पूंछा। सुधन्वा नतमस्तक हो गए, पिता ने सारी परिस्थिति को जान कर उनके क्रोध का पारावार न रहा। वे वोले रे कामी, युद्ध जैसे पवित्र कार्य के पूर्व यह जघन्य कृत्य करते हुए तुझे जरा भी लज्जा नहीं आई। यह युद्ध तो भगवन श्री कृष्ण के सखा अर्जुन के साथ होना है। इसको विस्मरण करते हुए तूने पुत्र प्राप्ति का ऐसा कार्य किया।
जिन त्रैलोक्य नरेश भगवान् श्री कृष्ण के दर्शन प्राप्त करने के लिए ही तुझने यज्ञाहुत अश्व को रोका था। जिन पतित पवन भगवान् श्री कृष्ण के सन्मुख ही वीर गति प्राप्त होने की मंगल कामना तेरी माता ने की, उन्ही की भक्ति से विमुख होते तुझे शोभा नहीं देता। भक्त वत्सल भगवान् श्री कृष्ण के चरणों में आत्म समर्पण करने वाले व्यक्ति को ही सद् गति की प्राप्ति होती है . पुत्र रत्न प्राप्ति कदापि सद्गति का कारन नहीं बन सकती।
यह बात नहीं की राजकुमार सुधन्वा स्वय आस्तिक नहीं था, प्रयुत वह तो भगवन श्री कृष्ण के चरण कमलो का भ्रमर था, यह सारा दोष परिस्थितियों का था, उसका नहीं। यही कारन है की वह आगे आने वाली संकट कालीन परीक्षा में सफल होकर अपनी भगवत भक्ति का उत्कृस्ट उदाहरण सामने रखता है। अब राज हंश्ध्वज का कर्तव्य था की वे पुत्र मोह को छोड़कर अपनी न्याय परायनता का पऋचय देते और वीर पुत्र को तेल के कडाहे में जीवित डलवा देते। यहाँ विलम्ब पर विलम्ब हो रहा था और वह संख और लिखित नाम के पुरोहित अनुमान लगा रहे थे, की राज अपनी पूर्व घोषणा से मुकर रहे है। ऐसा सोचकर दोनों पुरोहितो ने राज्य को छोड़कर जंगल की और प्रयाण किया। परन्तु अनुमान के विरिद्ध राज वस्तुतः कर्तव्य परायण थे उन्होंने मंत्रियो को आज्ञा दी की युवराज को उबलते हुए तेल के कडाहे में दाल दिया जय। मई अपने रूठे हुए राज्य पुरोहितो को मन्नाने जा रहा हूँ।
मानवताकितनी ही निष्ठुर हो जावे, परन्तु उसके एक कोने के दया का समुद्र अवश्य लहराता है। आत्मीयता में अपने पराये का भेद नहीं रहता। सुन्दर और सुकुमार की जीवित मृत्यु मंत्रिगन अपनी आँखों से कैसे देख सकते थे। करुना जल से उनकी आँखे श्रावण - भादों सी बरसने लगी इस मोह और विव्हलता का दृश्य देखकर भी भगवत भक्त और पितृ भक्त सुधन्वा तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उसे अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण जागरूकता थी। विलम्ब की आवश्यकता न थी। इसलिए वह स्वयं अपने नेत्रों द्वारा भगवान् श्री कृष्ण के चित्र को ह्रदय पटल पर खींचता हुआ उबलते हुए कडाहे में कूद पड़ा। ह्रदय से की हुई भक्ति कभी भी निष्फल नहीं होती। सदैव से ही भगवान के सेवक बनते आये है, फलस्वरूप इस करूँण दृश्य को देखने वाली जनता ने जो चमत्कार देखा उससे वह दंग रह गई बल्कि प्रसन्नता के पारावार से झूम उठी अर्थात उबलता हुआ तेल भी शीतल जल के सामान हो गया। उसमे भक्त सुधन्वा सबकी श्रृद्धा के केंद्र बनकर भगवान् के ध्यान में मग्न थे। वीर सुधन्वा के जय जयकार के नारों से नभ मंडल गुंजायमान हो गया। यह भक्ति पूर्ण चमत्कार की चर्चा सुनकर हंश्ध्वज इस अनुपम दृश्य को देखने के लिए राज पुरोहितो के साथ घटना स्थल पर पहुचे। वह मंत्री व पुरोहितो को अपनी आँखों पर विश्वाश नहीं हो रहा था। की एक भगवान् विमुख व्यक्ति की रक्षा इस ढंग से हो सकती है। अवश्य ही दाल में कुछ काला है या तो तेल ही मंतरित किया गया है या राजकुमार ने अपने बदन पर किसी औषधि का लेप किया है। अतः परीक्षा के लिए एक श्रीफल (नारियल) पुरोहितो ने तेल में डाला , देखते देखते वह नारियल कई टुकडो में विभक्त होकर सामने खड़े हुए लोगो के लगे , उसमे से एक टुकड़ा पुरोहित के सर पर लगा जिससे भवत भक्ति की इस परीक्षा में खरे और खोते की पहचान स्पस्ट हो गयी। भक्ति में महत्त्व का मूल्य दोनों पुरोहितो की समझ में आ गया, उन्होंने भी सुधन्वा का अनुकरण किया और प्रायश्चित के रूप में कडाहे में कूद पड़े। परन्तु उबलते हुए तेल में संख का बाल बांका न हुआ क्युकी उफनता हुआ तेल सुधन्वा के पवित्र स्पर्श से शीतल जल के सामान हो चूका था। वस्तुतः भगवान् की भक्ति ही नहीं, भक्ति और भक्तो तथा श्रृद्धा भी चमत्कारों से भरी रहती है। सुधन्वा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट करते हुए संख बोले "हे भक्त शिरोमणि, आपकी पवित्र देह के स्पर्श मात्र से मै उसी भांति शुद्ध हो गया हूँ जैसे पारस के स्पर्श से लोहा शुद्ध होकर स्वर्ण बन जाता है। वास्तव में आपके श्पर्श से मानव जीवन सफल हो गया। इस प्रकार परीक्षा की खरी अग्नि में तपकर सुधन्वा स्वर्ण बनकर निकले, जनक हंश्ध्वज अपनी पुत्र भक्ति से ही नहीं वरन वीरता से भी पूर्णतया आश्वस्त हो गए।
बालक सुधन्वा ने पितृ चरणों को नमन किया और आज्ञा लेकर सेनाध्यक्ष के रूप में रण क्षेत्र में जहा दूसरी तरफ वीर अर्जुन के नेतृत्व में पांड्वो की विशाल सेना शस्त्रास्त्रो से सुसज्जित युद्ध के लिए कटिबद्ध खडी थी , वहां जा पहुचे। रण भेरी एवं शंखनाद होते ही युद्ध आरम्भ हो गया। वीर सुधन्वा की स्फूर्ति, शूरता एवं चपल मारकाट से पांड्वो के में खलबली मच गई। ब्रष्केतु, प्रदुम्मंन, कृतवर्मा , सात्यिकी आदि वीर योद्धा तो घायल हो भूमि पर गिर पड़े। इन शूर बीरो से निपटने के बाद वीर सुधन्वा ने अर्जुन को ललकारा। अर्जुन कब चूकने वाले थे। अपनी सधी हुई तीक्ष्ण बाण वर्षा से उन्होंने भी गगन मंडल को आच्छादित कर दिया। परन्तु ह्रदय में कृष्ण भक्ति एवं बाहो में वीरत्व भरकर सुधन्वा के द्वारा सारे बाण निष्फल कर दिए गए। अर्जुन का सारथी सुधन्वा के तीक्ष्ण बानो को सह न सका और धराशाही हो गया। पुन: सुधन्वा विजोत्सव पूर्वक अट्टहास करता हुआ अर्जुन से बोला, हे पार्थ, आपका एक सारथी तो आपसे बिछुड़ गया अब अपने चिर्साथी सर्वज्ञ सारथी घनश्याम को पुकारिए न। क्या आपको नहीं मालूम की आपकी पराजय का कारन श्री नारायण की ही अनुपस्थिति है? अपने प्रतिद्वंदी सुधन्वा के व्यंग भरे वचनों से टिल मिलाकर अर्जुन निरुत्तर हो गए परन्तु उन्होंने तुरन ही उन्मीलित नेत्रों से भगवान् श्री कृष्ण का ध्यान किया। ध्यानाहुत नारायण प्रत्यक्ष ही रणभूमि में सारथी के वेश में आ गए। सुधन्वा भगवान् श्री कृष्ण के दर्शन पाकर अपनी मुक्ति चाहते थे, फिर भी उनसे युद्ध करना वे क्षत्रियत्व का अनिवार्य धर्म है, जानते थे।
वीर अर्जुन ने चुनौती को स्वीकार किया और अपने तीन बाणों से सुधन्वा के मस्तक को उड़ाने की प्रतिज्ञा की। यहाँ भक्त सुधन्वा ने भी उन तीन बानो को काटने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन ने पहला बाण छोड़ा इस बाण में भगवान् श्री कृष्ण द्वारा अर्जित वह पुन्य समाविष्ट था जो उन्हें गोवर्धन उद्धार के द्वारा प्राप्त हुआ था। पार्थ का सरसराता हुआ वह तीर में ही पहुच पाया की भक्त सुधन्वा ने गोवर्धन गिरधारी की जय बोल कर उसे बीच में ही काट दिया। दुसरे बाण को अर्जुन द्वारा छोड़ा गया, उसे भी श्री कृष्ण के अनेकानेक पुन्य प्राप्त थे परन्तु "श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे " जाप से वह भी सुधन्वा द्वारा छिन्न - भिन्न कर दिया गया। रण भूमि में हाहाकार मच गया। देवता भी भक्त सुधन्वा की प्रशंसा करने लगे। अब तीसरे बाण में भगवान् श्री कृष्ण जी ने अपने रामावतार का सम्पूर्ण पुन्य उतार दिया। यही नहीं निराकार रूप से वे स्वयं उसके अग्र भाग पर बैठे, मध्य भाग में काल को स्थित किया और पिछले भाग में श्री ब्रम्हा जी को स्थित किया . अर्जुन का यह बाण प्रत्यंचा में चढा तो तो भक्त सुधन्वा ने कहा की हे नाथ, " आप स्वयं बाण में स्थित होकर मेरा उद्धार करने आ रहे है, आइये आपका स्वागत है। आपके चरणों की शरण पाकर मै कृतार्थ हो जाउंगा" अर्जुन की लक्ष्य करते हुए सुधन्वा ने कहा, " भक्त शिरोमणि अर्जुन , तुम धन्य हो साक्षात् परमेश्वर तुम्हारे बाण को अपना पुन्य तो देते ही है, स्वयं भी बाण की नोक पर विराजमान होते है। यद्यपि तुम्हारी विजय अवश्यम्भावी है तथापि मेरी वीरता इस अंतिम बाण को काटने से भी नहीं चूकेगी निदान वह बाण अर्जुन की प्रत्यंचा से छूता, पृथ्वी डगमगाई , आकाश में देवतागण आश्चर्य चकित होकर देखने लगे। सुधन्वा के भक्ति बाण ने उसे काट ही दिया। इस प्रकार सुधन्वा के द्वारा कृत प्रतिज्ञाएँ सफल हुई। अब अर्जुन की प्रतिज्ञा की पूर्ती होना आवश्यक था .
इस कारण बाण के जिस भाग पर काल आरूढ़ था वह जमीन पर नहीं गिरा , क्योकि काल की गति को कोई रोक नहीं सका है। अतएव तीव्रगामी बाण के शेष भाग ने सुधन्वा के मस्तक को धड से जुदा कर दिया। मस्तक विहीन सुधन्वा के शरीर ने पांडव सेना को तहस नहस कर दिया तथा सर भगवान् के श्री चरणों में जा गिर। श्री कृष्ण चन्द्र ने गोविन्द मुकुंद हरी कहते हुए उस मस्तक को अपने हाथ में उठा लिया। इसी समय परम भक्त सुधन्वा के मुख से एक ज्योति निकली और सबके देखते देखते वह ज्योति श्री कृष्ण चन्द्र भगवान् के मुख में समा गई।
सुधन्वा के उपरांत उसके बड़े भाई सुरथ दुःख से विह्वल होकर युद्ध क्षेत्र में आ डेट। आप जगदम्बे के परम भक्त थे। परन्तु श्री कृष्ण की लीला के आगे सुरथ की एक भी नहीं चली और वे वीरगति को प्राप्त हुए। पुत्र वियोग से विह्वल हो हंश्ध्व्ज का शौय पौरुष जाग उठा , वे स्वयं धनुष टंकार करते हुए रणभूमि में आ डटे . श्री कृष्ण जी ने परिस्थिति की विकरालता को देखते हुए अपने सौम्य दर्शन से हंश्ध्वज को शांत किया और वीच में आकर दोनों दलों के मध्य संधि कराइ।
महाराज हंश्ध्व्ज के उत्तराधिकारी संतसम ने भी अपने पिता के सामान एक पत्नी व्रत धारण करते हुए अपने कुल धर्म की परम्परा को आगे बढ़ाया . आगे चलकर इस वंश में सोमेश्वर, सोमिदेव और् विजल्य्देव जैसे प्रतापी राजा हुए।
Mr. Hanshdhwaj the famous King, whose heroic son of Sudhnwa plot is described in the Mahabharata. Sattvic people living in the state of Hanshdhwaj chef used by instinct. Moreover, the aggregate of all members and the public a wife Wrtdhari were. The woman Raman person who live in the state had no right. They had 05 sons and a daughter. Subl, Shurth, Sudarsan, comely and Kuvla Sudhnwa and had a daughter named.
Yudisthir king of Hastinapur Ashwmeg immolate Hanshdhwaj horse came into the state border. Hanshdhwaj the younger son Sudhnwa the said horse caught and her father the news. Hanshdhwaj errand were delighted with the war - battle with Lord Krishna to Arjuna's friend will be able to see. Let's ignore the person will be kept in boiling oil Kadahi. Even if that person does not belong to the people or royal reasons. Today's war commander to select the court to be present. Orders All Veer Yodhagn Durbar attended. Now the Senapati the election of a of the the question was in front. Tip Withdraw & Drink gage Durbar were placed in. This gauntlet valor and virilizing the challenge of the stood for. Nobody dared the tycoon Arjun unlike War generalship undertake risk your head take over. But blessed Sudnwa that the holy father himself forward while preserving the tradition of chivalry he was undertaking. Heroic Sudhnwa cheering full court erupted. So Prince Sudhnwa his venerable mother to reach the bow do. His mother, his preaching was heroic, that said to Sudhnwa requested to quote "Son, even if defeated Arjuna and Krishna to you by your power, but you have to stake their lives in defense of Ksahtriytaw. Battle in your mind to CowardRoly on his brother's forehead, Sandalwood vaccinated and brother of Dirayushy Tue wished. "
Tray in the courtyard of the house of prayer and a sweet smile on his face was watching like chakori pretie, Tue Mukhi was parked in front of his wife, were present at the scene in front of her offspring-less future. She also wants that uphold the dignity of our adorable Dev Kshatritw, but your sweetie on the face of the emerging Sudhnwa -------------- various moment assay in a single view taken. It exactly that same moment which disconnection taller the future your compressed points in the may engulf wanted to take. The wife also love to receive donations, bathing and worshiping God is love to retire from the war zone. Due to late arrival Punchha father in the war zone. Sudhnwa neck became father of the whole situation, realizing his wrath Parawar disappeared. They Vole Rey Kami, war such as the pious act, former it heinous act while Tujhe iota even shame did not come The war Lord Sri Krishna's friend with Arjun to be. This Oblivion the while Tune son, of receipts act as such done.
The King Lord Krishna appeared to Trailoky You the horse stopped. The holy Lord Krishna opposite retrograde motion of the heroic Tue wish your mother's devotion to diverge from those of you not sexy.
It does not matter Sudhnwa the prince himself was not a believer, but he was black beetel of Lord Krishna Kmlo stage, it was all the fault of circumstances, not his. That is why the upcoming crisis in the examination Utkrist examples of devotion and keeps his Bhagavat. Hanshdhwaj was the duty of the king, except the love of the Son, and to the best of his devotion to justice Kdahi oil heroic son to live in the place. Here was a delay and the delay in writing the name and number of the priests there were guessing, the king has ignored its prior announcement. Think like this and Both the Purohit to the kingdom that except the the forest's and march done. But the presumption against virtually dutiful king, he commanded the minister, the prince should be put into boiling oil Kdahi. I'm going to requesting Purohits his upset state.
Humanity, so it deserves to be unkind, but the ocean of mercy must undulate in a corner. In subjectivity - the distinction is not a stranger. Beautiful and delicate to survive the death Mntrign with your own eyes how could see. His eyes burning compassion Shravan - bhadon C was mad. The fascination of the sight seeing and the Bhagavad Viwhlta Sudhnwa devout and faithful father was not at all disturbed. Her duty towards full awareness was. Delay required no. So he own eyes by Lord Sri Krishna's picture heart board draws up boiling Kdahee jumped into. Heart from the devotion never had not been sterilized. Eternal servant of God has been formed, led by the viewing public scene saw the miracle, it was a shock but she got crazy with happiness Parawar goods ie soft water was boiling oil. Therein devotee Sudhnwa everyone's devotedly the center of the by becoming God to the attention of was rapt. The heroic Sudhnwa sky, shouting slogans - the resonant system. This devotion full miracle the discussion of the Hearing the Hanshdhwaj this Anupam look at the footage for the Raj Purohitas with the event venue came to. Minister Purohit not believe in your eyes there was a God in this manner may be disinclined to protect the individual. Something must have been either oil or Prince Mantrit plaster has on his body. Therefore, to test a quince (coconut) oil poured into Purohito see - see the coconut split into several pieces in front of the people involved, the head priest put a piece of it, the Lord met the test of devotion and false identification was obvious. Devotion to the importance for both Purohito understood, he also Sudhnwa followed and atonement as Kdahee plunged into. But the number of boiling oil, nothing happened because rushing oil Sudhnwa not touch the sacred items had soft water. In fact, God's devotion not only devotion and devotees and devotedly even miracles are crowded.become. Thus stood the test turned out to be gold Sudhnwa hardened by fire, but not the parent Hanshdhwaj heroic devotion to his son even entirely convinced.
Child Sudhnwa the corresponding steps salute and commands the Army as a strategic area where the other side of the heroic Arjuna led Pandvas the vast army Sstrastro equipped war committed to standing, was there to be reached. Rann Bheri and blowing as soon as the war began,. Heroic Sudhnwa the spirit, valor and playful MARCOT the Pandvas of consternation. Brashketu, Pradummnn, Kritavarma, Satyiki etc Veer Yodha then become injured fell to the ground. These Shur Biro after handling heroic Sudhnwa Arjun challenged. Arjun IO miss the were supposed. Its fine the sharp arrows rain he Gagan board covered. But the heart of Krishna devotion and arms in the valor filling Sudhnwa by all the arrows to defeat inflicted. Arjun of the charioteer Sudhnwa of the incisive Banu to co-dont ment & Defeated became. Re: Sudhnwa Vijotsv correctively heehaw-legged Arjuna from the uttered, hey Partha, Your One charioteer then ask you twins separated now been in its Cirsathy omniscient charioteer Ghanshyam up the Pukaria dont. Not you transpired of Your debacle predominant basis of Mr Narayan's only absence? You Its own rival Sudhnwa of the Satire filled from these statements you til the Overall Arjun rendered speechless moved but he Turan same Unmilit from the eyes Lord Mr Krishna meditated on. Dyanahut Narayan direct the battlefield charioteer disguised come. Sudhnwa Lord Sri Krishna's philosophy found its salvation wanted, then they fight they Kshatriytw compulsory religion knew.
भव्य ललाट, त्रिपुंड चंदन, सघन काली मूँछें और गांधी टोपी लगाये साँवले, ठिगने व्यक्तित्व के धनी पंडित शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ के द्विवेदी युगीन साहित्यकारों में से एक थे.. और पंडित प्रहलाद दुबे, पंडित अनंतराम पांडेय, पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, बटुकसिंह चौहान, पंडित लोचनप्रसाद पांडेय, काव्योपाध्याय हीरालाल, पंडित सुंदरलाल शर्मा, राजा चक्रधरसिंह, डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र और पंडित मुकुटधर पांडेय की श्रृंखला में एक पूर्ण साहित्यिक व्यक्ति थे। वे केवल एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि एक संस्था थे। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और छत्तीसगढ़ी भाषा में बहुत सी रचनाएं लिखीं हैं। उनकी कुछ रचनाएं जैसे छत्तीसगढ़ गौरव, मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया ही प्रकाशित हो सकी हैं और उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं। उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ियापन की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। छत्तीसगढ़ गौरव में ''हमर देस'' की एक बानगी देखिये :-Imposing frontal, Tripund sandalwood, dark thick black mustaches and Gandhi cap fitted, a man Pt Short Shuklal Pandey was one of the writers of Chhattisgarh Dwivedi era .. Prahlad Dubey and Pandit, Pandit Anant Ram Pandey, Pandit Mediniprasad Pandey Malikaram Bhogha Pt, Pt Hiraram Tripathi, Govindsav, Pandit Purushottam Prasad Pandey, Vednath Sharma, Btuksinh Chauhan, Pt Lochnprasad Pandey, Kavyopadyay Hiralal, Pandit Sunderlal Sharma, King Ckrdharsinh, Dr. A series of alloys and Pt mukutadhar Pandey Bldevprasad full literary man. They were just one person but an institution. The Sanskrit, Hindi, English, Urdu and Chhattisgarhi language has written many compositions. Some of his compositions, such as Chhattisgarh pride, Maithili Tue, Chhattisgarhi maze could be published, and most of his compositions are unpublished. Cttisgdiapan can see the stamp of his compositions. View a hallmark of pride in Chhattisgarh'''' Hummer Des: -
ये हमर देस छत्तिसगढ़ आगू रहिस जगत सिरमौर।
दक्खिन कौसल नांव रहिस है मुलुक मुलुक मां सोर।
रामचंद सीता अउ लछिमन, पिता हुकुम से बिहरिन बन बन।
हमर देस मां आ तीनों झन, रतनपुर के रामटेकरी मां करे रहिन है ठौर॥
घुमिन इहां औ ऐती ओती, फैलिय पद रज चारो कोती।
यही हमर बढ़िया है बपौती, आ देवता इहां औ रज ला आंजे नैन निटोर॥
राम के महतारी कौसिल्या, इहें के राजा के है बिटिया।
हमर भाग कैसन है बढ़िया, इहें हमर भगवान राम के कभू रहिस ममिओर॥
इहें रहिन मोरध्वज दानी, सुत सिर चीरिन राजा-रानी।
कृष्ण प्रसन्न होइन बरदानी, बरसा फूल करे लागिन सब देवता जय जय सोर॥
रहिन कामधेनु सब गैया, भर देवै हो लाला ! भैया !!
मस्त रहे खा लोग लुगैया, दुध दही घी के नदी बोहावै गली गली अउ खोर॥
सबो रहिन है अति सतवादी, दुध दही भात खा पहिरै खादी।
धरम सत इमान के रहिन है आदी, चाहे लाख साख हो जावै बनिन नी लबरा चोर॥
पगड़ी मुकुट बारी के कुंडल, चोंगी बंसरी पनही पेजल।
चिखला बुंदकी अंगराग मल, कृष्ण-कृषक सब करत रहिन है गली गली मां अंजोर॥
''छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया'' जो ''कॉमेडी ऑफ इरर'' का अंग्रेजी अनुवाद है, की भूमिका में पांडेय जी छत्तीसगढ़ी दानलीला के रचियता पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रति आभार व्यक्त करते हुए छत्तीसगढ़ी में लिखने का आह्वान करते हैं। उस समय पढ़ाई के प्रति इतनी अरूचि थी कि लोग पेपर और पुस्तक भी नहीं पढ़ते थे। पांडेय जी तब की बात को इस प्रकार व्यक्त करते हैं- ''हाय ! कतेक दुख के बात अय ! कोन्हो लैका हर कछू किताब पढ़े के चिभिक करे लागथे तो ओखर ददा-दाई मन ओला गारी देथे अउ मारपीट के ओ बिचारा के अतेक अच्छा अअउ हित करैया सुभाव ला नष्ट कर देथे। येकरे बर कहेबर परथे कि इहां के दसा निचट हीन हावै। इहां के रहवैया मन के किताब अउ अखबार पढ़के ज्ञान अउ उपदेस सीखे बर कोन्नो कहे तो ओमन कइथे-
हमन नइ होवन पंडित-संडित तहीं पढ़ेकर आग लुवाट।
ले किताब अउ गजट सजट ला जीभ लमा के तईहर चाट॥
जनम के हम तो नांगर जोत्ता नई जानन सोरा सतरा।
भुखा भैंसा ता ! ता ! ता !! यही हमर पोथी पतरा !!!
''भूल भुलैया'' सन् 1918 में लिखा गया था तब हिन्दी में पढ़ना लिखना हेय समझा जाता था। पंडित शुकलाल पांडेय अपनी पीड़ा को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-''जबले छत्तिसगढ़ के रहवैया मन ला हिन्दी बर प्रेम नई होवे, अउ जबले ओमन हिन्दी के पुस्तक से फायदा उठाय लाइ नई हो जावे, तबले उकरे बोली छत्तीसगढ़ीच हर उनकर सहायक है। येकरे खातिर छत्तीसगढ़ी बोली मां लिखे किताब हर निरादर करे के चीज नो हे। अउ येकरे बर छत्तीसगढ़ी बोली मां छत्तीसगढिया भाई मन के पास बडे बड़े महात्मा मन के अच्छा अच्छा बात के संदेसा ला पहुंचाए हर अच्छा दिखतय। हिन्दी बोली के आछत छत्तीसगढ़ी भाई मन बर छत्तीसगढ़ी बोली मां ये किताब ला लिखे के येही मतलब है कि एक तो छत्तीसगढ़ ला उहां के लैका, जवान, सियान, डौका डौकी सबो कोनो समझही अउ दूसर, उहां के पढ़े लिखे आदमीमन ये किताब ला पढ़के हिन्दी के किताब बांच के अच्छा अच्छा सिक्षा लेहे के चिभिक वाला हो जाही। बस, अइसन होही तो मोर मिहनत हर सुफल हो जाही...'' वे आगे लिखते हैं- ''मैं हर राजिम (चंदसूर) के पंडित सुन्दरलाल जी त्रिपाठी ला जतके धन्यवाद देवौं, ओतके थोरे हे। उनकर छत्तीसगढ़ी दानलीला ला जबले इहां के पढ़ैया लिखैया आदमी मन पढ़े लागिन हे, तब ले ओमन किताब पढ़े मा का सवाद मिलथे अउ ओमा का सार होथे, ये बात ला धीरे धीरे जाने लगे हावै। येही ला देख के मैं हर विलायत देस के जग जाहीर कवि शेक्सपियर के लिखे ''कॉमेडी ऑफ इरर'' के अनुवाद ल ''भूल भुलैया'' के कथा छत्तीसगढ़ी बोली के पद्य मां लिख डारे हावौं।''
पंडित शुकलाल पांडेय के शिक्षकीय जीवन में उनकी माता का जितना आदर रहा है उतना ही धमधा के हेड मास्टर पंडित भीषमलाल मिश्र का भी था। भूल भुलैया को उन्हीं को समर्पित करते हुए वे लिखते हैं :-
तुहंला है भूल भुलैया नीचट प्यारा।
लेवा महराज येला अब स्वीकारा॥
भगवान भगत के पूजा फूल के साही।
भीलनी भील के कंदमूल के साही॥
निरधनी सुदामा के जो चाउर साही।
सबरी के पक्का पक्का बोइर खाई॥
कुछ उना गुना झन, हाथ ल अपन पसारा।
लेवा महराज, येला अब स्वीकारा॥
ऐसे प्रतिभाशाली कवि प्रवर पंडित शुकलाल पांडेय का जन्म महानदी के तट पर स्थित कला, साहित्य और संस्कार की त्रिवेणी शिवरीनारायण में संवत् 1942 (सन् 1885) में आषाढ़ मास में हुआ था। उनके पिता का नाम गोविंदहरि और माता का नाम मानमति था। मैथिली मंगल खंडकाव्य में वे लिखते हैं :-
प्रभुवर पदांकित विवुध वंदित भरत भूमि ललाम को,
निज जन्मदाता सौरिनारायण सुनामक ग्राम को।
श्री मानमति मां को, पिता गोविंदहरि गुणधाम को,
अर्पण नमन रूपी सुमन हो गुरू प्रवर शिवराम को॥
उनका लालन पालन और प्राथमिक शिक्षा शिवरीनारायण के धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में धर्मशीला माता के सानिघ्य में हुआ। उनके शिक्षक पं. शिवराम दुबे ने एक बार कहा था-''बच्चा, तू एक दिन महान कवि बनेगा...।'' उनके आशीर्वाद से कालांतर में वह एक उच्च कोटि का साहित्यकार बना।
सन् 1903 में नार्मल स्कूल रायपुर में प्रशिक्षण प्राप्त कर वे शिक्षक बने। यहां उन्हें खड़ी बोली के सुकवि पं. कामताप्रसाद गुरू का सानिघ्य मिला। उनकी प्रेरणा से वे खड़ी बोली में पद्य रचना करने लगे। धीरे धीरे उनकी रचना स्वदेश बांधव, नागरी प्रचारिणी, हितकारिणी, सरस्वती, मर्यादा, मनोरंजन, शारदा, प्रभा आदि प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी। सन् 1913 में सरस्वती के मई के अंक में ''प्राचीन भारत वर्ष'' शीर्षक से उनकी एक कविता प्रकाशित हुई। तब पूरे देश में राष्ट्रीय जनजागरण कोर् कत्तव्य माना जाता था। देखिये उनकी एक कविता :-
हे बने विलासी भारतवासी छाई जड़ता नींद इन्हें,
हर कर इनका तम हे पुरूषोत्तम शीघ्र जगाओ ईश उन्हें।
पंडित जी मूलत: कवि थे। उनकी गद्य रचना में पद्य का बोध होता है। इन्होंने अन्यान्य पुस्तकें लिखी हैं। लेकिन केवल 15 पुस्तकें ही प्रकाश में आ सकी हैं, जिनमें 12 पद्य में और शेष गद्य में है। उनकी रचनाओं में मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ गौरव, पद्य पंचायत, बाल पद्य पीयुष, बाल शिक्षा पहेली, अभिज्ञान मुकुर वर्णाक्षरी, नैषद काव्य और उर्दू मुशायरा प्रमुख है। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने भूल भुलैया, गींया और छत्तीसगढ़ी ग्राम गीत लिखा है। गद्य में उन्होंने राष्ट्र भक्ति से युक्त नाटक मातृमिलन, हास्य व्यंग्य परिहास पाचक, ऐतिहासिक लेखों का संग्रह, चतुर चितरंजन आदि प्रमुख है। उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं और उनके पौत्र श्री रमेश पांडेय और श्री किशोर पांडेय के पास सुरक्षित है।
''छत्तीसगढ़ गौरव'' पंडित शुकलाल पांडेय की प्रकाशित अनमोल कृति है। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद भोपाल द्वारा सन् 1972 में इसे प्रकाशित किया गया है। इसकी भूमिका में पंडित मुकुटधर जी पांडेय लिखते हैं:-'' इसमें छत्तीसगढ़ के इतिहास की शृंखलाबद्ध झांकी देखने को मिलती है। प्राचीन काल में यह भूभाग कितना प्राचुर्य पूर्ण था, यहां के निवासी कैसे मनस्वी और चरित्रवान थे, इसका प्रमाण है। छत्तीसगढ़ की विशेषताओं का इसे दर्पण कहा जा सेता है। इसकी गणना एक उच्च कोटि के आंचलिक साहित्य में की जा सकती है। ''हमर देस'' में छत्तीसगढ़ के जन जीवन की जीवन्त झांकी उन्होंने प्रस्तुत की है। देखिये उनकी यह कविता :-
रहिस कोनो रोटी के खरिया, कोनो तेल के, कोनो वस्त्र के, कोनो साग के और,
सबे जिनिस उपजात रहिन है, ककरों मा नई तकत रहिन है।
निचट मजा मा रहत रहिन है, बेटा पतो, डौकी लैका रहत रहिन इक ठौर।
अतिथि अभ्यागत कोन्नो आवें, घर माटी के सुपेती पावे।
हलवा पूरी भोग लगावें, दूध दही घी अउ गूर मा ओला देंव चिभोर।
तिरिया जल्दी उठेनी सोवे, चम्मर घम्मर मही विलोवे,
चरखा काते रोटी पावे, खाये किसान खेत दिशि जावे चोंगी माखुर जोर।
धर रोटी मुर्रा अउ पानी, खेत मा जाय किसान के रानी।
खेत ल नींदे कहत कहानी, जात रहिन फेर घर मा पहिरे लुगरा लहर पटोर।
चिबक हथौरी नरियर फोरे, मछरी ला तीतुर कर डारैं।
बिन आगी आगी उपजारैं, अंगुरि गवा मा चिबक सुपारी देवें गवें मा फोर।
रहिस गुपल्ला वीर इहें ला, लोहा के भारी खंभा ला।
डारिस टोर उखाड़ गड़े ला, दिल्ली के दरबार मा होगे सनासट सब ओर।
आंखी, कांन पोंछ के ननकू, पढ़ इतिहास सुना संगवारी तब तैं पावे सोर।
जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ तब सी.पी. के हिन्दी भाषी जिलों में छत्तीसगढ़ के जिले भी सम्मिलित थे। छत्तीसगढ़ गौरव के इस पद्य में छत्तीसगढ़ का इतिहास झलकता है :-
सी.पी. हिन्दी जिले प्रकृति के महाराम से,
थे अति पहिले ख्यात् महाकान्तार नाम से।
रामायण कालीन दण्डकारण्य नाम था।
वन पर्वत से ढका बड़ा नयनाभिराम था।
पुनि चेदि नाम विख्यात्, फिर नाम गोड़वाना हुआ।
कहलाता मध्यप्रदेश अब खेल चुका अगणित जुआ॥
तब छत्तीसगढ़ की सीमा का विस्तार कुछ इस प्रकार था :-
उत्तर दिशि में है बघेल भू करता चुम्बन,
यम दिशि गोदावरी कर पद प्रक्षालन।
पूर्व दिशा की ओर उड़ीसा गुणागार है,
तथा उदार बिहार प्रान्त करता बिहार है।
भंडारा बालाघाट औ चांदा मंडला चतुर गण,
पश्चिम निशि दिन कर रहे आलिंगन हो मुदित मन॥
ऐसे सुरक्षित छत्तीसगढ़ राज्य में अनेक राजवंश के राजा-महाराजाओं को एकछत्र राज्य वर्षो तक था। कवि अपनी कृति इनका बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। देखिये उसकी एक बानगी :-
यहां सगर वंशीय प्रशंसी, कश्यप वंशी,
हैहहवंशी बली, पांडुवंशी अरिध्वंशी,
राजर्षितुल्यवंशीय, मौर्यवंशी सुख वर्ध्दन,
शुंगकुल प्रसू वीर, कण्ववंशी रिपु मर्दन,
रणधीर वकाटक गण कुलज, आंध्र कुलोद्भव विक्रमी।
अति सूर गुप्तवंशी हुए बहुत नृपति पराक्रमी॥
था डाहल नाम पश्चिम चेदि का।
यहीं रहीं उत्थान शौर्य की राष्ट्र वेदिका।
उसकी अति ही रन्ध्र राजधानी त्रिपुरी थी।
वैभव में, सुषमा में, मानों अमर पुरी थी।
रघुवंश नृपतियों से हुआ गौरवमय साकेत क्यों।
त्रिपुरी नरपतियों से हुई त्रिपुरी भी प्रख्यात् त्यों॥
कहलाती थी पूर्व चेदि ही ''दक्षिण कोसल''
गढ़ थे दृढ़ छत्तीस नृपों की यहीं महाबल।
इसीलिए तो नाम पड़ा ''छत्तीसगढ़'' इसका।
जैसा इसका भाग्य जगा, जगा त्यों किसका।
श्रीपुर, भांदक औ रत्नपुर थे, इसकी राजधानियां।
चेरी थी श्री औ शारदा दोनों ही महारानियां॥
नदियां तो पुण्यतोया, पुण्यदायिनी और मोक्षदायी होती ही हैं, जीवन दायिनी भी हैं। कदाचित् इसीलिए नदियों के तट पर बसे नगर ''प्रयाग'' और ''काशी'' जैसे संबोधनों से पूजे जाते हैं। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर स्थित अनेक नगर स्थित हैं जिन्हें ऐसे संबोधनों से सुशोभित किये जाते हैं। देखिये कवि की एक बानगी :-
हरदी है हरिद्वार, कानपुर श्रीपुर ही है।
राजिम क्षेत्र प्रयाग, शौरिपुर ही काशी है।
शशिपुर नगर चुनार, पद्मपुर ही पटना है।
कलकत्ता सा कटक निकट तब बसा घना है।
गाती मुस्काती नाचती और झूमती जा रही,
हे महानदी ! तू सुरनदी की है समता पा रही॥
छत्तीसगढ़ में इतना मनमोहक दृश्य हैं तो यहां कवि कैसे नहीं होंगे ? भारतेन्दु युगीन और उससे भी प्राचीन कवि यहां रहे हैं जो प्रचार और प्रचार के अभाव में गुमनाम होकर मर खप गये...आज उसका नाम लेने वाला कोई नहीं है। ऐसी कवियों के नाम कवि ने गिनायें हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम मीर मालिक सुकवि॥
तेजनाथ भगवान, मुहम्मद खान मनस्वी।
बाबू हीरालाल, केशवानंद यशस्वी।
श्री शिवराज, शिवशंकर, ईश्वर प्रसाद वर।
मधु मंगल, माधवराव औ रामाराव चिंचोलकर।
इत्यादिक लेखक हो चुके छत्तीसगढ़ की भूमि पर॥
''धान का कटोरा'' कहलाता है हमारा छत्तीसगढ़। यहां की भूमि जितनी उर्वर है, उतना ही यहां के लोग मेहनती भी हैं। इसीलिये यहां के मेला-मड़ई और तीज त्योहार सब कृषि पर आधारित हैं। अन्न की देवी मां अन्नपूर्णा भी यहीं हैं। कवि का एक पद्य पेश है :-
डुहारती थी धान वहन कर वह टुकनों में।
पीड़ा होती थी न तनिक सी भी घुटनों में ।
पति बोते थे धान, सोचते बरसे पानी।
लखती थी वह बनी अन्नपूर्णा छवि खानी।
खेतों में अच्छी फसल हुई है। मेहनती स्त्रियां टुकनों में भरकर धान खलिहानों से लाकर ढाबा में भर देती हैं। उनका मन बड़ा प्रसन्न है, तो संध्या में सब मिलकर नाच-गाना क्यों न हो, जीवन का रस भी तो इसी में होता है :-
संध्या आगम देख शीघ्र कृषि कारक दम्पत्ति।
जाते थे गृह और यथाक्रम अनुपद सम्पत्ति।
कृषक किशोर तथा किशोरियां युवक युवतीगण।
अंग अंग में सजे वन्य कुसुमावलि भूषण।
जाते स्वग्राम दिशि विहंसते गाते गीत प्रमोद से।
होते द्रुत श्रमजीवी सुखी गायन-हास विनोद से॥
पंडित जी ऐसे मेहनती कृषकों को देव तुल्य मानने में कोई संकोच नहीं करते और कहते हैं :-
हे वंदनीय कृषिकार गण ! तुम भगवान समान हो।
इस जगती तल पर बस तुमही खुद अपने उपमान हो॥
इस पवित्र भूमि पर अनेक राजवंशों के राजा शासन किये लेकिन त्रिपुरी के हैहहवंशी नरेश के ज्येष्ठ पुत्र रत्नदेव ने देवी महामाया के आशीर्वाद से रत्नपुर राज्य की नींव डाली।
हैहहवंशी कौणपादि थे परम प्रतापी।
किये अठारह अश्वमेघ मख धरती कांपी।
उनके सुत सुप्तसुम्न नाम बलवान हुये थे।
रेवा तट अश्वमेघ यज्ञ छ: बार किये थे।
श्री कौणपादि निज समय में महाबली नरपति हुये।
सबसे पहिले ये ही सखे ! छत्तीसगढ़ अधिपति हुए॥
बरसों तक रत्नपुर नरेशों ने इस भूमि पर निष्कंटक राज्य किया। अनेक जगहों में मंदिर, सरोवर, आम्रवन, बाग-बगीचा और सुंदर महल बनवाये...अनेक नगर बसाये और उनकी व्यवस्था के लिये अनेक माफी गांव दान में दिये। अपने वंशजों को यहां के अनेक गढ़ों के मंडलाधीश बनाये। आगे चलकर इनके वंशज शिवनाथ नदी के उत्तर और दक्षिण में 18-18 गढ़ के अधिपति हुये और समूचा क्षेत्र ''36 गढ़'' कहलाया। सुविधा की दृष्टि से रायपुर रत्नपुर से ज्यादा उपयुक्त समझा गया और अंग्रेजों ने मुख्यालय रायपुर स्थानांतरित कर दिया। तब से रत्नपुर का वैभव क्रमश: लुप्त होता गया।
रत्नपुर से गई रायपुर उठ राजधानी।
सूबा उनके लगे वहीं रहने अति ज्ञानी।
छत्तीसगढ़ के पूर्व वही सूबा थे शासक।
शांति विकासक तथा दुख औ भीति विनाशक।
आज जब छत्तीसगढ़ राज्य पृथक अस्तित्व में आ गया है तब सबसे पहिले कृषि प्रधान उद्योगों को विकसित किया जाना चाहिये अन्यथा धान तो नहीं उगेगा बल्कि हमारे हाथ में केवल कटोरा होगा...?
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ. ग.)
सेनापति के भेष से सुसज्जित राजकुमार सुधन्वा युद्ध क्षेत्र में जाने को तैयार खड़े है परन्तु इसके पूर्व माता का आशिर्वाद एवं पत्नी का प्रणय दान स्वीकार करना भी आवश्यक था। अतः राजकुमार सुधन्वा अपनी पूज्य माता के पास पहुच कर प्रणाम करते है। उनकी माता वीरोचित होकर उपदेश देती हुई वीर माता , सुधन्वा को सम्भोधित करती हुयी बोली " बेटा , भले ही अर्जुन और कृष्ण तुझे अपने पराक्रम से परस्त कर दे, परन्तु तू अपने क्षत्रियत्व की रक्षा में प्राणों की बाजी लगा देना। युद्ध में मन को कायर बनाना अपनी पराजय स्वीकार करने के वरावर मणि जाती है। यदि भगवान् कृष्ण के समक्ष तू वीर गति को प्राप्त भी हुआ तो तुझे अमरत्व की प्राप्ति होगी। इस भांति अनेक वीरोचित वचनों द्वारा वीर माँ ने अपने वीर पुत्र सुधन्वा को विदा किया। बहिन कुब्ला ने भी अपने भाई के माथे पर रोली, चन्दन का टीका लगाया और भाई के धिरायुश्य की मंगल कामना की। "
घर के आँगन में आरती का थाल लिए और चेहरे पर मधुर मुस्कान लिए चकोरी की भांति निहारती हुई, मंगल मुखी पत्नी सामने खड़ी थी, उसके सामने सन्तति विहीन भविष्य के द्रश्य उपस्थित थे। वह भी चाहती है की हमारे आराध्य देव अपने क्षत्रित्व की मान मर्यादा को बनाये रखे, परन्तु--------------. सुधन्वा ने अपनी प्रियतमा के चेहरे पर उभरते हुए विभिन्न भाषो को एक ही दृष्टि में परख लिया। यह वही क्षण है जो वियोग के लम्बे भविष्य को अपने संकुचित अंक में समेट लेना चाहता था। इस प्रकार पत्नी का भी प्रणय दान प्राप्त कर , स्नान एवं इश्वर आराधना से निवृत्त होकर युद्ध क्षेत्र के लिए प्रणय किया। पिता ने विलम्ब से युद्ध क्षेत्र में पहुचने का कारन पूंछा। सुधन्वा नतमस्तक हो गए, पिता ने सारी परिस्थिति को जान कर उनके क्रोध का पारावार न रहा। वे वोले रे कामी, युद्ध जैसे पवित्र कार्य के पूर्व यह जघन्य कृत्य करते हुए तुझे जरा भी लज्जा नहीं आई। यह युद्ध तो भगवन श्री कृष्ण के सखा अर्जुन के साथ होना है। इसको विस्मरण करते हुए तूने पुत्र प्राप्ति का ऐसा कार्य किया।
जिन त्रैलोक्य नरेश भगवान् श्री कृष्ण के दर्शन प्राप्त करने के लिए ही तुझने यज्ञाहुत अश्व को रोका था। जिन पतित पवन भगवान् श्री कृष्ण के सन्मुख ही वीर गति प्राप्त होने की मंगल कामना तेरी माता ने की, उन्ही की भक्ति से विमुख होते तुझे शोभा नहीं देता। भक्त वत्सल भगवान् श्री कृष्ण के चरणों में आत्म समर्पण करने वाले व्यक्ति को ही सद् गति की प्राप्ति होती है . पुत्र रत्न प्राप्ति कदापि सद्गति का कारन नहीं बन सकती।
यह बात नहीं की राजकुमार सुधन्वा स्वय आस्तिक नहीं था, प्रयुत वह तो भगवन श्री कृष्ण के चरण कमलो का भ्रमर था, यह सारा दोष परिस्थितियों का था, उसका नहीं। यही कारन है की वह आगे आने वाली संकट कालीन परीक्षा में सफल होकर अपनी भगवत भक्ति का उत्कृस्ट उदाहरण सामने रखता है। अब राज हंश्ध्वज का कर्तव्य था की वे पुत्र मोह को छोड़कर अपनी न्याय परायनता का पऋचय देते और वीर पुत्र को तेल के कडाहे में जीवित डलवा देते। यहाँ विलम्ब पर विलम्ब हो रहा था और वह संख और लिखित नाम के पुरोहित अनुमान लगा रहे थे, की राज अपनी पूर्व घोषणा से मुकर रहे है। ऐसा सोचकर दोनों पुरोहितो ने राज्य को छोड़कर जंगल की और प्रयाण किया। परन्तु अनुमान के विरिद्ध राज वस्तुतः कर्तव्य परायण थे उन्होंने मंत्रियो को आज्ञा दी की युवराज को उबलते हुए तेल के कडाहे में दाल दिया जय। मई अपने रूठे हुए राज्य पुरोहितो को मन्नाने जा रहा हूँ।
मानवताकितनी ही निष्ठुर हो जावे, परन्तु उसके एक कोने के दया का समुद्र अवश्य लहराता है। आत्मीयता में अपने पराये का भेद नहीं रहता। सुन्दर और सुकुमार की जीवित मृत्यु मंत्रिगन अपनी आँखों से कैसे देख सकते थे। करुना जल से उनकी आँखे श्रावण - भादों सी बरसने लगी इस मोह और विव्हलता का दृश्य देखकर भी भगवत भक्त और पितृ भक्त सुधन्वा तनिक भी विचलित नहीं हुआ। उसे अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण जागरूकता थी। विलम्ब की आवश्यकता न थी। इसलिए वह स्वयं अपने नेत्रों द्वारा भगवान् श्री कृष्ण के चित्र को ह्रदय पटल पर खींचता हुआ उबलते हुए कडाहे में कूद पड़ा। ह्रदय से की हुई भक्ति कभी भी निष्फल नहीं होती। सदैव से ही भगवान के सेवक बनते आये है, फलस्वरूप इस करूँण दृश्य को देखने वाली जनता ने जो चमत्कार देखा उससे वह दंग रह गई बल्कि प्रसन्नता के पारावार से झूम उठी अर्थात उबलता हुआ तेल भी शीतल जल के सामान हो गया। उसमे भक्त सुधन्वा सबकी श्रृद्धा के केंद्र बनकर भगवान् के ध्यान में मग्न थे। वीर सुधन्वा के जय जयकार के नारों से नभ मंडल गुंजायमान हो गया। यह भक्ति पूर्ण चमत्कार की चर्चा सुनकर हंश्ध्वज इस अनुपम दृश्य को देखने के लिए राज पुरोहितो के साथ घटना स्थल पर पहुचे। वह मंत्री व पुरोहितो को अपनी आँखों पर विश्वाश नहीं हो रहा था। की एक भगवान् विमुख व्यक्ति की रक्षा इस ढंग से हो सकती है। अवश्य ही दाल में कुछ काला है या तो तेल ही मंतरित किया गया है या राजकुमार ने अपने बदन पर किसी औषधि का लेप किया है। अतः परीक्षा के लिए एक श्रीफल (नारियल) पुरोहितो ने तेल में डाला , देखते देखते वह नारियल कई टुकडो में विभक्त होकर सामने खड़े हुए लोगो के लगे , उसमे से एक टुकड़ा पुरोहित के सर पर लगा जिससे भवत भक्ति की इस परीक्षा में खरे और खोते की पहचान स्पस्ट हो गयी। भक्ति में महत्त्व का मूल्य दोनों पुरोहितो की समझ में आ गया, उन्होंने भी सुधन्वा का अनुकरण किया और प्रायश्चित के रूप में कडाहे में कूद पड़े। परन्तु उबलते हुए तेल में संख का बाल बांका न हुआ क्युकी उफनता हुआ तेल सुधन्वा के पवित्र स्पर्श से शीतल जल के सामान हो चूका था। वस्तुतः भगवान् की भक्ति ही नहीं, भक्ति और भक्तो तथा श्रृद्धा भी चमत्कारों से भरी रहती है। सुधन्वा के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट करते हुए संख बोले "हे भक्त शिरोमणि, आपकी पवित्र देह के स्पर्श मात्र से मै उसी भांति शुद्ध हो गया हूँ जैसे पारस के स्पर्श से लोहा शुद्ध होकर स्वर्ण बन जाता है। वास्तव में आपके श्पर्श से मानव जीवन सफल हो गया। इस प्रकार परीक्षा की खरी अग्नि में तपकर सुधन्वा स्वर्ण बनकर निकले, जनक हंश्ध्वज अपनी पुत्र भक्ति से ही नहीं वरन वीरता से भी पूर्णतया आश्वस्त हो गए।
बालक सुधन्वा ने पितृ चरणों को नमन किया और आज्ञा लेकर सेनाध्यक्ष के रूप में रण क्षेत्र में जहा दूसरी तरफ वीर अर्जुन के नेतृत्व में पांड्वो की विशाल सेना शस्त्रास्त्रो से सुसज्जित युद्ध के लिए कटिबद्ध खडी थी , वहां जा पहुचे। रण भेरी एवं शंखनाद होते ही युद्ध आरम्भ हो गया। वीर सुधन्वा की स्फूर्ति, शूरता एवं चपल मारकाट से पांड्वो के में खलबली मच गई। ब्रष्केतु, प्रदुम्मंन, कृतवर्मा , सात्यिकी आदि वीर योद्धा तो घायल हो भूमि पर गिर पड़े। इन शूर बीरो से निपटने के बाद वीर सुधन्वा ने अर्जुन को ललकारा। अर्जुन कब चूकने वाले थे। अपनी सधी हुई तीक्ष्ण बाण वर्षा से उन्होंने भी गगन मंडल को आच्छादित कर दिया। परन्तु ह्रदय में कृष्ण भक्ति एवं बाहो में वीरत्व भरकर सुधन्वा के द्वारा सारे बाण निष्फल कर दिए गए। अर्जुन का सारथी सुधन्वा के तीक्ष्ण बानो को सह न सका और धराशाही हो गया। पुन: सुधन्वा विजोत्सव पूर्वक अट्टहास करता हुआ अर्जुन से बोला, हे पार्थ, आपका एक सारथी तो आपसे बिछुड़ गया अब अपने चिर्साथी सर्वज्ञ सारथी घनश्याम को पुकारिए न। क्या आपको नहीं मालूम की आपकी पराजय का कारन श्री नारायण की ही अनुपस्थिति है? अपने प्रतिद्वंदी सुधन्वा के व्यंग भरे वचनों से टिल मिलाकर अर्जुन निरुत्तर हो गए परन्तु उन्होंने तुरन ही उन्मीलित नेत्रों से भगवान् श्री कृष्ण का ध्यान किया। ध्यानाहुत नारायण प्रत्यक्ष ही रणभूमि में सारथी के वेश में आ गए। सुधन्वा भगवान् श्री कृष्ण के दर्शन पाकर अपनी मुक्ति चाहते थे, फिर भी उनसे युद्ध करना वे क्षत्रियत्व का अनिवार्य धर्म है, जानते थे।
वीर अर्जुन ने चुनौती को स्वीकार किया और अपने तीन बाणों से सुधन्वा के मस्तक को उड़ाने की प्रतिज्ञा की। यहाँ भक्त सुधन्वा ने भी उन तीन बानो को काटने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन ने पहला बाण छोड़ा इस बाण में भगवान् श्री कृष्ण द्वारा अर्जित वह पुन्य समाविष्ट था जो उन्हें गोवर्धन उद्धार के द्वारा प्राप्त हुआ था। पार्थ का सरसराता हुआ वह तीर में ही पहुच पाया की भक्त सुधन्वा ने गोवर्धन गिरधारी की जय बोल कर उसे बीच में ही काट दिया। दुसरे बाण को अर्जुन द्वारा छोड़ा गया, उसे भी श्री कृष्ण के अनेकानेक पुन्य प्राप्त थे परन्तु "श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे " जाप से वह भी सुधन्वा द्वारा छिन्न - भिन्न कर दिया गया। रण भूमि में हाहाकार मच गया। देवता भी भक्त सुधन्वा की प्रशंसा करने लगे। अब तीसरे बाण में भगवान् श्री कृष्ण जी ने अपने रामावतार का सम्पूर्ण पुन्य उतार दिया। यही नहीं निराकार रूप से वे स्वयं उसके अग्र भाग पर बैठे, मध्य भाग में काल को स्थित किया और पिछले भाग में श्री ब्रम्हा जी को स्थित किया . अर्जुन का यह बाण प्रत्यंचा में चढा तो तो भक्त सुधन्वा ने कहा की हे नाथ, " आप स्वयं बाण में स्थित होकर मेरा उद्धार करने आ रहे है, आइये आपका स्वागत है। आपके चरणों की शरण पाकर मै कृतार्थ हो जाउंगा" अर्जुन की लक्ष्य करते हुए सुधन्वा ने कहा, " भक्त शिरोमणि अर्जुन , तुम धन्य हो साक्षात् परमेश्वर तुम्हारे बाण को अपना पुन्य तो देते ही है, स्वयं भी बाण की नोक पर विराजमान होते है। यद्यपि तुम्हारी विजय अवश्यम्भावी है तथापि मेरी वीरता इस अंतिम बाण को काटने से भी नहीं चूकेगी निदान वह बाण अर्जुन की प्रत्यंचा से छूता, पृथ्वी डगमगाई , आकाश में देवतागण आश्चर्य चकित होकर देखने लगे। सुधन्वा के भक्ति बाण ने उसे काट ही दिया। इस प्रकार सुधन्वा के द्वारा कृत प्रतिज्ञाएँ सफल हुई। अब अर्जुन की प्रतिज्ञा की पूर्ती होना आवश्यक था .
इस कारण बाण के जिस भाग पर काल आरूढ़ था वह जमीन पर नहीं गिरा , क्योकि काल की गति को कोई रोक नहीं सका है। अतएव तीव्रगामी बाण के शेष भाग ने सुधन्वा के मस्तक को धड से जुदा कर दिया। मस्तक विहीन सुधन्वा के शरीर ने पांडव सेना को तहस नहस कर दिया तथा सर भगवान् के श्री चरणों में जा गिर। श्री कृष्ण चन्द्र ने गोविन्द मुकुंद हरी कहते हुए उस मस्तक को अपने हाथ में उठा लिया। इसी समय परम भक्त सुधन्वा के मुख से एक ज्योति निकली और सबके देखते देखते वह ज्योति श्री कृष्ण चन्द्र भगवान् के मुख में समा गई।
सुधन्वा के उपरांत उसके बड़े भाई सुरथ दुःख से विह्वल होकर युद्ध क्षेत्र में आ डेट। आप जगदम्बे के परम भक्त थे। परन्तु श्री कृष्ण की लीला के आगे सुरथ की एक भी नहीं चली और वे वीरगति को प्राप्त हुए। पुत्र वियोग से विह्वल हो हंश्ध्व्ज का शौय पौरुष जाग उठा , वे स्वयं धनुष टंकार करते हुए रणभूमि में आ डटे . श्री कृष्ण जी ने परिस्थिति की विकरालता को देखते हुए अपने सौम्य दर्शन से हंश्ध्वज को शांत किया और वीच में आकर दोनों दलों के मध्य संधि कराइ।
महाराज हंश्ध्व्ज के उत्तराधिकारी संतसम ने भी अपने पिता के सामान एक पत्नी व्रत धारण करते हुए अपने कुल धर्म की परम्परा को आगे बढ़ाया . आगे चलकर इस वंश में सोमेश्वर, सोमिदेव और् विजल्य्देव जैसे प्रतापी राजा हुए।
Mr. Hanshdhwaj the famous King, whose heroic son of Sudhnwa plot is described in the Mahabharata. Sattvic people living in the state of Hanshdhwaj chef used by instinct. Moreover, the aggregate of all members and the public a wife Wrtdhari were. The woman Raman person who live in the state had no right. They had 05 sons and a daughter. Subl, Shurth, Sudarsan, comely and Kuvla Sudhnwa and had a daughter named.
Yudisthir king of Hastinapur Ashwmeg immolate Hanshdhwaj horse came into the state border. Hanshdhwaj the younger son Sudhnwa the said horse caught and her father the news. Hanshdhwaj errand were delighted with the war - battle with Lord Krishna to Arjuna's friend will be able to see. Let's ignore the person will be kept in boiling oil Kadahi. Even if that person does not belong to the people or royal reasons. Today's war commander to select the court to be present. Orders All Veer Yodhagn Durbar attended. Now the Senapati the election of a of the the question was in front. Tip Withdraw & Drink gage Durbar were placed in. This gauntlet valor and virilizing the challenge of the stood for. Nobody dared the tycoon Arjun unlike War generalship undertake risk your head take over. But blessed Sudnwa that the holy father himself forward while preserving the tradition of chivalry he was undertaking. Heroic Sudhnwa cheering full court erupted. So Prince Sudhnwa his venerable mother to reach the bow do. His mother, his preaching was heroic, that said to Sudhnwa requested to quote "Son, even if defeated Arjuna and Krishna to you by your power, but you have to stake their lives in defense of Ksahtriytaw. Battle in your mind to CowardRoly on his brother's forehead, Sandalwood vaccinated and brother of Dirayushy Tue wished. "
Tray in the courtyard of the house of prayer and a sweet smile on his face was watching like chakori pretie, Tue Mukhi was parked in front of his wife, were present at the scene in front of her offspring-less future. She also wants that uphold the dignity of our adorable Dev Kshatritw, but your sweetie on the face of the emerging Sudhnwa -------------- various moment assay in a single view taken. It exactly that same moment which disconnection taller the future your compressed points in the may engulf wanted to take. The wife also love to receive donations, bathing and worshiping God is love to retire from the war zone. Due to late arrival Punchha father in the war zone. Sudhnwa neck became father of the whole situation, realizing his wrath Parawar disappeared. They Vole Rey Kami, war such as the pious act, former it heinous act while Tujhe iota even shame did not come The war Lord Sri Krishna's friend with Arjun to be. This Oblivion the while Tune son, of receipts act as such done.
The King Lord Krishna appeared to Trailoky You the horse stopped. The holy Lord Krishna opposite retrograde motion of the heroic Tue wish your mother's devotion to diverge from those of you not sexy.
It does not matter Sudhnwa the prince himself was not a believer, but he was black beetel of Lord Krishna Kmlo stage, it was all the fault of circumstances, not his. That is why the upcoming crisis in the examination Utkrist examples of devotion and keeps his Bhagavat. Hanshdhwaj was the duty of the king, except the love of the Son, and to the best of his devotion to justice Kdahi oil heroic son to live in the place. Here was a delay and the delay in writing the name and number of the priests there were guessing, the king has ignored its prior announcement. Think like this and Both the Purohit to the kingdom that except the the forest's and march done. But the presumption against virtually dutiful king, he commanded the minister, the prince should be put into boiling oil Kdahi. I'm going to requesting Purohits his upset state.
Humanity, so it deserves to be unkind, but the ocean of mercy must undulate in a corner. In subjectivity - the distinction is not a stranger. Beautiful and delicate to survive the death Mntrign with your own eyes how could see. His eyes burning compassion Shravan - bhadon C was mad. The fascination of the sight seeing and the Bhagavad Viwhlta Sudhnwa devout and faithful father was not at all disturbed. Her duty towards full awareness was. Delay required no. So he own eyes by Lord Sri Krishna's picture heart board draws up boiling Kdahee jumped into. Heart from the devotion never had not been sterilized. Eternal servant of God has been formed, led by the viewing public scene saw the miracle, it was a shock but she got crazy with happiness Parawar goods ie soft water was boiling oil. Therein devotee Sudhnwa everyone's devotedly the center of the by becoming God to the attention of was rapt. The heroic Sudhnwa sky, shouting slogans - the resonant system. This devotion full miracle the discussion of the Hearing the Hanshdhwaj this Anupam look at the footage for the Raj Purohitas with the event venue came to. Minister Purohit not believe in your eyes there was a God in this manner may be disinclined to protect the individual. Something must have been either oil or Prince Mantrit plaster has on his body. Therefore, to test a quince (coconut) oil poured into Purohito see - see the coconut split into several pieces in front of the people involved, the head priest put a piece of it, the Lord met the test of devotion and false identification was obvious. Devotion to the importance for both Purohito understood, he also Sudhnwa followed and atonement as Kdahee plunged into. But the number of boiling oil, nothing happened because rushing oil Sudhnwa not touch the sacred items had soft water. In fact, God's devotion not only devotion and devotees and devotedly even miracles are crowded.become. Thus stood the test turned out to be gold Sudhnwa hardened by fire, but not the parent Hanshdhwaj heroic devotion to his son even entirely convinced.
Child Sudhnwa the corresponding steps salute and commands the Army as a strategic area where the other side of the heroic Arjuna led Pandvas the vast army Sstrastro equipped war committed to standing, was there to be reached. Rann Bheri and blowing as soon as the war began,. Heroic Sudhnwa the spirit, valor and playful MARCOT the Pandvas of consternation. Brashketu, Pradummnn, Kritavarma, Satyiki etc Veer Yodha then become injured fell to the ground. These Shur Biro after handling heroic Sudhnwa Arjun challenged. Arjun IO miss the were supposed. Its fine the sharp arrows rain he Gagan board covered. But the heart of Krishna devotion and arms in the valor filling Sudhnwa by all the arrows to defeat inflicted. Arjun of the charioteer Sudhnwa of the incisive Banu to co-dont ment & Defeated became. Re: Sudhnwa Vijotsv correctively heehaw-legged Arjuna from the uttered, hey Partha, Your One charioteer then ask you twins separated now been in its Cirsathy omniscient charioteer Ghanshyam up the Pukaria dont. Not you transpired of Your debacle predominant basis of Mr Narayan's only absence? You Its own rival Sudhnwa of the Satire filled from these statements you til the Overall Arjun rendered speechless moved but he Turan same Unmilit from the eyes Lord Mr Krishna meditated on. Dyanahut Narayan direct the battlefield charioteer disguised come. Sudhnwa Lord Sri Krishna's philosophy found its salvation wanted, then they fight they Kshatriytw compulsory religion knew.
भव्य ललाट, त्रिपुंड चंदन, सघन काली मूँछें और गांधी टोपी लगाये साँवले, ठिगने व्यक्तित्व के धनी पंडित शुकलाल पांडेय छत्तीसगढ़ के द्विवेदी युगीन साहित्यकारों में से एक थे.. और पंडित प्रहलाद दुबे, पंडित अनंतराम पांडेय, पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी, गोविंदसाव, पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय, वेदनाथ शर्मा, बटुकसिंह चौहान, पंडित लोचनप्रसाद पांडेय, काव्योपाध्याय हीरालाल, पंडित सुंदरलाल शर्मा, राजा चक्रधरसिंह, डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र और पंडित मुकुटधर पांडेय की श्रृंखला में एक पूर्ण साहित्यिक व्यक्ति थे। वे केवल एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि एक संस्था थे। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और छत्तीसगढ़ी भाषा में बहुत सी रचनाएं लिखीं हैं। उनकी कुछ रचनाएं जैसे छत्तीसगढ़ गौरव, मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया ही प्रकाशित हो सकी हैं और उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं। उनकी रचनाओं में छत्तीसगढ़ियापन की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। छत्तीसगढ़ गौरव में ''हमर देस'' की एक बानगी देखिये :-Imposing frontal, Tripund sandalwood, dark thick black mustaches and Gandhi cap fitted, a man Pt Short Shuklal Pandey was one of the writers of Chhattisgarh Dwivedi era .. Prahlad Dubey and Pandit, Pandit Anant Ram Pandey, Pandit Mediniprasad Pandey Malikaram Bhogha Pt, Pt Hiraram Tripathi, Govindsav, Pandit Purushottam Prasad Pandey, Vednath Sharma, Btuksinh Chauhan, Pt Lochnprasad Pandey, Kavyopadyay Hiralal, Pandit Sunderlal Sharma, King Ckrdharsinh, Dr. A series of alloys and Pt mukutadhar Pandey Bldevprasad full literary man. They were just one person but an institution. The Sanskrit, Hindi, English, Urdu and Chhattisgarhi language has written many compositions. Some of his compositions, such as Chhattisgarh pride, Maithili Tue, Chhattisgarhi maze could be published, and most of his compositions are unpublished. Cttisgdiapan can see the stamp of his compositions. View a hallmark of pride in Chhattisgarh'''' Hummer Des: -
ये हमर देस छत्तिसगढ़ आगू रहिस जगत सिरमौर।
दक्खिन कौसल नांव रहिस है मुलुक मुलुक मां सोर।
रामचंद सीता अउ लछिमन, पिता हुकुम से बिहरिन बन बन।
हमर देस मां आ तीनों झन, रतनपुर के रामटेकरी मां करे रहिन है ठौर॥
घुमिन इहां औ ऐती ओती, फैलिय पद रज चारो कोती।
यही हमर बढ़िया है बपौती, आ देवता इहां औ रज ला आंजे नैन निटोर॥
राम के महतारी कौसिल्या, इहें के राजा के है बिटिया।
हमर भाग कैसन है बढ़िया, इहें हमर भगवान राम के कभू रहिस ममिओर॥
इहें रहिन मोरध्वज दानी, सुत सिर चीरिन राजा-रानी।
कृष्ण प्रसन्न होइन बरदानी, बरसा फूल करे लागिन सब देवता जय जय सोर॥
रहिन कामधेनु सब गैया, भर देवै हो लाला ! भैया !!
मस्त रहे खा लोग लुगैया, दुध दही घी के नदी बोहावै गली गली अउ खोर॥
सबो रहिन है अति सतवादी, दुध दही भात खा पहिरै खादी।
धरम सत इमान के रहिन है आदी, चाहे लाख साख हो जावै बनिन नी लबरा चोर॥
पगड़ी मुकुट बारी के कुंडल, चोंगी बंसरी पनही पेजल।
चिखला बुंदकी अंगराग मल, कृष्ण-कृषक सब करत रहिन है गली गली मां अंजोर॥
''छत्तीसगढ़ी भूल भुलैया'' जो ''कॉमेडी ऑफ इरर'' का अंग्रेजी अनुवाद है, की भूमिका में पांडेय जी छत्तीसगढ़ी दानलीला के रचियता पंडित सुन्दरलाल शर्मा के प्रति आभार व्यक्त करते हुए छत्तीसगढ़ी में लिखने का आह्वान करते हैं। उस समय पढ़ाई के प्रति इतनी अरूचि थी कि लोग पेपर और पुस्तक भी नहीं पढ़ते थे। पांडेय जी तब की बात को इस प्रकार व्यक्त करते हैं- ''हाय ! कतेक दुख के बात अय ! कोन्हो लैका हर कछू किताब पढ़े के चिभिक करे लागथे तो ओखर ददा-दाई मन ओला गारी देथे अउ मारपीट के ओ बिचारा के अतेक अच्छा अअउ हित करैया सुभाव ला नष्ट कर देथे। येकरे बर कहेबर परथे कि इहां के दसा निचट हीन हावै। इहां के रहवैया मन के किताब अउ अखबार पढ़के ज्ञान अउ उपदेस सीखे बर कोन्नो कहे तो ओमन कइथे-
हमन नइ होवन पंडित-संडित तहीं पढ़ेकर आग लुवाट।
ले किताब अउ गजट सजट ला जीभ लमा के तईहर चाट॥
जनम के हम तो नांगर जोत्ता नई जानन सोरा सतरा।
भुखा भैंसा ता ! ता ! ता !! यही हमर पोथी पतरा !!!
''भूल भुलैया'' सन् 1918 में लिखा गया था तब हिन्दी में पढ़ना लिखना हेय समझा जाता था। पंडित शुकलाल पांडेय अपनी पीड़ा को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-''जबले छत्तिसगढ़ के रहवैया मन ला हिन्दी बर प्रेम नई होवे, अउ जबले ओमन हिन्दी के पुस्तक से फायदा उठाय लाइ नई हो जावे, तबले उकरे बोली छत्तीसगढ़ीच हर उनकर सहायक है। येकरे खातिर छत्तीसगढ़ी बोली मां लिखे किताब हर निरादर करे के चीज नो हे। अउ येकरे बर छत्तीसगढ़ी बोली मां छत्तीसगढिया भाई मन के पास बडे बड़े महात्मा मन के अच्छा अच्छा बात के संदेसा ला पहुंचाए हर अच्छा दिखतय। हिन्दी बोली के आछत छत्तीसगढ़ी भाई मन बर छत्तीसगढ़ी बोली मां ये किताब ला लिखे के येही मतलब है कि एक तो छत्तीसगढ़ ला उहां के लैका, जवान, सियान, डौका डौकी सबो कोनो समझही अउ दूसर, उहां के पढ़े लिखे आदमीमन ये किताब ला पढ़के हिन्दी के किताब बांच के अच्छा अच्छा सिक्षा लेहे के चिभिक वाला हो जाही। बस, अइसन होही तो मोर मिहनत हर सुफल हो जाही...'' वे आगे लिखते हैं- ''मैं हर राजिम (चंदसूर) के पंडित सुन्दरलाल जी त्रिपाठी ला जतके धन्यवाद देवौं, ओतके थोरे हे। उनकर छत्तीसगढ़ी दानलीला ला जबले इहां के पढ़ैया लिखैया आदमी मन पढ़े लागिन हे, तब ले ओमन किताब पढ़े मा का सवाद मिलथे अउ ओमा का सार होथे, ये बात ला धीरे धीरे जाने लगे हावै। येही ला देख के मैं हर विलायत देस के जग जाहीर कवि शेक्सपियर के लिखे ''कॉमेडी ऑफ इरर'' के अनुवाद ल ''भूल भुलैया'' के कथा छत्तीसगढ़ी बोली के पद्य मां लिख डारे हावौं।''
पंडित शुकलाल पांडेय के शिक्षकीय जीवन में उनकी माता का जितना आदर रहा है उतना ही धमधा के हेड मास्टर पंडित भीषमलाल मिश्र का भी था। भूल भुलैया को उन्हीं को समर्पित करते हुए वे लिखते हैं :-
तुहंला है भूल भुलैया नीचट प्यारा।
लेवा महराज येला अब स्वीकारा॥
भगवान भगत के पूजा फूल के साही।
भीलनी भील के कंदमूल के साही॥
निरधनी सुदामा के जो चाउर साही।
सबरी के पक्का पक्का बोइर खाई॥
कुछ उना गुना झन, हाथ ल अपन पसारा।
लेवा महराज, येला अब स्वीकारा॥
ऐसे प्रतिभाशाली कवि प्रवर पंडित शुकलाल पांडेय का जन्म महानदी के तट पर स्थित कला, साहित्य और संस्कार की त्रिवेणी शिवरीनारायण में संवत् 1942 (सन् 1885) में आषाढ़ मास में हुआ था। उनके पिता का नाम गोविंदहरि और माता का नाम मानमति था। मैथिली मंगल खंडकाव्य में वे लिखते हैं :-
प्रभुवर पदांकित विवुध वंदित भरत भूमि ललाम को,
निज जन्मदाता सौरिनारायण सुनामक ग्राम को।
श्री मानमति मां को, पिता गोविंदहरि गुणधाम को,
अर्पण नमन रूपी सुमन हो गुरू प्रवर शिवराम को॥
उनका लालन पालन और प्राथमिक शिक्षा शिवरीनारायण के धार्मिक और साहित्यिक वातावरण में धर्मशीला माता के सानिघ्य में हुआ। उनके शिक्षक पं. शिवराम दुबे ने एक बार कहा था-''बच्चा, तू एक दिन महान कवि बनेगा...।'' उनके आशीर्वाद से कालांतर में वह एक उच्च कोटि का साहित्यकार बना।
सन् 1903 में नार्मल स्कूल रायपुर में प्रशिक्षण प्राप्त कर वे शिक्षक बने। यहां उन्हें खड़ी बोली के सुकवि पं. कामताप्रसाद गुरू का सानिघ्य मिला। उनकी प्रेरणा से वे खड़ी बोली में पद्य रचना करने लगे। धीरे धीरे उनकी रचना स्वदेश बांधव, नागरी प्रचारिणी, हितकारिणी, सरस्वती, मर्यादा, मनोरंजन, शारदा, प्रभा आदि प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी। सन् 1913 में सरस्वती के मई के अंक में ''प्राचीन भारत वर्ष'' शीर्षक से उनकी एक कविता प्रकाशित हुई। तब पूरे देश में राष्ट्रीय जनजागरण कोर् कत्तव्य माना जाता था। देखिये उनकी एक कविता :-
हे बने विलासी भारतवासी छाई जड़ता नींद इन्हें,
हर कर इनका तम हे पुरूषोत्तम शीघ्र जगाओ ईश उन्हें।
पंडित जी मूलत: कवि थे। उनकी गद्य रचना में पद्य का बोध होता है। इन्होंने अन्यान्य पुस्तकें लिखी हैं। लेकिन केवल 15 पुस्तकें ही प्रकाश में आ सकी हैं, जिनमें 12 पद्य में और शेष गद्य में है। उनकी रचनाओं में मैथिली मंगल, छत्तीसगढ़ गौरव, पद्य पंचायत, बाल पद्य पीयुष, बाल शिक्षा पहेली, अभिज्ञान मुकुर वर्णाक्षरी, नैषद काव्य और उर्दू मुशायरा प्रमुख है। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने भूल भुलैया, गींया और छत्तीसगढ़ी ग्राम गीत लिखा है। गद्य में उन्होंने राष्ट्र भक्ति से युक्त नाटक मातृमिलन, हास्य व्यंग्य परिहास पाचक, ऐतिहासिक लेखों का संग्रह, चतुर चितरंजन आदि प्रमुख है। उनकी अधिकांश रचनाएं अप्रकाशित हैं और उनके पौत्र श्री रमेश पांडेय और श्री किशोर पांडेय के पास सुरक्षित है।
''छत्तीसगढ़ गौरव'' पंडित शुकलाल पांडेय की प्रकाशित अनमोल कृति है। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद भोपाल द्वारा सन् 1972 में इसे प्रकाशित किया गया है। इसकी भूमिका में पंडित मुकुटधर जी पांडेय लिखते हैं:-'' इसमें छत्तीसगढ़ के इतिहास की शृंखलाबद्ध झांकी देखने को मिलती है। प्राचीन काल में यह भूभाग कितना प्राचुर्य पूर्ण था, यहां के निवासी कैसे मनस्वी और चरित्रवान थे, इसका प्रमाण है। छत्तीसगढ़ की विशेषताओं का इसे दर्पण कहा जा सेता है। इसकी गणना एक उच्च कोटि के आंचलिक साहित्य में की जा सकती है। ''हमर देस'' में छत्तीसगढ़ के जन जीवन की जीवन्त झांकी उन्होंने प्रस्तुत की है। देखिये उनकी यह कविता :-
रहिस कोनो रोटी के खरिया, कोनो तेल के, कोनो वस्त्र के, कोनो साग के और,
सबे जिनिस उपजात रहिन है, ककरों मा नई तकत रहिन है।
निचट मजा मा रहत रहिन है, बेटा पतो, डौकी लैका रहत रहिन इक ठौर।
अतिथि अभ्यागत कोन्नो आवें, घर माटी के सुपेती पावे।
हलवा पूरी भोग लगावें, दूध दही घी अउ गूर मा ओला देंव चिभोर।
तिरिया जल्दी उठेनी सोवे, चम्मर घम्मर मही विलोवे,
चरखा काते रोटी पावे, खाये किसान खेत दिशि जावे चोंगी माखुर जोर।
धर रोटी मुर्रा अउ पानी, खेत मा जाय किसान के रानी।
खेत ल नींदे कहत कहानी, जात रहिन फेर घर मा पहिरे लुगरा लहर पटोर।
चिबक हथौरी नरियर फोरे, मछरी ला तीतुर कर डारैं।
बिन आगी आगी उपजारैं, अंगुरि गवा मा चिबक सुपारी देवें गवें मा फोर।
रहिस गुपल्ला वीर इहें ला, लोहा के भारी खंभा ला।
डारिस टोर उखाड़ गड़े ला, दिल्ली के दरबार मा होगे सनासट सब ओर।
आंखी, कांन पोंछ के ननकू, पढ़ इतिहास सुना संगवारी तब तैं पावे सोर।
जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ तब सी.पी. के हिन्दी भाषी जिलों में छत्तीसगढ़ के जिले भी सम्मिलित थे। छत्तीसगढ़ गौरव के इस पद्य में छत्तीसगढ़ का इतिहास झलकता है :-
सी.पी. हिन्दी जिले प्रकृति के महाराम से,
थे अति पहिले ख्यात् महाकान्तार नाम से।
रामायण कालीन दण्डकारण्य नाम था।
वन पर्वत से ढका बड़ा नयनाभिराम था।
पुनि चेदि नाम विख्यात्, फिर नाम गोड़वाना हुआ।
कहलाता मध्यप्रदेश अब खेल चुका अगणित जुआ॥
तब छत्तीसगढ़ की सीमा का विस्तार कुछ इस प्रकार था :-
उत्तर दिशि में है बघेल भू करता चुम्बन,
यम दिशि गोदावरी कर पद प्रक्षालन।
पूर्व दिशा की ओर उड़ीसा गुणागार है,
तथा उदार बिहार प्रान्त करता बिहार है।
भंडारा बालाघाट औ चांदा मंडला चतुर गण,
पश्चिम निशि दिन कर रहे आलिंगन हो मुदित मन॥
ऐसे सुरक्षित छत्तीसगढ़ राज्य में अनेक राजवंश के राजा-महाराजाओं को एकछत्र राज्य वर्षो तक था। कवि अपनी कृति इनका बड़ा ही सजीव चित्रण किया है। देखिये उसकी एक बानगी :-
यहां सगर वंशीय प्रशंसी, कश्यप वंशी,
हैहहवंशी बली, पांडुवंशी अरिध्वंशी,
राजर्षितुल्यवंशीय, मौर्यवंशी सुख वर्ध्दन,
शुंगकुल प्रसू वीर, कण्ववंशी रिपु मर्दन,
रणधीर वकाटक गण कुलज, आंध्र कुलोद्भव विक्रमी।
अति सूर गुप्तवंशी हुए बहुत नृपति पराक्रमी॥
था डाहल नाम पश्चिम चेदि का।
यहीं रहीं उत्थान शौर्य की राष्ट्र वेदिका।
उसकी अति ही रन्ध्र राजधानी त्रिपुरी थी।
वैभव में, सुषमा में, मानों अमर पुरी थी।
रघुवंश नृपतियों से हुआ गौरवमय साकेत क्यों।
त्रिपुरी नरपतियों से हुई त्रिपुरी भी प्रख्यात् त्यों॥
कहलाती थी पूर्व चेदि ही ''दक्षिण कोसल''
गढ़ थे दृढ़ छत्तीस नृपों की यहीं महाबल।
इसीलिए तो नाम पड़ा ''छत्तीसगढ़'' इसका।
जैसा इसका भाग्य जगा, जगा त्यों किसका।
श्रीपुर, भांदक औ रत्नपुर थे, इसकी राजधानियां।
चेरी थी श्री औ शारदा दोनों ही महारानियां॥
नदियां तो पुण्यतोया, पुण्यदायिनी और मोक्षदायी होती ही हैं, जीवन दायिनी भी हैं। कदाचित् इसीलिए नदियों के तट पर बसे नगर ''प्रयाग'' और ''काशी'' जैसे संबोधनों से पूजे जाते हैं। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में महानदी के तट पर स्थित अनेक नगर स्थित हैं जिन्हें ऐसे संबोधनों से सुशोभित किये जाते हैं। देखिये कवि की एक बानगी :-
हरदी है हरिद्वार, कानपुर श्रीपुर ही है।
राजिम क्षेत्र प्रयाग, शौरिपुर ही काशी है।
शशिपुर नगर चुनार, पद्मपुर ही पटना है।
कलकत्ता सा कटक निकट तब बसा घना है।
गाती मुस्काती नाचती और झूमती जा रही,
हे महानदी ! तू सुरनदी की है समता पा रही॥
छत्तीसगढ़ में इतना मनमोहक दृश्य हैं तो यहां कवि कैसे नहीं होंगे ? भारतेन्दु युगीन और उससे भी प्राचीन कवि यहां रहे हैं जो प्रचार और प्रचार के अभाव में गुमनाम होकर मर खप गये...आज उसका नाम लेने वाला कोई नहीं है। ऐसी कवियों के नाम कवि ने गिनायें हैं :-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर, नृप लक्ष्मण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम मीर मालिक सुकवि॥
तेजनाथ भगवान, मुहम्मद खान मनस्वी।
बाबू हीरालाल, केशवानंद यशस्वी।
श्री शिवराज, शिवशंकर, ईश्वर प्रसाद वर।
मधु मंगल, माधवराव औ रामाराव चिंचोलकर।
इत्यादिक लेखक हो चुके छत्तीसगढ़ की भूमि पर॥
''धान का कटोरा'' कहलाता है हमारा छत्तीसगढ़। यहां की भूमि जितनी उर्वर है, उतना ही यहां के लोग मेहनती भी हैं। इसीलिये यहां के मेला-मड़ई और तीज त्योहार सब कृषि पर आधारित हैं। अन्न की देवी मां अन्नपूर्णा भी यहीं हैं। कवि का एक पद्य पेश है :-
डुहारती थी धान वहन कर वह टुकनों में।
पीड़ा होती थी न तनिक सी भी घुटनों में ।
पति बोते थे धान, सोचते बरसे पानी।
लखती थी वह बनी अन्नपूर्णा छवि खानी।
खेतों में अच्छी फसल हुई है। मेहनती स्त्रियां टुकनों में भरकर धान खलिहानों से लाकर ढाबा में भर देती हैं। उनका मन बड़ा प्रसन्न है, तो संध्या में सब मिलकर नाच-गाना क्यों न हो, जीवन का रस भी तो इसी में होता है :-
संध्या आगम देख शीघ्र कृषि कारक दम्पत्ति।
जाते थे गृह और यथाक्रम अनुपद सम्पत्ति।
कृषक किशोर तथा किशोरियां युवक युवतीगण।
अंग अंग में सजे वन्य कुसुमावलि भूषण।
जाते स्वग्राम दिशि विहंसते गाते गीत प्रमोद से।
होते द्रुत श्रमजीवी सुखी गायन-हास विनोद से॥
पंडित जी ऐसे मेहनती कृषकों को देव तुल्य मानने में कोई संकोच नहीं करते और कहते हैं :-
हे वंदनीय कृषिकार गण ! तुम भगवान समान हो।
इस जगती तल पर बस तुमही खुद अपने उपमान हो॥
इस पवित्र भूमि पर अनेक राजवंशों के राजा शासन किये लेकिन त्रिपुरी के हैहहवंशी नरेश के ज्येष्ठ पुत्र रत्नदेव ने देवी महामाया के आशीर्वाद से रत्नपुर राज्य की नींव डाली।
हैहहवंशी कौणपादि थे परम प्रतापी।
किये अठारह अश्वमेघ मख धरती कांपी।
उनके सुत सुप्तसुम्न नाम बलवान हुये थे।
रेवा तट अश्वमेघ यज्ञ छ: बार किये थे।
श्री कौणपादि निज समय में महाबली नरपति हुये।
सबसे पहिले ये ही सखे ! छत्तीसगढ़ अधिपति हुए॥
बरसों तक रत्नपुर नरेशों ने इस भूमि पर निष्कंटक राज्य किया। अनेक जगहों में मंदिर, सरोवर, आम्रवन, बाग-बगीचा और सुंदर महल बनवाये...अनेक नगर बसाये और उनकी व्यवस्था के लिये अनेक माफी गांव दान में दिये। अपने वंशजों को यहां के अनेक गढ़ों के मंडलाधीश बनाये। आगे चलकर इनके वंशज शिवनाथ नदी के उत्तर और दक्षिण में 18-18 गढ़ के अधिपति हुये और समूचा क्षेत्र ''36 गढ़'' कहलाया। सुविधा की दृष्टि से रायपुर रत्नपुर से ज्यादा उपयुक्त समझा गया और अंग्रेजों ने मुख्यालय रायपुर स्थानांतरित कर दिया। तब से रत्नपुर का वैभव क्रमश: लुप्त होता गया।
रत्नपुर से गई रायपुर उठ राजधानी।
सूबा उनके लगे वहीं रहने अति ज्ञानी।
छत्तीसगढ़ के पूर्व वही सूबा थे शासक।
शांति विकासक तथा दुख औ भीति विनाशक।
आज जब छत्तीसगढ़ राज्य पृथक अस्तित्व में आ गया है तब सबसे पहिले कृषि प्रधान उद्योगों को विकसित किया जाना चाहिये अन्यथा धान तो नहीं उगेगा बल्कि हमारे हाथ में केवल कटोरा होगा...?
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रचना, आलेख एवं प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
राघव, डागा कालोनी, चांपा (छ. ग.)
नोट: कृपया लेख का दुरुप्रयोग न करें.
(pradeep singh taamer)
1 टिप्पणी:
sabhi haihay vanshi kshatriyo ko naye varsha kee hardik shubhkamnaye.
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