मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

11 - हैहय जन्म एवं उनका चरित्र

हैहय जन्म एवं उनका चरित्र 


श्री श्री 108 परम पूज्यनीय गुरूजी द्वारा कुछ सामग्री प्राप्त हुयी। आप पुराणों के प्रवचन में अत्यंत दक्ष थे। ज्योतिष के भी प्रकांड विद्वान् थे। आपको विविध ग्रंथो का अध्ययन विशेष है। आप लगभग 20 वर्ष पूर्व हम लोगो को छोड़कर परलोक को निकल गए। निम्न लिखित श्लोक जो आपके द्वारा ही बतलाये गये है, वे यहाँ उधृत है----
Guruji Sri Sri 108 pujyaniya get some content by ultimate. you were very efficient in the discourse of the Puranas. astrology also hired education. studying special books, you have a variety of nearly 20 years ago. we were the last people to leave out the following verses written by. were they here --

        अश्व वाणी शुक्ल पक्षम प्रतिपदा मंद वासरे।
           मध्य दिवसे अभिजिते जन्मावित जनार्दनह।।
             ययुर चन्द्रम त्वया वंश ययाति नृप तथैव च।
             तस्य पुत्रं सु-पुत्रम च हैहय देव  जनार्दनह।।


ययाति महान चन्द्रवंशी सम्राट

ययाति

ययाति राजा नहुष की रानी बिरजा के गर्भ से उत्पन्न  पुत्र थे वे  भारत के पहले चकर्वर्ती सम्राट हुये जिसने अपने राज्य का बहुत विस्तार किया॥ इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी इसलिए  इनके पिता नहुष  को अगस्तय मुनि आदि ऋषियों ने इन्द्रप्रस्थ से गिरा दिया और अजगर बना दिया तथा इनके ज्येष्ठ भ्राता यति ने राज्य लेने से इन्कार कर दिया।तब ययाति राजा के पद पर बैठे।उन्होंने  अपने चारों छोटे भाइयों को चार दिशाओ में नियुक्त कर दिया और आप शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे। देवयानी से दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए।  

देवयानी के गर्भ से  महाराज ययाति के यदु  नामक एक  पुत्र  उत्पन्न हुआ और यदु से यदुवंश चला। महाराज ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राह्मण पुत्री थी।  यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ? 

देवयानी और शर्मिष्ठा कौन थी? 

इसका विवरण इस प्रकार है:- शर्मिष्ठा दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या थी। वह अति माननी अति सुंदर राजपुत्री थी।राजा को शर्मिष्ठा से विशेष स्नेह था। पुराणों के अनुसार शुक्राचार्य दैत्यों के राजगुरु एवं पुरोहित थे।देवयानी उन्ही दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी तथा शर्मिष्ठा की सखी थी। रूप-लावण्य में देवयानी शर्मिष्ठा से किसी प्रकार से कम न थी। देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों महाराज ययाति की पत्नियाँ थी। ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राहमण पुत्री थी तो यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ? 

इस विषय में कहा जाता है कि एक दिन शर्मिष्ठा अपनी हजारो सखियों के साथ नगर के उपवन में टहल रही थी उनके साथ गुरु पुत्री देवयानी भी थी उस उपवन में सुंदर सुंदर सुहावने पुष्पों से लदे हुए अनेको वृक्ष थे उसमे एक सुंदर सरोवर भी था सरोवर में सुंदर सुंदर मनमोहक कमल खिले हुए थे उनपर भौरे मधुरता पूर्वक गुंजार कर रहे थे इस सरोवर पर पहुचने पर सभी कन्याओ ने अपने अपने वस्त्र उतारकर किनारे रख दिया और आपस में एक दूसरे पर जल छिड़कती हुई जलविहार करने लगी उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले तो भगवान शकँर को आता देख सभी कन्याये लज्जावश दौड़ कर अपने अपने वस्त्र पहनने लगी जल्दी में भूलवश शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिए इस पर देवयानी क्रोधित हो कर बोली ये शर्मिष्ठा तु एक असुर पुत्री होकर तुमने ब्रह्मण पुत्री के वस्त्र पहनने का साहस कैसे किया?

जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है बड़े-बड़े लोकपाल तथा देव इंद्र आदि जिनके चरणों की वंदना करते है उन्ही ब्राह्मणों में श्रेष्ट हम भृगुवंशी है मेरे वस्त्र धारण करके तूने मेरा अपमान किया है देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा तिलमिला गयी और क्रोधित होकर देवयानी को कहा  ये भिखारिन आप तूने अपने आप को क्या समझा है? 
तुझे कुछ पता भी है कि नही है?
जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ो के लिए ताकते रहते है उसी तरह तू अपने बाप के साथ मेरी रसोई की तरफ देखा करती है क्या मेरे ही दिए हुए टुकडो से तेरा शरीर नहीं पला?

यह कहकर शर्मिष्ठा ने देवयानी के पहने हुए कपडे छीन कर उसे नंगी ही उपवन के एक कुएं में ढकेलवा दिया देवयानी को कुएं में ढकेलकर शर्मिष्ठा सखियों को लेकर घर चली आयी।

संयोगवश राजा ययाति उस समय वन में शिकार खेलने गए हुए थे और वे उधर से गुजर रहे थे उन्हें बड़ी प्यास लगी थी पानी की खोज करते हुए वे उसी कुएं के पास गए जिसमे देवयानी को धकेल दिया गया था उस समय वह कुए में नंगी खड़ी थी राजा ययाति ने उसे पहनने के लिए अपना दुपट्टा दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकड़कर कुएं से बहार निकाल लिया कुए से बहार निकलने पर देवयानी ने ययाति से कहा हे वीर जिस हाथ को तुमने पकड़ा है उसे अब कोइ दूसरा न पकडे। मेरा और आपका सम्बन्ध ईश्वरकृत है मनुष्यकृत नहीं निसंदेह मै बाह्मण पुत्री हूँ लेकिन मेरा पति ब्रह्मण नहीं हो सकता क्योकि वृहस्पति के पुत्र कच ने ऐसा श्राप दिया है कि देवयानी के ऐसा कहने पर राजा न चाहते हुए भी दैव की प्रेरणा से ययाति उसकी बात मान गए इसके बाद ययाति अपने घर चले गये उधर देवयानी रोती हुई अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था वह कह सुनाया पुत्री की दशा देख कर शुक्राचार्य का मन उचाट गया वे पुरोहिती की निंदा करते हुए तथा भिक्षा वृति को बुरी कहते हुए अपनी बेटी देवयानी को साथ लेकर नगर से बाहर चले गए यह समाचार जब वृषपर्वा ने सुना तो उनके मन में शंका हुई कि गुरूजी कही शत्रुओ से मिलकर उनकी जीत न करवा दे अथवा मुझे शाप न दे दें तो वो ऐसा विचार करके अपने पिता के साथ गुरूजी के पास आयी और मस्तक नवाकर पैरो में गिरकर क्षमा याचना कियातब शुक्राचार्य जी बोले हे राजन आप मेरी पुत्री देवयानी को मना लो वह जो कहे उसे पूरा करो वृषपर्वा ने कहा बहुत अच्छा तब देवयानी बोलीं मै पिता की आज्ञा से जिस पति के घर जाऊं अपनी सहेलियों के साथ आपकी पुत्री शर्मिष्ठा उसके यहाँ पर दासी बनकर रहे शर्मिष्ठा इस बात से बहुत दुखी हुई परन्तु यह सोच कर देवयानी की शर्त मान ली कि इससे मेरे पिता का बहुत काम सिद्ध होगा तब शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह ययाति के साथ कर दिया एक हज़ार सहेलियों सहित शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनाकर उसके घर भेज दिया समय बीतता गया देवयानी लगन के साथ पत्नी-धर्म का पालन करते हुए महाराज ययाति के साथ रहने लगी शर्मिष्ठा सहेलियों सहित दासी की भाति देवयानी की सेवा करने लगी।

शर्मिष्ठा राजा ययाति की पत्नी कैसे बनी?

आगे की पंक्तियों में इसका संक्षिप्त वर्णन किया गया है कुछ दिनों के बाद देवयानी पुत्रवती हो गई| देवयानी को संतान देख शर्मिष्ठा ने भी संतान प्राप्ति के उद्देश्य से राजा ययाति से एकांत में सहवास की याचना की| इस प्रकार की याचना को धर्म-संगत मानकर शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी उचित काल पर राजा ने शर्मिष्ठा से सहवास किया| 
इस प्रकार देवयानी से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए|

जब देवयानी को ज्ञात हुआ कि शर्मिष्ठा ने मेरे पति द्वारा गर्भ धारण किया था तो वह क्रुद्ध हो कर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली गयी| राजा ययाति भी उसके पीछे- पीछे गया| उसे वापस लाने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु देवयानी नही मानी| जब शुक्राचार्य को सारा वृतांत मालुम हुआ तो क्रोधित होकर बोले हे स्त्री लोलुप तू मंद बुद्धि और झूठा है| जा ओर मनुष्यों को कुरूप करने वाला तेरे शरीर में बुढ़ापा आ जाये| तब ययाति जी बोले हे ब्राह्मण श्रेष्ठ मेरा मन आपकी पुत्री के साथ सहवास करने से अभी तृप्त नहीं हुआ है|इस शाप से आपकी पुत्री का भी अनिष्ट होगा|मेरी पुत्री का अनिष्ट होगा ऐसा सोचकर बुढ़ापा दूर करने का उपाय बताते हुए शुक्राचार्य जी बोले  जाओ यदि कोई प्रसन्नता से तेरे बुढ़ापे को लेकर अपनी जवानी दे दे तो उससे अपना बुढ़ापा बदल लो|

यह व्यवस्था पाकर राजा ययाति अपने राज महल वापस आए| बुढ़ापा बदलने के उद्देश्य से वे अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से बोले बेटा तुम अपनी तरुणावस्था मुझे दे दो तथा अपने नाना द्वारा शापित मेरा बुढ़ापा स्वीकार कर लो| तब यदु बोले पिताजी असमय आपकी वृद्धावस्था को मै लेना नहीं चाहता क्योकि बिना भोग भोगे मनुष्य की तृष्णा नहीं मिटती है|इसी तरह तुर्वसु,, दुह्यु और अनु ने भी अपनी जवानी देने से इन्कार कर दिया| तब राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से कहा हे पुत्र  तुम अपने बड़े भाइयो की तरह मुझे निराश मत करना| पुरु ने अपने पिता की इच्छा के अनुसार उनका बुढ़ापा लेकर अपनी जवनी दे दिया| पुत्र से तरुणावस्था पाकर राजा ययाति यथावत विषयों का सेवन करने लगे| इस प्रकार वे प्रजा का पालन करते हुए एक हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग भोगते रहे परन्तु भोगो से तृप्त न हो सके|

राजा ययाति का गृह त्याग

इस प्रकार स्त्री आसक्त रहकर विषयों का भोग करते हुए राजा ययाति ने देखा कि इन भोगो से मेरी आत्मा नष्ट हो गयी है। सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो गयी है| तब वे वैराग्ययुक्त अपनी प्रिय पत्नी देवयानी से कहने लगे हे प्रिय मेरी तरह आचरण करने वाले की मैं एक कथा कहता हूँ इसे ध्यान पूर्वक सुनना| पृथ्वी पर मेरे ही समान विषयी का यह सत्य इतिहास है| एक बकरा था| वह अकेला वन में अपने प्रिय पात्र को ढूंढता फिरता था| एक दिन उसने एक कुएं में गिरी हुई एक बकरी को देखा| बकरे ने उसे बाहर निकलने का उपाय सोच अपनी सीगों से मिट्टी खोद कर वहाँ तक पहुँचाने का मार्ग बनाया तथा उसी मार्ग से उसे बाहर निकाला| कुएं से बाहर निकल कर बकरी उसी बकरे से सनेह करने लगी तथा उसे अपना पति बना लिया| वह बकरा बड़ा हृष्ट-पुष्ट, जवान, व्यहारकुशल , वीर्यवान तथा मैथुन में निपुण था| जब दूसरी बकरियों ने देखा कि कुएं में गिरी हुई बकरी से उसका प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध चल रहा है तो उन्होंने भी उसे अपना पति बना लिया| वह उन बकरियों के साथ कामपाश में बंधकर अपनी सुधबुध खो बैठा| कुए से निकाली हुई बकरी ने जब अपने पति दूसरी बकरोयों के साथ रमण करते हुए देखा तो वह क्रोध से आग बबूला हो गयी| वह उस कामी बकरे को छोडकर बड़े दुःख से अपने पलने के पास चली गयी| वह कामी बकरा भी उसके पीछे-पीछे गया परन्तु मार्ग में उसे मना न सका| उस बकरी के मालिक को जब सारा वृतांत ज्ञात हुआ तो उसने क्रोध में आकर बकरे के लटकते हुए अंडकोष को काट दिया| परन्तु इससे बकरी का भी बुरा होगा यह सोचकर उसने अंडकोष पुनः जोड़ दिया| अंडकोष जुड़ जाने पर वह बकरा बहुत काल तक उस बकरी के साथ विषय भोग करता रहा परन्तु काम पिपासा से कभी तृप्त नहीं हुआ| हे देवयानी! यैसे ही मैं तुम्हारे प्रेमपाश में बंधकर अपनी आत्मा भूल गया हूँ| विषय-वासना से युक्त पुरुष को पृथ्वी के सभी यैश्वर्य, धन-धन्य मिलकर भी तृप्त नहीं कर सकते| क्योंकि विषय को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है| जैसे अग्नि में घी डालने पर वह बुझती नहीं है। बल्कि ज्यो-ज्यो घी डालते जाओ त्यों त्यों वह भड़कती जाती है| इसी प्रकार भोगों को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है कम नहीं होती| शरीर बूढा  हो जाने पर भी भोग विलास की इच्छा समाप्त नहीं होती है बल्कि नित्य नई इच्छाएं जागृत हो जाती हैं| जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे शीघ्र ही भोग-वासना की तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए| मैंने हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग किया तथापि दिन प्रतिदिन भोगों की चाहत बढ़ती जा रही है| इसलिए अब मैं इनका त्याग कर ब्रह्म में चित्त लगाकर निर्द्वंद विचरण करूँगा| इस प्रकार महाराज ययाति ने अपनी पत्नी देवयानी को समझाकर पुरु को उसकी जवानी लौटा दिया तथा उससे अपना बुढ़ापा वापस ले लिया|
तदोपरांत उन्होंने अपने पुत्र दुह्यु को दक्षिण-पूर्व की दिशा में तथा यदु को दक्षिण दिशा में व तुर्वसु को पश्चिम दिशा में और अनु को उत्तर दिशा में राजा बना दिया|पुरु को राज सिंहासन पर बिठाकर उसके सब बड़े भईयों को उसके अधीन कर स्वयँ वन को चले गए| वहां जाकर उन्होंने ऐसी आत्म आराधना की जिससे अल्प काल में ही परमात्मा से मिलकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए| देवयानी भी सब राज नियमों से विरक्त होकर भगवान का भजन करते हुए परमात्मा में लीन हो गयी|
महाराज ययाति के पांच पुत्र हुए जिसमे यदु और तुर्वसु महारानी देवयानी के गर्भ से तथा दुह्यु व अनु और पुरु शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न हुए।


 एक अन्य कथानक के अनुसार

                श्री राजराजेश्वर सहस्त्रबाहु महाराज का जन्म चन्द्रवंश की सर्वश्रेठ वंश महाराज हैहय की दसवी पीढ़ी मे कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी रविवासरे के दिन श्रवण नक्षत्र मे प्रात: काल मे हुआ था| जैसा की पहले वर्णित किया गया है, की इनका नाम इनके पिता ने अर्जुन रखा पर पिता के नाम को रोशन करने हेतु इनका नाम कार्तवीर्यअर्जुन पड़ा| स्मृति पुराण के महिस्श्य्माती महतां अध्याय १५ खंड ३ के अनुसार
 कर्तिकस्य्सिते पक्षे सप्त्भ्या भानुवासरे |
श्रवणक्षे निशानाथे निशीचे सुशुभक्षने ||
इअनके गुरु भगवान दतात्रेय के आशीर्वाद से इन्हें सहस्त्रबाहु अर्थात हजारों भुजाओं का बल प्राप्त होने के कारण सहस्त्रबाहु, सहस्त्रार्जुन, हैह्याधिपति, हहय्राज चक्रवर्तीराजराजेश्वर आदि नामो से भी पुराणों, ग्रंथो मे इनका नाम विख्यात है, जैसा कि महाभारत अध्याय ४९ खंड ३५, ३६ व् ३७ के अनुसार
एत्रिम्न्नेव काले तू कृतवीर्यात्म्जो बाली |
अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियों हैहयधिप: ||
दतात्रेय प्रसादेन राजा बाहुसग्स्र्वान |
चक्रवर्ती महातेजा विप्रनाम धर्म्भिके ||
ददौ स पृथ्वी सँवा सप्त्दीपम स्पर्वत्नाम |
स्व्बाहोसव्लेनोजौ जिला परम धर्मवित ||

कर्त्वीयार्जुनो ननं राजा बाहुसस्र्स्वान|
एन सागार्प्यान्ता धनुषा निजिता माहि: ||
महाभारत अध्ययय २ और २६
जिसका अर्थ है की कृतवीर्य अर्जुन ने अपने धनुष की शक्ति से सातो समुद्रों से घिरी इस पृथ्वी के विजय किया, वह कृतवीर्यकर्जुन के नाम से विख्यात हुए|

“राज्याभिषेकके भवतो दतात्रेयो महामुनि:
विश्वकर्म्प्रनित त विमान हादक ददो |
सम्ग्रसाधुनेयुक्त भुवाध्व्योमागानिगम
ततातोभिशेक्म कृतवान सप्त्वाधिसृज्ज्ले||
महाराज कृतवीर्य के राज्याभिषेक के सुबह अवसर पर महामुनि श्री दत्तात्रेय जी ने विश्वकर्मा द्वारा प्रिनीत स्वर्ण का सुंदर विमान महाराज को भेट किया जो कि सर्व्सधानो से यक्त आकाश, पाताल, पृथ्वी आदि मे विचरण के लिए संभव थी, श्री गुरु दत्तात्रेय ने महाराज कृतवीर्यअर्जुन का राज्याभिषेक सातो समुद्रों सप्त नदियों के जल से कियामहभारत, वायुपुराण, मतास्य्पुरान, विविध पौराणिक ग्रंथो आदि मे वर्णित है|
भरतार्जुन माधात भागीरथयुजिस्थर: |
सगरी न्र्हुश्चेय सप्तैने च्क्र्वतिस: ||

श्री राजराजेश्वर सहस्त्रबाहु महाराज को श्रेष्ठ धर्म का ज्ञान उसका रक्षक तथा आदर रखने के कारण उनकी ख्यति सप्त मंडलों प्रथ्वी, आकाश, पर्वत सभी दिशाओं मे फ़ैली, तथा अपने यासश्वी बहुबल और शश्त्र विद्याओ मे निपुण होने के कारण आधे से अधिक पृथ्वी पर जीत हाशिल के थी, जिसे बाद मे अपने इक्षा अनुसार दानवीरता के कारण दान मे दे दी थी, जैसा कि महाभारत अध्याय ४९ खंड ४४ के अनुसार --------
अर्जुन्स्तु महातेजा बाली नित्य श्मात्क: |
ब्रहान्याश्य शर्न्यश्च डाटा सुर्विरयम भारत||

आश्विन मॉस के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को शनिवार के मध्यान्ह में अभिजित नक्षत्र में ययुर चन्द्र वंश के राजा ययाति के प्रपौत्र, "हैहय" नारायण से उत्पन्न हुए। होनहार  कुमार हैहय जब कुछ बड़े हुए, तब उन्होंने अपने पालक पिता श्री तुवार्शु  से आज्ञा प्राप्त की एवं  भगवान् शंकर जी की आराधना में निमग्न हो गए - फलस्वरूप औघड़दानी भगवान् शंकर जी प्रसन्न होकर साक्षात् दर्शन दिए, और हैहय से वरदान मांगने को कहा। तब नम्रिभूत होकर हैहय ने भगवान् शंकर से 2 वरदान की निम्न रूपेण याचना की:
*प्रथम पूर्ण विश्व में एक क्षत्र राज्य 
**हमारी मृत्यु आपके वरद हस्तो में सुरक्षित हो।

           इस प्रकार भगवान् शंकर 2 वरदान, हैहय को एवमस्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गए। उस समय उनके हाथ में त्रिशूल विधमान था। भगवान् शंकर जी के त्रिशूल की महिमा और हैहय की मृत्यु गाथा सुप्रसिद्ध शिव पुराण पंचमी उमा संहिता अध्याय द्वितीय में निम्न प्रकार से वर्णित है:-

On the bright side Pratipada Moss Ashwin at mid-day Saturday Abhijit Nakshatra Yyur Yyati great-grandson of the king of Chandra dynasty, "Haihay" originated from Narayana. When something promising Kumar Haihay grew Was he received from his foster father, Mr.Tuwarshu and become engaged in the worship of Lord Shankar ji- Interview consequently Lord Shankar and appeared pleased, and to seek blessing from Haihay said. Then the Lord Shankar Namribhut Haihay 2 of the following fledged soliciting blessing: -

* The first full state of the world in a region
You're safe in our great hand.
           2 The Lord Shankar blessing, saying amen to Haihay have disappeared. At that time it was Vidhman trident in his hand. Shankar trident of God's glory and the famous story of the death of Hahy Panchami Siva Purana Uma Code Chapter II is described as follows: -


         महान शूरबीर तेजस्वी प्रतापशाली अधिपति हैहय ने भगवान् शंकर जी से वरदान प्राप्त कर विश्व के सभी छोटे-बड़े राज्यों / राजाओ को परास्त कर अत्यधिक प्रसिधि प्राप्त की। उस समय कौशल देश की राजधानी अयोध्या के अधिपति आहुक जो असित नाम से भी प्रख्यात थे, रायज का सञ्चालन कर रहे थे। अकस्मात् हैहय ने विजय प्राप्ति के लिए जब अयोध्या पर चढाई की, तब हैहय की अपराजित सेना को देखकर भय से विह्वल होकर आहुक अपनी सातों रानियों को साथ लेकर प्रच्छन्न रूप से भाग खड़े हुए, और छिपते छिपाते अवरव ऋषि के आश्रम में जा पहुचे। यह आश्रम एक घनघोर जंगल के मध्य में था। हैहय की पहुच से दूर राजा आहुक जब अपने को सुरक्षित समझ कर पुनः विषयों में आसक्त हो, कालयापन करने लगा। दैव योग से राजा आहुक की एक रानी इसी बीच गर्भवती हो गयी। एक होंनहार मेधावी बालक के आगमन का पूर्वाभास ज्ञात कर आश्रमवाशी अत्यंत आह्लादित हुए। परन्तु जहाँ धूप है, वहां छाया भी आती है। आनंद कभी अकेला नहीं आता जाता वह अपने साथ साथ जाते समय शोक भी छोड़ जाता है। तात्पर्य यह है कि जहा आश्रम्वाशी उत्सव में निमग्न थे, वही दूसरी तरफ दुखांत दृश्य की भूमिका तैयार हो रही थी। दुर्दैव से बालक के जन्म से पूर्व ही जनक आहुक परलोक को सिधार गए। यही नहीं बल्कि इर्ष्या और द्वेष की अग्नि में जलती हुयी अन्य 06 रानियों ने मिलकर षड़यंत्र पूर्वक गर्भवती रानी को हलाहल गरल (विष) दे दिया। गरल की तीव्रता , प्रभावोत्पादकता से ब्याकुल रानी अवरव ऋषि की शरण में पहुची।  बाहरी लक्षणों एवं दिव्य दृष्टी से ऋषि ने ज्ञात कर लिया की रानी को विष दिया गया है। अतः उपचार हेतु कमंडल से जल को अभिशिंचित कर रानी को पिला दिया। फलस्वरूप गर्भ सहित गरल गिर गया। यही घटना इस बालक के नाम कारन का मूल कारण बनी, अर्थात वह नवजात शिशु *सगरल* कहलाया, यही शब्द आगे कालांतर में संक्षिप्त होकर * सगर * नाम से बिख्यात हो गया।
Great warrior stunning blessed by Lord Shankar ji Haihay the Lord of the world, small - large states / kings defeated highly famous obtained. At that time, the country's capital of Ayodhya skills Ahuk chiefs who were known by the name Asit, were prevalent in circulation. The ashram was in the middle of a dense forest. Out of reach of Haihay Ahuk king secured his re enamored subjects, began to verification period. Meanwhile the queen of King Ahuk luckily got pregnant. Honnhar presaged the arrival of a gifted child, Ashram Vashi extremely excited to be determined by the ashram. But where is the sun, the shade comes. Do not ever be alone with pleasure when she leaves to mourn too. Implies that where Asrmwashi were immersed in festivities, on the other hand the role of the tragic scene was getting ready. Doom before the child's birth parent Ahuk have passed away to the other world. But envy and malice, was burning in the fire of the other 06 wives plot together naked pregnant girl poison (toxin) given. Intensity of poison, in the shelter of efficacy painful Queen Avrv sage. External symptoms and the sage of sixth sense toxin is known to be the queen. Therefore, to treat the queen with chant drink water from the ewer. Consequently fell poison, including pregnancy. This incident caused the boy's name was the root cause, ie newborn * Sagaral * called, briefly and in passing on the word * name * Sagara was famous.
बालक सगर के  आयुस्क  पर ऋषि ने उसे शास्त्र एवं शस्त्र विद्या में प्रवीण कर दिया। और बालक को संकेत किया की तुम्हारा राजपाट हैहय नरेश ने छीन लिया है। तरुण बीर  सगर का बीरत्व इस प्रसंग को सुनते ही जाग्रत हो गया। अतः तत्क्षण ही धनुष बाण  लेकर हैहय नरेश को युद्ध के लिए ललकारा दोनों तरफ से द्वन्द युद्ध हुआ परन्तु महा पराक्रमी एकाबीर हैहय के समक्ष ठहर न सका। अतः युद्ध के मैदान से सगर पलायन कर गए, और अपने गुरु अवरव ऋषि के शरण में आ गए। और अपनी पराजय का दुखित ब्रत्तांत निवेदित किया। ऋषि ने उन्हें उपाय बताया की श्री भगवान् शंकरजी की तपस्या से प्राप्त वरदान के द्वारा ही हैहय की मृत्यु संभव है।
सगर ने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर घोर तपस्या किया, जिससे प्रसन्न होकर श्री भगवान् शंकर ही ने सागर से वरदान मांगने को कहा तब सगर ने याचना की की बलात मेरे राज्य को हड़प लेने वाले प्रतिद्वनदी  हैहय को मृत्यु का वरदान प्रदान कीजिये। श्री अवघड दानी भोले शंकर जी तथास्तु कहने ही वाले थे, की अकस्मात् उन्हें स्मरण आया की हैहय की मृत्यु तो मेरे हाथो में सुरक्षित है। अर्थात मेरे हाथ में स्थित यह त्रिशूल ही हैहय की मृत्यु का कारन बन सकता है। इस कारण वह त्रिशूल सगर को दे दिया।

Child of him and the Sage ayusk sagar's arms lore chef. and your child have signs stripped of rajput King haha. listen to the context of Tarun sagar Bir bywater as be wakeful. so taking only bow to King ban instantaneously haha to dvand from both sides defied the war but not pause before the mighty General arabic haha. I therefore migrated from battlefield sagar Shelter of his mentor, the Sage and avrav. and its reversal by way dukhit bittorrent invoked God described Mr. Wiseman. Shankar g haha by the austerity of boon's death.
Sagar, guru did penance, whereby subject commanded the atrocious pleased Mr. God, Sankar said seeking the blessing of the sea then sagar has a horde of forcible soliciting to my state of pratidvandi who provide a boon to death haha it. Mr. avghad Dani were only say Amen naive Shankar g, akasmat recalled the death of them came in my hands is safe haha. that is located in my hands it's Trident only haha Common cause of death is the reason she gave to Trident sagar.

त्रिशूल पाकर सगर पुनः युद्ध क्षेत्र में गए और बीर  हैहय नरेश को युद्ध के लिए ललकारा। दोनों महारथियों में घनघोर युद्ध होने लगा मौका पाकर सगर ने भगवान् शंकर जी के वरदानी त्रिशूल को हैहय के वक्ष स्थल पर प्रहार कर संहार किया। इस प्रकार महा पराक्रमी सम्राट हैहय का जन्म और मृत्यु का रहस्य शिव पुराण में लिखा है। Trident in the war zone again and Bir Sagar, Haihay King provoked to war. Sagar banged by two giants began pouring war Vardani trident of Lord Shankar ji, Haihay massacred striking the breast. The Mighty Monarch Haihay Maha Shiva Purana written in the mystery of birth and death.
         इन्ही पुराण पुरुष श्री नारायण पुत्र श्री हैहय की पटरानी का नाम एकावली था। जिन्होंने अपनी पवित्र से धर्मनेत्र  नामक पुत्र रत्न को जन्म दिया। धर्मनेत्र का जन्म स्थान प्रतिस्थानपुर (झूंसी, प्रयाग) है। 
         सम्राट हैहय से होने वाली वंशावली निम्न  तालिका से स्पस्ट रूप से जाना एवं समझा जा सकता है-


These Puranas men named empress ekavali Narayan was the son of Mr. Haihay. Meaning your sacred womb who Dharmnetra pregnant gave birth to a son named Gem. Dharmnetra Pratisthanpur's birthplace (Junsi, Prayag) is.
          The table below records the emperor Haahay be obvious and can be understood as -


1- पुराणों के मतानुसार धर्म्नेत्र एक ही ब्यक्ति का नाम है, जबकि कतिपय इतिहास वेत्ता धर्म और नेत्र इन  दो व्यक्तियों को क्रम्श: पिता और पुत्र सिद्ध करते है।
2-कृतवीर्य के अनुज क्रतौजा, कृतवर्मा, और क्रताग्नी थे। 
1 - Who is the name of one of the Purana's Dharmnetra opinion, while certain history, religion and eye ideologist these two persons: the Father and the Son is proved.
2 - Kritwirya Kratuja's brother, Kritavarma, and were Kratagni.
गान 
रण  उन्मादता में, जब आते हैहय लाल,
                                                 शत्रु दल देख देख, भय से थर्राते है।
अस्त्र शस्त्र  समक्ष में न ख्हते है, प्राण भय ,
                                            शत्रुओ के वार रोक, चुटकी में उड़ाते है।।
मुंड कट जाने पर, रुंड भी न पीछे हटे ,
                                                नगन कृपाण  गह, आगे बढ़  जाते है।
अमर करते पूत, कहानी नवीन नित्य,
                                              मात्रभूमि मांग, पर लहू भर जाते है।।



भगवान् दत्तात्रेय



पूजा -  
               आपका इस्ट देव 'Kartviryarjun', जिसकी सब संसार ने पूजा की है है उसकी आकर्षक उत्साहित मूर्ति पूजा स्थान में स्थापित किया जाना चाहिए और हर सुबह उसे मंत्र के साथ याद रखें और तब आपका दिन शुरू हो यदि आप ऐसा संभव करते हो तो , फिर देखो जो तुम पहन रहे हैं हीरे और माणिक। दिन की शुरूवात अपने आप सभी उत्कृष्ट समाचारो से भरा रहेगा।  

 'ध्यान केंन्द्र' - हल्की धूप और घी तेल के लैंप और मंत्र-

सहस्र भुज मण्डली जीत्तमीचेरणाधिपम, 
हिमांशु  सदृशानानं धृति सहस्रा टोरनिकरम… 
सीताम्बरधरम सदा तुराग्राज मध्यस्थितम्,
स्मरामि भुवन दीपम हृदि तू कार्तवीर्यार्जुनम।
 ओम झम झम हम हम हां हेम हेम स्वाहा…

                       उपरोक्त मंत्र शुद्ध मन, दिल से प्रतिदिन सुबह सुबह ०१ माला जाप करने वाला काम, लोभ, क्रोध, मोह, अहंकार से मुक्ति पा जाता है.


कार्तवीर्य अर्जुन  स्तोत्रम  



यह एक शक्तिशाली स्तोत्र है. जो सामान चोरी हो जाने , गलत हांथो में चले जाने  या  सामग्री को खो दिया है, से उबरने में अथवा पुनः प्राप्त करने के लिए उत्तम  है। कार्तवीर्यअर्जुन, भगवान विष्णु के अवतार होने के कारण वे सदैव सुदर्शन चक्र युक्त हैहयवंश के एक महान चक्रवर्ती सम्राट थे.  नीचे कार्तवीर्यार्जुन स्तोत्रम  गीत का हिंदी अर्थ है...

ओम कार्तवीर्यार्जुनो नमो नमः
राजा बाहु  सहस्रवण
तस्य  स्मरणं  मात्रेण
गतम् नष्टम् च लभ्यते।।

ओम कार्तवीर्यार्जुन को नमस्कार है,

                             राजा, जिनके सहस्त्र हाथ है, मै उन्हें बारम्बार नमस्कार करता हूँ, मेरा प्रिय वस्तु जो खो गया है, उसे बारम्बार याद करता हूँ, काश! वह पुनः मुझे मिल गया होता?

कार्तवीर्यः, कला  द्वेषी , कृतः , वीर्यो  सुतो , बाली,
सहस्र  बाहु , शत्रुघ्नो , रक्तवसा  धनुर्धरा,
रक्त  गन्धो , रक्त  माल्यो , राजा, समर्थुर , अभीष्टदा ,
द्वसाइथानी नमामि  कर्ता  वीर्यस्य या पड़ेथ ,
सम्पद  स्थाठरा  जयंती  जना स्थाठरा वसमगाथा,
आनयथायसु दूर अस्ठं क्षमा  लाभा  युतम्  प्रियं ,
सहस्रा बहुम , महितम् , सासाराम सचापं,
रक्ताम्बरम  वि-विधा  रक्त  किरीट  भूशम ,
चोरधि  दुष्ट  भाया नासनम् , इष्ट  दाँतम ,
ध्यानं महाबाला विजरुम्बिता  कार्तवीर्यं,
यस्य  स्मरणं मात्रेण  सर्व दुख  क्षयो  भवेत् ,
यान नामानि  महावीरश्चार्जुना  कृता वीर्यवान,
हैहयाधी  पाते , स्तोत्रम  सहस्रावृति  करितम् ,
वंचितार्था  प्रधाम  नॄणाम्  स्वराज्यम्  सुकृतं  यदि,


इति  कार्तवीर्यार्जुन  द्वादसानामा स्तोत्रम  सम्पूर्णं।।।।।।। 
श्री कृषणर्पितमस्तु ।
                                   इस प्रकार कार्तवीर्यार्जुन के बारह नामों की प्रार्थना समाप्त होती है
                                   उपरोक्त सब कुछ कृष्ण को दिया जाता है...


                                                                  (लेखक - प्रदीप सिंह तमेर)
                                                                               इलाहाबाद 


   

10 - वंश - परिचय


वंश - परिचय 


दतात्रेय

दत्तात्रेय


दत्तात्रेय शीघ्र कृपा करने वाले देव की साक्षात मूर्ति कहे जाते हैं। अत्रि ऋषि की पत्नि माता अनुसूया पर प्रसन्न होकर तीनों देवों- ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने उन्हें वरदान दिया।ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ। इन्हीं के आविर्भाव की तिथि ' दत्तात्रेय जयंती' कहलाती है। परम भक्त वत्सल दत्तात्रेय, भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुँच जाते हैं। इसीलिए इन्हें 'स्मृतिगामी' तथा 'स्मृतिमात्रानुगन्ता' भी कहा गया है।ये विद्या के परम आचार्य हैं। भगवान दत्तजी के नाम पर 'दत्त संप्रदाय' दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध है।

अन्य तथ्य

एक बार वैदिक कर्मों का, धर्म का तथा वर्ण व्यवस्था का लोप हो गया था। उस समय दत्तात्रेय ने इन सबका पुनरूद्धार किया था।

 हैहयराज अर्जुन ने अपनी सेवाओं से उन्हें प्रसन्न करके चार वर प्राप्त किये थे
1.बलवान, सत्यवादी, मनस्वी, अदोषदर्शी तथा सहस्त्र भुजाओं वाला बनने का।
2.जरायुज तथा अंडज जीवों के साथ-साथ समस्त चराचर जगत का शासन करने के सामर्थ्य का।
3. देवता, ऋषियों, ब्राह्मणों आदि का यजन करने तथा शत्रुओं का संहार कर पाने का।
4.इहलोक, स्वर्गलोक और परलोक विख्यात अनुपम पुरुष के हाथों मारे जाने का।

कार्तवीर्य अर्जुन (कृतवीर्य का ज्येष्ठ पुत्र) के द्वारा दत्तात्रेय ने लाखों वर्षों तक लोक कल्याण करवाया। कार्तवीर्य अर्जुन, पुण्यात्मा, प्रजा का रक्षक तथा पालक था। जब वह समुद्र में चलता था तब उसके कपड़े भीगते नहीं थे। उत्तरोत्तर वीरता के प्रमाद से उसका पतन हुआ तथा उसका संहार परशुराम-रूपी अवतार ने किया। 
कृतवीर्य हैहयराज की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र अर्जुन का राज्याभिषेक होने का अवसर आया तो अर्जुन ने राज्यभार ग्रहण करने के प्रति उदासीनता व्यक्त की। उसने कहा कि प्रजा का हर व्यक्ति अपनी आय का बारहवां भाग इसलिए राजा को देता है कि राजा उसकी सुरक्षा करे। किंतु अनेक बार उसे अपनी सुरक्षा के लिए और उपायों का प्रयोग भी करना पड़ता हैं।अत: राजा का नरक में जाना अवश्यंभावी हो जाता है। ऐसे राज्य को ग्रहण करने से क्या लाभ? उनकी बात सुनकर गर्ग मुनि ने कहा हे राजन तुम्हें दत्तात्रेय का आश्रय लेना चाहिए। क्योंकि उनके रूप में विष्णु ने अवतार लिया है।


एक बार देवता गण दैत्यों से हारकर बृहस्पति की शरण में गये।बृहस्पति ने उन्हें गर्ग के पास भेजा।वे लक्ष्मी (अपनी पत्नी) सहित आश्रम में विराजमान थे। उन्होंने दानवों को वहां जाने के लिए कहा। देवताओं ने दानवों को युद्ध के लिए ललकारा फिर दत्तात्रेय के आश्रम में शरण ली। जब दैत्य आश्रम में पहुंचे तो लक्ष्मी का सौंदर्य देखकर आसक्त हो गये। युद्ध की बात भुलाकर वे लोग लक्ष्मी को पालकी में बैठाकर अपने मस्तक से उनका वहन करते हुए चल दिये। पर नारी का स्पर्श करने के कारण उनका तेज नष्ट हो गया। दत्तात्रेय की प्रेरणा से देवताओं ने युद्ध करके उन्हें हरा दिया। दत्तात्रेय की पत्नी लक्ष्मी पुन: उनके पास पहुंच गयी।अर्जुन ने उनके प्रभाव विषयक कथा सुनी तो दत्तात्रेय के आश्रम में गये। अपनी सेवा से प्रसन्न कर उन्होंने अनेक वर प्राप्त किये। मुख्य रूप से उन्होंने प्रजा का न्यायपूर्वक पालन तथा युद्धक्षेत्र में एक सहस्त्र हाथ मांगे। साथ ही यह वर भी प्राप्त किया कि कुमार्ग पर चलते ही उन्हें सदैव कोई उपदेशक मिलेगा। तदनंतर अर्जुन का राज्याभिषेक हुआ तथा उसने चिरकाल तक न्यायपूर्वक राज्य-कार्य संपन्न किया।

साभार टिप्पणी और संदर्भ
1. ↑महाभारत, सभापर्व, अध्याय 38
2. ↑मार्कण्डेय पुराण, 17

भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास पुरातन पुराणों महाभारत, देवी भगवत, भागवत, हरिवंश पुराण में लिखा हुआ है। पुराणों में मत-भिन्नता एवं धार्मिकता के कारण इतिहास की क्रमिक श्रृंखला विकृत हो गई है तथापि यह सुनिश्चित है, कि चन्द्रवंश में *ययाति* नामक एक चक्रवर्ती सम्राट थे। उनकी महारानी *देवयानी से 2 पुत्र *यदु और तुर्वषु * हुए तथा दूसरी महारानी *शर्मिस्ठा* से 3 पुत्र *द्रह्यु, अनु, और पुरु* हुए। राजा ययाति ने सप्त द्वीपों सहित पृथ्वी को जीतकर उसे ५ भागो में बांटकर पांचो पुत्रो को दे दिया, दक्षिण-पूर्व दिशा राज्य बुद्धिमान तुवर्सु को दिया, पश्चिम दिशा का राज्य द्रुह्य को, उत्तर दिशा का राज्य अनु को एवं पूर्वोत्तर दिशा का राज्य अपने बड़े बेटे यदु को दिया और मध्य भारत (कुरु पंचाल)का राज्य पुरु को प्रदान किया। इन्ही सभी के द्वारा आज भी यह पृथ्वी वन-पर्वतों तथा नगरो सहित प्रदेशो के रूप में विभाजित होकर पालन की जाती है। महाराज ययाति को जब बृद्धावस्था आई तो उन्होंने अपने सभी पुत्रो से जवानी देकर बुढ़ापा लेने के लिए महाराज ययाति ने कहा। परन्तु पुरु को छोड़कर सभी शेष ४ पुत्रो द्वारा मना कर देने के कारण और पुरु द्वारा बुढ़ापा स्वीकार कर लेने से कुपित हो, श्राप दिया। महाराजा यदु एक चंद्रवंशी राजा थे। सोमवँश सिरोमणी सम्राट ययाति के पुत्र थे 

यदु के चार पुत्र थे-
1.सहस्त्रजित
2.क्रोष्टा
3.नल और
4.रिपुं

1.सहस्त्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे-
1.महाहय
2.वेणुहय और
3.हैहय ईनही से एक अलग वँश हैहयवँश चला।हैहय का धर्म,धर्म का नेत्र,नेत्र का कुन्ति,कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।

हैहयपति महाराज भद्रसेन के दो पुत्र थे-
1.दुर्मद और
2.धनक।

धनक के चार पुत्र हुए-
1.कृतवीर्य,
2.कृताग्नि,
3.कृतवर्मा व
4.कृतौजा।
कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। जिन्हे हैहयराज क्रतवीर्य अर्जुन के नाम से जाना जाता हैँ।वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट था।उसने भगवान के अंशावतार श्री दत्तात्रेयजी से योगविद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट यज्ञ,दान,तपस्या,योग, शास्त्रज्ञान,पराक्रम और विजय आदि गुणों में कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा।सहस्त्रबाहु अर्जुन पचासों हज़ार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा।उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है।उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था।उसके हज़ारों पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम की क्रोधाग्नि में भस्म हो गये।

अर्जुन के बचे हुए पुत्रों के नाम थे-
1.जयध्वज
2.शूरसेन
3.वृषभ
4.मधु और
5.ऊर्जित।

अर्जुन के पुत्र जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे 'तालजंघ' नामक क्षत्रिय कहलाये।महर्षि और्व की शक्ति से सुर्यवँशी राजा सगर ने उनका संहार कर डाला।उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ।
मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यदुनन्दन  पुत्र क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रूशेकु,रूशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु वह परम योगी महान भोगैश्वर्य सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।परम यशस्वी शशबिन्दु के दस हज़ार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक एक के लाख लाख सन्तान हुई थीं।इस प्रकार उसके सौ करोड़ एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छ: पुत्र प्रधान थे।पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म।धर्म का पुत्र उशना हुआ।उसने सौ अश्वमेध यज्ञकिये थे।उशना का पुत्र हुआ रूचक।रूचक के पाँच पुत्र हुए उनके नाम थे-1.पुरूजित,2.रूक्म,
3.रूक्मेषु,4.पृथु और
5.ज्यामघ।

ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान हुई। परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्य नाम की कन्या हर लाया।जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली कपटी मेरी बैठने की जगह पर आज किसे बैठा कर लिये आ रहे हो ज्यामघ ने कहायह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।शैब्या ने मुस्कुराकर अपने पति से कहा।मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है।ज्यामघ ने कहा रानी तुम को जो पुत्र होगा उसकी यह पत्नी बनेगी। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया।फिर क्या था समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भराज।उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।मधु राजा के सौ पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र एक यादवराज था। इसी के कुल में श्री कृष्ण पैदा हुए थे और इसी कारण वार्ष्णेय कहलाए। इनका वंश वृष्णि वंशीय यादव कहलाता था। ये लोग द्वारिका में निवास करते थे। प्रभास क्षेत्र में यादवों के गृह कलह में यह वंश भी समाप्त हो गया।


Dynasty - Introduction
India's ancient history, ancient mythology, the Mahabharata, Devi Bhagwat, Bhagwat, Harivansh Purana is written. Not in mythology - Varieties and righteousness has been corrupted due to cascading series of history, however, ensure that the * Yayati * Chandra Chakravarty, a king. His Highness * passionately * Yadu and Tuvarsu * 2 sons and the sons of the queen * Sharmistha * 3 * Drahyu, Anu, and Puru by *. King Yayati the seven islands divided into five parts, including earth Putro win gave him 5, south-east direction wise Tuwarsu given state, the state Drauhy the west, north and northeast of the state towards the state of the application in its large The son Yadu and Central India (Kuru Panchal) to provide state Puru. Even today, the earth by all these forest - mountains and regions including colonies are divided as follow through. Briddhavstha Yayati chef when he came by his old age to youth from all Putro Yayati Maharaj said. But except Puru remaining 4 Putro cause by refusing to accept old age by Puru angry, cursed.

note 

1 - Puru dynasty king Mahabali Jnmejay law, Prcinwan ... by Sudnwa etc.

2 - Shstrd in the Yadu dynasty, payod, Krosta, Neil and Anjik which later produced several Vansho which the Yadu dynasty, Hahy the family etc.

3 - Krosta further Yudistir descent, such as the mighty Bhima and Arjuna were

4 - The Curse of King Yyati Yyati by not taking the Briddhavstha Tuwarsu Purv deletion of offspring (Puru) has descendants.

5 - ANU descendants of religion, grease, Duduh, Prcheta, Adit sucheta the deletion of the family chef Briddhavstha Yyati not take the deletion of Yyati family's curse Tuwarsu Purv (Puru) has descendants.
 
१- पुरु वंश में महाबली राजा जन्मेजय जी, प्रचिन्वान, ...सुधन्वा आदि हुए
२- यदु वंश में सहस्त्रद, पयोद, क्रोस्टा, नील और आन्जिक जिसमे आगे चलकर कई वंशो का निर्माण हुआ जिसमे यदु वंश, हैहय वंश आदि हुए
३- क्रोस्टा वंश में आगे चलकर युधिस्ठिर, भीम और अर्जुन जैसे महाबली हुए
४ - महाराज ययाति के बृद्धावस्था न लेने पर ययाति के श्राप से तुवर्सु वंश का विलोपन पौरव (पुरु) वंश में हो गया।
५- अनु के वंश में धर्म, घृत, दुदुह, प्रचेता, सुचेता आदित हुए इस वंश का भी विलोपन  महाराज ययाति के बृद्धावस्था न लेने पर ययाति के श्राप से तुवर्सु वंश का विलोपन पौरव (पुरु) वंश में हो गया।

      हरिवंश पुराण में वैशम्पायन जी राजा भारत अर्थात जन्मेजय जी को पूर्वजो की वंश कथा सुनाते हुए कहते है, "कि अब मै ययाति के उत्तम तेज वाले ज्येष्ठ पुत्र यदु के वंश का विस्तार पूर्वक वर्णन करता हूँ। वैशम्पायन जी बोले, " हे राजन, यदु के देव पुत्रो की तरह पांच पुत्र सहस्त्रद, पयोद, क्रोस्टा, नील और अंजिक नाम के हुए। सहस्त्रद के परम धार्मिक ३ पुत्र हैहय, हय तथा वेनुहय नाम के हुए थे। हैहय के पुत्र धर्म नेत्र हुए उनके कार्त्त्वीर्यर्जुन और कार्त्त के साहन्ज आत्मज है, जिन्होंने अपने नाम से साहन्जनी नगरी बसाई, साहन्ज के पुत्र राजा महिष्मान हुए, जिन्होंने महिस्मती नाम की पुरी बसाई, महिस्मान के पुत्र प्रतापी भद्रश्रेन्य है, जो वाराणसी के अधिपति थे, भद्रश्रेन्य के विख्यात पुत्र दुर्दम थे। दुर्दम के पुत्र महाबली कनक हुए और कनक के लोक विख्यात ४ पुत्र कृतवीर्य, कृतौज, कृतवर्मा तथा चौथा क्रिताग्नी हुआ। कृतवीर्य के अर्जुन हुए जो सहस्त्रबाहू अर्थात सहस्त्रार्जुन नाम से विख्यात है, जो सूर्य के सामान चमकते हुए रथ पर चढ़कर सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत कर सप्तद्वीपेश्वर बन गया था। उसने अत्रि पुत्र दत्तात्रेय की आराधना दस हजार वर्षो तक कर परम कठिन तपस्या की और वरदान प्राप्त किये। सहस्त्रार्जुन का जीवन परिचय अगले पेज पर दिया गया है।

     यदु से यदुवंश प्रचलित हुआ, जिसमे आगे चलकर भगवन श्री कृष्णा ने जन्म लिया। तुर्वाष के वंश में आगे चलकर *यवन* हुए। द्रह्यु के वंशज *राजा भोज* हुए तथा अनु के वंशजो ने म्लेच्छ बृत्ति अपना ली। पुरु( पौरव ) के वंशज में आगे चलकर *कौरव /पांडव* जैसे इतिहास प्रसिद्द पुरुष हुए। यदु के समकालीन ही भगवान् विष्णु एवं माँ लक्ष्मी की क्रीणाओ के फलस्वरूप एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। भगवान् विष्णु ने इस बालक को भगवान् शंकर जी को सौप दिया। भगवान् शंकर जी ने इस बालक की उन्नतिशील भविष्य रेखाओ को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए, और उसकी भुजा पर अपने त्रिभुज से * एकाबीर हैहय * लिख दिया। इसी से बालक का नाम ****हैहय**** हुआ, जो आज भी सु-प्रचलित है। भगवान् शंकर ने इस होनहार बालक *हैहय* को ययाति के पुत्र तुर्वशु  को लालन-पालन के लिए दे दिया। यह कथा विस्तार पूर्वक देवी भगवत में लिखी हुयी है। 

Harivansh Purana lineage of ancestors live Jnmejay vaishampayan jee . King proclaim that India is saying, "I am now Yyati descendant of Yadu, the eldest son of the great fast'll describe in detail. Vaishampayan-law said," Hey Rajan, Yadu Shstrd five sons of sons of God, payod, Krosta, Neil and Anjik by name. The ultimate religious Shstrd Haihay 3 sons, were Haihay and Venuhy name. कार्त्त्वीर्यर्जुन his son's eye and Kartt Haihay of religion is Sahnj son, who inhabited the city its name Sahnjni, Mahishman Sahnj the king's son, who inhabited Mahismti name in full, majestic Mahisman Bdrasreny's son who was Lord of Varanasi, Bdrasreny's famous sons were malignant. Kanak Kanak folk of mighty son of malignant and 4 sons Kritwiry noted, Krituj, Kritavarma and the fourth was Kritagni. He worshiped Dattatreya atri son ten thousand years of penance and blessed be the most difficult. Shstrarjun's biography has been on the next page.


     
Yduvansh from Yadu prevailed, which later gave birth to Lord Sri Krishna. * Later * The descendants of Turwas destruction. * The descendants of the king and Anu Drahyu * Mlechc Britti adopted by the Vanshjo. Puru (Purv) * descended further into the Kaurava / Pandav * such famous men in history. Lord Vishnu and Goddess Mother of the Yadu contemporary Krinao a stunning result of the child was born. Lord Vishnu Shankar handed over to the boy. Lord Shankar prosperous future of the child is very pleased to see the lines, and on his side of the triangle * writing * Akabir Haihay. Haihay **** **** is the name of the child, and still do well - is prevalent. He had God's son Turwshu this promising lad * Haihay * Yyati to the upbringing given to. This is the story in detail, was written in Devi Bhagavat.
श्री मदभागवत के अनुसार 
नोट: (1) श्री देवी भागवत में हैहय का जन्म श्री भगवन विष्णु और लक्ष्मी माता से हुआ एवं राजा तुर्वशु पालक पिता  है।
नोट: (2) हरिवंश पुराण में सहिस्त्रजित और सत्जित, एक ही राजा के 2 नाम बताये गए है।
क्षत्रियता 
हैहय वंशी जगे तो, लाते है भयंकरता,
                                                    शिव साज तांडव सा, युद्ध में सजाते है।
शत्रु तन खाल खींचा, मांस को उलीच देत ,
                                              गीध, चील, कौए तृप्त , 'प्रचंड' हो जाते है।।
रुंड , मुंड, काट-काट , रक्त मज्जा मेदा युक्त,
                                                  अरि सब रुंध-रुंध,  गार सी मचाते  है।। 
बढ़ाते शक्ति उर्बर, भावी संतान हेतु,
                                                 मातु ऋण उऋण कर, मुक्त हो जाते है।।
If Hahy awake descent, brings ferocity;
Shiv bit macabre decor, decorate in war.
Enemy pulled tan hides, meat magical Ulich
Gid, eagles, crows satisfied, 'Prachanda' has become ..
Rund, butt, cut - cut, bone marrow serum containing
All Ari Rund - Rund, Gar is little fuss ..
Increasing power fertile, for future progeny,
Matu (मदर) to repay debt, freed ..


हरिवंश पुराण में स्पस्ट रूप से लिखा हुआ है कि, जब धरती से वेद, वेद प्रक्रिया, और वेद कथित यज्ञो के नष्ट होने पर और वर्णव्यवस्था के संकुचित हो जाने पर तथा धर्म के शिथिल हो जाने पर तथा प्रजाओ के दु:खी हो जाने तथा धर्मात्माओ के व्याकुल हो जाने पर भगवान् विष्णु ने दत्तात्रेय का अवतार धारण किया और पुनः यज्ञ, क्रियाओ सही वेंदो की स्थापना की और उन महात्मा ने पुनः वर्ण व्यवस्था को प्रचलित किया। उन बुद्द्धिमान दत्तात्रेय जी ने हैहय वंशीय राजा कार्तवीर्यार्जुन को अद्भुत वरदान प्रदान किया था, की जो तुम्हारी २ भुजाये है ये युद्धकाल में हजार हो जाया करेगी, इसमें संसय नहीं है और हे वसुधाधिप, तुम सम्पूर्ण पृथ्वी का पालन करोगे तथा शत्रुओ से दुर्धर्ष होओगे साथ ही धर्मज्ञ भी होओगे। ऐसा वरदान भगवान् दत्तात्रेय जी ने हैहय को प्रदान किया था।  

Harivansh purana written by spast, when the Vedas, the Vedas from the soil, and the perceived failures of ved yaṅño and varnavyavastha when you are narrowed and religion when you are relaxed and prajao when you are sad and dharmatmao of the distraught, God Vishnu incarnation of dattatreya were holding up. God Dattatreya were again by immolation, kriyao, Vedas and the right re the Mahatma Letters to budddhiman by those prevailing. septal kartaviryarjun amazing haha Dattatreya were blessing King provided, which you have to get these 2 hands  in yuddhakal thousand, there is not vasudhadhip, and hey you entire sansay Earth will abide and durdharsh from shatruo/dharmagya will also do well as will undefeated blessing God Dattatreya endorsed by haihay. Did provide.

The Tribes and Castes of the Central Provinces of

The head of the Haihaya tribe of Kshatriyas

mother to life, with forgetfulness of his having slain her and purification from all defilement; secondly, the return of his brothers to sanity and understanding; and for himself that he should live long and be invincible in battle; and all these boons his father bestowed. Here the hermit Jamadagni might represent the Brahman priesthood, and his wife Renuka might be India, unfaithful to the Brahmans and turning towards the Buddhist heresy. The four elder sons would typify the princes of India refusing to respond to the exhortations of the Brahmans for the suppression of Buddhism, and hence themselves made blind to the true faith and their understandings darkened with Buddhist falsehood. But Parasurama, the youngest, killed his mother, that is, the Huns devastated India and slaughtered the Buddhists; in reward for this he was made invincible as the Huns were, and his mother, India, and his brothers, the indigenous princes, regained life and understanding, that is, returned to the true Brahman faith. Afterwards, the legend proceeds, the king Karrtavirya, the head of the Haihaya tribe of Kshatriyas, stole the calf of the sacred cow Kamdhenu from Jamadagni's hermitage and cut down the trees surrounding it. When Parasurama returned, his father told him what had happened, and he followed Karrtavirya and killed him in battle. But in revenge for this the sons of the king, when Parasurama was away, returned to the hermitage and slew the pious and unresisting sage Jamadagni, who called fruitlessly for succour on his valiant son. When Parasurama returned and found his father dead he vowed to extirpate the whole Kshatriya race. 'Thrice times seven did he clear the earth of the Kshatriya caste,' says the Mahabharata. If the first part of the story refers to the Hun conquest of northern India and the overthrow of the Gupta dynasty, the second may similarly portray their invasion of Rajputana. The theft of the cow and desecration of Jamadagni's hermitage by the Haihaya Rajputs would represent the apostasy of the Rajput princes to Buddhist monotheism, the consequent abandonment of the veneration of the cow and the spoliation of the Brahman shrines; while the Hun invasions of Rajputana and the accompanying slaughter of Rajputs would be Parasurama's terrible revenge.


3. The Panwar dynasty of Dhar and Ujjain
The Kings of Malwa or Ujjain who reigned at Dhar and flourished from the ninth to the twelfth centuries were of the Panwar clan. The seventh and ninth kings of this dynasty rendered it famous. [378] "Raja Munja, the seventh king (974-995), renowned for his learning and eloquence, was not only a patron of poets, but was himself a poet of no small reputation, the anthologies including various works from his pen. He penetrated in a career of conquest as far as the Godavari, but was finally defeated and executed there by the Chalukya king. His nephew, the famous Bhoja, ascended the throne of Dhara about A.D. 1018 and reigned gloriously for more than forty years. Like his uncle he cultivated with equal assiduity the arts of peace and war. Though his fights with neighbouring powers, including one of the Muhammadan armies of Mahmud of Ghazni, are now forgotten, his fame as an enlightened patron of learning and a skilled author remains undimmed, and his name has become proverbial as that of the model king according to the Hindu standard. Works on astronomy, architecture, the art of poetry and other subjects are attributed to him. About A.D. 1060 Bhoja was attacked and defeated by the confederate kings of Gujarat and Chedi, and the Panwar kingdom was reduced to a petty local dynasty until the thirteenth century. It was finally superseded by the chiefs of the Tomara and Chauhan clans, who in their turn succumbed to the Muhammadans in 1401." The city of Ujjain was at this time a centre of Indian intellectual life. Some celebrated astronomers made it their home, and it was adopted as the basis of the Hindu meridional system like Greenwich in England. The capital of the state was changed from Ujjain to Dhar or Dharanagra by the Raja Bhoja already mentioned; [379] and the name of Dhar is better remembered in connection with the Panwars than Ujjain.

On the battle of Haihaya and Kâlaketu
1. Vyâsa said :-- O King! That powerful son of Laksmî, Haihaya, became very glad to hear these words of Yas’ovatî and said :--
2-14. O One of beautiful thighs! Hear in reply to your query :-- I am Haihaya, the son of Laksmî, and I am known in this world by the name of Ekavîra. Now you have made my mind dependent. What am I to do now? where to go? Thus distressed with bereavement from your dear companion, my mind is struck with Cupid’s arrows and is confounded with her extraordinary beauty that you just now described. Next you described her qualifications and my mind is ravished. Again when you described before me what she uttered in the presence of the Râksasa, I am struck with great wonder. Your dear companion Ekâvalî said before the vicious Dânava Kâlaketu, “I have already selected the King Haihaya. I will not select any other than him, this is my firm resolve.” These words have converted me into her slave. O sweet-haired One! Say now what service can I do to you both? I am not acquainted with that wicked demon’s palace; never I went to his city. O Fair-eyed One! Say how I can go there; for you are the only one that can lead me there. Therefore take me quickly to that place where your beautiful clear companion is staying. Your dear companion, the daughter of the King is very much afflicted with sorrow; soon I will free her, by destroying that cruel Râksasa. There is no doubt in this. O Auspicious One! I will rescue your dear companion and bring her to the city of yours and hand her over to the hands of her father. Then that King, the enemy destroyer, will perform the marriage ceremony of his daugther. I think this is the desire of your heart. O Sweet-speaking One! Know that that is also my desire. O Beautiful One! Now that desire will be fulfilled by your efforts. Show me quickly that place and see my prowess. O One with a face beautiful like the Moon! It seems that you will be able to do my work. Soon do such as I can kill that wicked demon, who steals others’ wives. Now show me the way to the impassable city of that Râksasa.
15-26. Vyâsa said :--O King! Hearing the sweet words of the prince, Yas’ovatî became very glad and gently began to speak out how he could go to the demon’s city. O King! Take the success-giving Mantra of Bhagavatî and I would then be able to show you today the city guarded by the Râksasas. O King! Better arrange to take your vast
army with you; for you will have to fight no sooner you go there. Kâlaketu is personally a great warrior surrounded by Râksasas of great power and strength. Therefore be initiated in the Mantram of S’rî Bhagavatî and accompany me. So you will surely be successful. I will show you the way to the city of that Demon. Slay that vicious and vilest of the Râksasas and rescue my dear companion. Hearing thus, Haihaya was duly initiated into the great Mantram of Yoges’varî, named Trilokitilaka Mantra (Hrîm Gaurî Rudradayite Yoge S’varî Hûm Phat Svâhâ is the Yoges’varî Mantra), by Maharsi Dattâtreya, accidentally come there (as if ordained by Fate), the chief of Jñânins (the Gnostics), that is conducive to the welfare of the beings. Thus by the influence of the Mantram the King got the power of knowing all things and going everywhere with unobstructed speed. Then the King Haihaya quickly went with Yas’ovatî to the impassable city of the Râksasas, accompanied by a vast army. The city was surrounded by snakes and guarded by the terrible Râksasas like the city of Pâtâla. The messengers of the Râksasa, seeing the King coming, were struck with terror and crying aloud quickly went to Kâlaketu. Kâlaketu, struck with Cupid’s arrows, was sitting beside Ekâvalî and was speaking many modest words when the messenger went there suddenly and said :-- “O King! The attendant of this lady Yas’ovatî is coming here with a prince and an army.
27-29. O King! We cannot tell exactly whether the prince is the son of Indra, named Jayanta or Kârtikeya. After all, puffed up with the strength of his army, he is coming here. O King! The battle is imminent; now make your arrangements fully and carefully; fight with the son of a Deva or abandon this lotus-eyed Lady. O King! At a distance of three Yojanas from this place, be is staying with his army. Now equip yourself and quickly declare the war by blowing the war trumpets.”
30-36. Vyâsa said :-- O King! Hearing the messenger’s words, Kâlaketu, the King of the Demons, became overwhelmed with anger and at once sent many powerful Râksasas, holding all sorts of weapons and spoke out to them :-- “O Râksasas! With weapons in your hands, go before them quickly.” Ordering them thus, Kâlaketu asked in sweet words Ekâvalî who was in front and very distressed. O Thin-bellied One! Who is coming here? Is he your father or any other man coming with his army to release you. Speak this to me truly. If your father comes here to take you back, being very much distressed with your bereavement, I will never fight with him, if I come to know this truly; rather I will bring him to my house and worship him with the excel-
lent horses, gems and jewels and clothings. Really I will show my full hospitality duly to him when he comes here. And if any other person comes, then I will take his life by the sharpened arrows; there is no doubt in this. Know this as certain whoever comes here for your rescue is brought by the hand of Death to me. Therefore, O Large-eyed One! Say who is this fool that is coming, not knowing me as the powerful and unconquerable Kâla (Death).
37-38. Ekâvalî said :-- “O Highly Fortunate One! I do not know who is this body coming to this side with a violent speed. O King! How can I know that when I am in this state of confinement in your house. This man is not my father nor my brother. Some other powerful man is coming here. I do not know exactly what for he is coming.”
39-40. The Demon said :-- My messengers say that your comrade Yas’ovatî has taken with her that warrior and is coming to this side with great energy. Where has your clever companion gone now? O Lotus-eyed! There is no enemy in the three worlds strong enough to fight against me.
41-66. Vyâsa said :-- O King! Just then other messengers hurriedly came there terrified and spoke to Kâlaketu who had been staying in the house, thus :-- “O King! The army has come quite close to the city and how are you staying in the house, calm and quiet? Better march out of the city with your vast army as early as possible.” The powerful Kâlaketu, then, hearing their words, mounted on the chariot and quickly went out of his city. The King Haihaya, on the other hand, suffering from the bereavements of his dear lady, suddenly came there mounted on horseback. The terrible fight ensued then and there between the two and each one struck the other with sharpened weapons and the quarters all around blazed with their glitterings and clashings. When the terrible fight was going on, Haihaya, the son of Laksmî, struck Kâlaketu, the King of the Daityas with a very powerful club (Gadâ). Thus struck by the Gadâ, the Lord of the Daityas fell on the ground like a mountain, struck by lightning, and died. All the Râksasas fled away on all sides, struck with terror. Yas’ovatî went then very hurriedly with a gladdened heart to Ekâvalî and began to speak to her in terms of surprise and in sweet words :-- O Dear! O Dear! Come, Come; the great warrior, the prince Ekavîra has killed the Lord of the Daityas in a dreadful battle. That King is now waiting, tired in the midst of his soldiers. He has already heard from me about your beauty and qualities; and now he is expecting to see you. O One Looking askance! Now satisfy your eyes and mind by seeing that King who is like the Cupid. When
I described to him before on the banks of the Ganges your beauty and qualifications, he got enamoured of you and now he is suffering from bereavements and wants to see you. Thus, hearing, Ekâvalî determined to go to him and as she was yet unmarried, she became abashed and afraid. She thought how could she see the prince as she was unmarried. It might be that he being passionate would catch her by her arms. Thus, troubled with thought, that daughter of the King, with a sad look, and wearing poor clothes, Ekâvalî went with Yas’ovatî on a palanquin, carried on men’s shoulders. Seeing that large-eyed daughter of the King coming there, the prince said :-- “O Beautiful One! My two eyes are very thirsty to see you. Satisfy my eyes and mind by showing yourself to me.” Seeing the prince passionate and the King’s daughter very much abashed, Yas’ovatî, who knew the rules of modesty, thus spoke to the prince :-- “ O Prince! The father of my dear companion expressed a desire to betroth her to your hands. She is also obedient to you. Therefore your meeting will certainly take place. O King! Wait; take her to her father; and he will perform duly the marriage ceremony and betroth her to your hands. Know this to be quite certain.” The King took her words to be quite just and true and taking those two ladies went with his army to the house of the father of Ekâvalî. Ekâvalî’s father became very glad and cheerful to learn that his daughter was coming and, accompanied by his ministers, went hurriedly to her. After a long time the King saw his daughter in poor clothings and became highly pleased. Yas’ovatî then described in detail all what happened before the King. The King then with his minister brought with great love, courtesy and gentleness Ekavîra to his house and on an auspicious day performed the marriage ceremony of him with Ekâvalî, in accordance with due ceremonies and rites. Then the King gave away many clothings, ornaments, jewels, and articles for fitting a house and many other things and worshipped duly and sent his daughter together with Yas’ovatî away with the King Haihaya. Thus the marriage ceremony was performed and the son of Laksmî gladly returned to his house and began to enjoy many pleasures with his wife. Then, in course of time, in the womb of Ekâvalî the King Haihaya got a son named Kritavîrya. The son of this Kritavîrya is known as Kârtavîrya. O King! Thus I have narrated to you the origin of the Haihaya dynasty.
Here ends the Twenty-third Chapter in the Sixth Book on the battle of Haihaya and Kâlaketu in the Mahâ Purânam S’rî Mad Devî Bhâgavatam by Maharsi Veda Vyâsa.

महाराज ययाति का विस्तृत चरित्र वर्णन अगले पेज पर दिया गया है……………. 


हैहयवंशियो का अभिशाप

हैहयवंशियो का अभिशाप
जैसा की पुराणों और वेदों के अध्यन मे यह पाया गया है, कि हैहयवंश के कुल देव श्री राजराजेश्वर सहस्त्रबाहु अर्जुन अति अभिमान और अपनी छोटी रानी की आकंक्षाओ मे वशीभूत होकर ब्राहामन ऋषि जन्मदिग्नी के पास जो उनको ज्ञान और तप से प्राप्त कामधेनु गाय जो सर्व इक्क्षापूर्ति सम्पन्न थी, को उनके बिना आज्ञा और अनुमति के अभिमान और बल पूर्वक नाही केवल चुरा लाये बल्कि ब्राह्मण ऋषि को घायल और उनके कुटी को तहस नहस कर दिया, जिससे परहमन ऋषि ने उन्हें उनके पुरे वंश का नाश होने का अभिशाप दे दिया था, जिसकी प्रवाह श्री राज राजेस्वर सहस्त्रबाहु ने नहीं की और जब परशुराम जो की उस वक्त कुटिया मे नहीं थे, और शास्त्र शिक्षा और भगवान शिव की उपासना कर उनसे फरसा वरदान मे प्राप्त था, लेकर जब कुटी पहुचे, तो पिता को घायल देख अत्यंत क्रुद्ध हुए और सारी बात जानकार उन्हने पिता को वचन देते हुए की वह हैहय क्षत्रियों का नाश कर इस पाप का बदला लेने श्री सहस्त्रबाहु से युद्ध करने और कुल का नाश करने चल पड़े| इधर राज राजेस्वर कामधेनु को पाकर हर्ष पूर्वक अपनी छोटी रानी को उपहार मे देकर रस लीला मे लीन हो गए थे| जब उन्हें पता लगा की परसुराम उनसे युद्ध करने और अपने पिता का बदला लेने के लिए उनपर आक्रमण करने आ रहे है, तब चक्रवर्ती राजा की उपाधी प्राप्त श्री सहस्त्राबहु ने बलपूर्वक परशुराम से युद्ध किये पर उन्हें उस शिव के फरसा के वरदान के बारे मे पता नहीं था, जिसका प्रयोग परशुराम ने कर युद्ध मे श्री राजराजेश्वर सहस्त्रबाहु को पराजित कर उनको मार डाला, इतना ही नहीं युद्ध मे हार कर समस्त हैहय क्षत्रिय को २१ बार प्रथ्वी पर खोज खोज कर  मार डाला था, इसी क्रम मे उन्होंने सात कूओं को उनके खून से भर दिया था, एसा शास्त्रों और इतिहास मे भी पढ़ने को मिलता है|
कालांतर मे परशुराम का इतना भय हैहयवंशियो को कर दिया, कि  हैहयवंशी क्षत्रियों को अपना अस्तित्व बचाने और वंश को चलाने के लिए अपना स्वरुप बदलना पड़ा, जिसमे उन्हिने अपना नाम कार्य और रूप भी बदल कर  विभिन्न स्थानो पर में छिप छिप कर रहने लगे थे| यहाँ तक अपनी असली क्षत्रिय्ता कि पहचान को भी छिपा दिया, ताकि परशुराम को इसका पता ना चले| जो क्षत्रिय स्त्रिया गर्भवती थी, वो अपने दुधमुहे बच्चो को लेकर अन्य समुदाओ जहाँ, उनको कोई पहचान ना सके, मे जाकर मिल गयी, बाद मे उनके पुत्रो ने अपनी जीविका को चलाने के लिए उस समुदाय द्वारा की जा रही कार्यों को अपने जीविका का साधन बना लिया पर कहते है, की वंश और कुल की पहचान और परम्पराएँ हमेशा जीवित रहती है और कभी ना कभी वो पुन्ह अपने स्वरुप मे आ ही जाती है|
उक्त घटना को हुए कई युग बदल गए हम सतयुग, द्वापर और त्रेता को छोड़ आज कलयुग मे पहुच गए, पर आज भी हमें अपनी पहचान को छुपा रहे है, यह इस बात का प्रमाण है की अभिशाप और भय मनुष्य को आसानी से नहीं छोडता है आज जब की हम कलियुग मे है और दुनिया आधुनिकता और नई युग को अपना चुका है, हम अब भी उस श्राप से मुक्ति नहीं पाना चाहते है| इस भय और अभिशाप से मुक्ति पाने का समय आ चुका है, क्योकि सभी जाति धर्म का कभी ना कभी ऐसा हर्ष हुआ है, पर वो जाति धर्म के लोगो ने अपना स्वरुप और कार्य बदल कर आज हमसे आगे निकल चुके है, और हम अब भी वही पुरानी परम्परा और रूढ़िवादिता हाथ को धो रहे है, आइये हम सभी मिलकर उस अभिशाप और भय से अपनी वंश को मुक्त कराये और अपनी खोई हुयी क्षत्रिय्ता को पुन्ह स्थापित कर अपना सर शान से उठा कर समाज मे अपनी पहिचान बनाए और श्री राजराजेश्वर के धार्मिक, सामाजिक और सम्पन्ता को बनाने के लिए प्रयास करे| हम क्षत्रिय थे, है और रान्हेगे इसमे कोई शक ना था  ना है बस इसको अपनी संख्या और बल से इसे साकार करना है| हम देश मे विभीन्न विभिन्न प्रान्तों, क्षेत्रो मे विभिन्न रूपों मे रह रहे है जिसके कारण एक दूसरे के बारे मे कोई जानकारी नहीं हो पाती है| हम सभी को शिक्षा के महत्व को समझना होगा जब तक हम शिक्षित नहीं  होंगे हम अपनी पहचान और संगठन को शशक्त नहीं कर पायंगे जब शिक्षित और संस्कारित  होगे तभी अपने इतिहास को पढ़ सकेगे और अपनी पहचान को जान पायेगे|


आइये फेसबुक पर मिलते है

( प्रदीप सिंह तमेर )