बुधवार, 2 जनवरी 2013

16 - वीर शिरोमणि महाराजा मयूरध्वज

वीर शिरोमणि महाराजा मयूरध्वज 
भक्त सुधन्वा में कथानक से भी अधिक मार्मिक एवं करूँ प्रसंग हैहयवंशी मणिपुर नरेश मयूरध्वज का मिलता है। मणिपुर को वर्तमान में रतनपुर कहते है जो मध्य प्रदेश के विलाश्पुर जिले में अवस्थित है। घटना क्रम का आरंभ महाराज युधिस्ठिर द्वारा कृत अश्वमेघ यज्ञ से होता है अर्थात दिग्विजय के लिए छोड़ा गया श्रृंगारित अश्व मयुर्द्वाज की राज्य सीमा में प्रवेश करता है। संयोग की बात है की उस समय मणिपुर नरेश मयूरध्वज भी अश्वमेघ यज्ञ की तैयारी पूरी कर चुके थे और वे अपने श्रृंगारित अश्व को स्वच्छंद विचरण के लिए छोड़ चुके थे। इस अश्व के रक्षक एवं सेनापति मयूरध्वज के पुत्र वीर ताम्रध्वज थे। ताम्रध्वज ने पांडवो के आये हुए अश्व को पकड़ लिया, तदुपरांत दोनों दलों में घनघोर युद्ध छिड़ गया युद्ध में ताम्रध्वज ने अर्जुन एवं भगवान् श्री कृष्ण दोनों को मूर्छित कर दिया, एवं दोनों अश्वो को लेकर अपने पिटा जी के पास पहुचे। ताम्रध्वज ने सोचा तो यह था की हमारे इस वीरता पूर्ण कार्य से जनक श्री अति प्रसन्न होगे। किन्तु हुआ इसके विपरीत। बंक भाकुती करके महाराजा मोरध्वज क्रोध पूर्ण स्वर में बोले रे मूर्ख, यह कहा की बुद्धिमानी है की तूने भगवान् श्री कृष्ण की उपस्थिति में उनके श्री चरणों को तो नहीं पकड़ा बल्कि अश्व को पकड़ कर भक्ति क बदले पाश्विकता का परिचय दिया। क्या तुझे ज्ञात नहीं की हमारा प्रयोजन यज्ञ पूर्ण करना, अथवा अश्व बंधन एवं विजय पान नहीं बल्कि हरि हो प्राप्त करना ही मुख्य उद्देश्य था। वास्तव में मयूरध्वज उस युग के एक वीर भक्त शिरोमणि नृपति थे और वह युग भी भक्ति प्रतियोगिताओं कायुग था। 

                      यद्यपि अर्जुन भी भगवान् के चिर सखा भक्त थे, तथापि भक्त मयूरध्वज अनुपम भक्ति से अर्जुन को भी आश्चर्य में दाल दिया। भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र अर्जुन के भक्ति दंभ को चूर्ण करना चाहते थे और वह भी भक्त शिरोमणि मयूरध्वज के प्रत्यक्ष दृस्तांत द्वारा। यहाँ यह उल्लेखनीय है की किस प्रकार से भक्त मयूरध्वज की भगवान् द्वारा ली गई परीक्षा में खरे उतरे थे?
                      त्रिलोकीनाथ भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र ने स्वयं एक साधू का रूप धर अर्जुन लिए और अर्जुन को अपना शिष्य बना कर मयूरध्वज की यज्ञशाला में प्रवेश किया। दैदीप्यमान तेजस्वी ऋषियों को देखते ही राजन अपनी यग्यासन से उठकर ज्योही विनय पूर्वक नमन करने को बढे, त्यों ही ऋषियों ने मांगलिक आशीर्वाद उन्हें पहले ही प्रदान कर दिया। राजन ने स्वागतम सत्कार कर नम्रता पूर्वक अपने लिए सेवा की याचना की। ऋषि बोले यदि तुम मुझे मनोवांछित वास्तु देने की प्रतिज्ञा करो तो मई तुम्हारे योग्य सेवा कार्य बताऊ। हे रिषिगन मै आपकी आज्ञा शिरोधार्य कर प्रतिज्ञा करता हूँ। तब ऋषि बोले, हे राजन , मई अपने पुत्र सहित इस और आ रहा था की मार्ग में एक सिंह से भेट हो गई, वह मेरे पुत्र को खाने को दौड़ा , मैंने उससे प्रार्थना की की हे सिंघ् राज आप मेरे पुत्र के बदले मेरा भक्षण कर लो। क्योकि वह मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारा है परन्तु मेरे अत्यधिक अनुनय पर भी कुछ परिणाम नहीं निकला परन्तु बड़े देर के बाद एक शर्त पर वह राजी हुआ है। की यदि प्रसन्नता एवं स्वेक्षा पूर्वक यज्ञकर्ता राजा मयुर्द्व्ज अपने शरीर को पत्नी एवं पुत्र द्वारा आरे से चिरवाकर दो भागो में विभक्त कर दाहिना भाग मेरे लिए अर्पित कर सकते हो तो मई तुम्हारे पुत्र को अभय दान दे सकता हूँअन्यथा नहीं।

                        राजन, आपकी दान शूरता एवं भक्ति के प्रशंसा लोक में विख्यात है। आपकी प्रजा वत्सलता , धार्मिकता एवं करुना ही मुझे मेरे पुत्र वियोग से बचा सकती है। 
                            महाराजा मयूरध्वज भक्ति शिरोमणि ही नहीं कर्तव्य परायण प्रजा वत्सल एवं धार्मिक नृपति थे। उन्होंने तुरन्त  ही द्विज की इच्छा को स्वीकार कर लिया, उनकी विवेकी दृष्टी को कुछ ऐसा आभास हुआ की साधू भेष में स्वयं भक्त वत्सल श्री कृष्ण केन्द्र जी प्रत्यक्ष उपस्थित है। इस बहती गंगा में हाथ धोने से चूकना नही चाहिए। सम्पूर्ण राज दरबार में विद्युत् की भांति यह समाचार फ़ैल गया की महाराज न अपने अर्धांग आरे से चिरवाकर ब्रम्हण  को देना स्वीकार कर लिया है। वातावरण घबडाहट और क्षुभ्रता से भर गया। महारानी कुमुद देवी स्वयं दरबार में उपस्थित होकर विप्र से प्रार्थना करने लगी के हे गुरु देव, मै  नरेश की अर्धांगिनी हूँ, कृपया स्वामी के बदले मुझे ही स्वीकार कर लीजिये, परन्तु सिंह की मांग, बामांग की नहीं, दक्षिनांग की है रानी तुम्हारे  समरपण से इस कार्य की सिद्धि नहीं होगी। इस भांति से रानी निरुपाय एवं हताश हो गई। तब ताम्रध्वज ने कहा की विप्रवर आपके उद्देश्य पूर्ती हेतु मुझे क्यों न स्वीकार कर लिया जावे क्योकि पुत्र भी तो जनक की ही प्रतिमूर्ति होता है। परन्तु प्रतिज्ञानुसार मयूरध्वज को चीरे जाने का कार्य तुम्हारे एवं तुम्हारी माता के द्वारा संपन्न होना है। तभी वह सिंह राजन के अर्धांग को स्वीकार करेगा। इस कारन तुम्हारा भी आत्म समर्पण भी निरर्थक है।
                                  इस प्रकार राजेश्वर मयूरध्वज की प्राण रक्षा के सभी उपाय असहाय एवं विवश थे। अब दरबार में वह करुण  एवं मार्मिक द्रश्य उपस्थित है, जिसमे दो काष्ठ स्तंभों के मध्य पद्मासन से बैठे हुए मयूरध्वज अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में दिखाई दे रहे है। आरे के दोनों छोर क्रमश: रानी और राजकुमार के हाथ में है तथा उसका मध्य भाग राजा के मस्तक पर रखा हुआ है। सारा राज्य दरबार आन्शुओ की पीकर निस्तव्ध और मौन है। किन्तु सत्य वीर राजा मयूरध्वज सबको आशाषित करते हुए बोले की आप लोगो के उदासी भाव से मेरा व आप सभी का कल्याण नहीं होगा। यह समय मेरे प्रति मोह ममता दर्शाने का नहीं है यदि मुझसे आप लोगो को सच्ची आत्मीयता है तो सब लोग कृपया अपने अपने कर्तव्य पथ पर आरोध हो जावे, इस भांति से राजा मुखुन्द, माधव, गोविन्द आदि नाम स्मरण करते हुए हुए निश्छल बैठे रहे। आरा चलता रहा, रुधिर की धरा बहती रही। दर्शको की आन्हे और चीखे रुदन कर बाहर फुट पड़ने को आतुर है, लेकिन प्रतिवंध ने रोक रखा है। बाहरी वातावरण जितना शांत दिखाई देता है। अंतर ह्रदय उतना ही क्षुब्ध है परन्तु यह क्या? रजा की बाई आँख डबडबा क्यों गई? याचक ब्रम्हां ने परिस्थिति पहचान ली, और गमनोगंत  होते हुए बोले - बस हो चूका। शोक पूर्वक दिया हुआ दान सिंह कभी स्वीकार नहीं करेगा। हे महर्षि, सुनिए यह अश्रु जल मेरे शोक की अभिव्यक्ति नहीं वरन कर्तव्य की अपूर्णता का द्योतक है। बाम्नेत्र को दुःख है की दाहिना अंग तो विप्रदेव के दान में सफल होने जा रहा है परन्तु बामंग सर्वथा ही निरर्थक रहेगा। वास्तव में राजा की युक्ति सही ही थी। इस कारण विप्र निरुत्तर हो गए और प्रसन्न होकर अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट किया, कैसा था वह वास्तविक स्वरूप। शंख, चक्र, पद्म, चतुर्भुज धरी, पीताम्बर पहने भगवान् विष्णु, वरद हस्त की सौम्य मुद्रा विखेरते हुए अपने भक्त मयूरध्वज के शरीर  को स्पर्श कर रहे थे। प्रभु के स्पर्श मात्र से राजा अर्ध-विभक्त शरीर से पहले से भी अधिक लावन्य्मयी एवं दैदीप्यमान होकर श्री चरणों में नत मस्तक हो गए। 
                भगवान् ने उनसे बरदान मांगने को कहा-राजा ने निवेदन किया की भगवन इतनी कठिन परीक्षा कृपया किसी भी भक्त की न लिया करें। आपके श्री चरणों में मेरी अविरल भक्ति बनी रहे। शिष्य भेष में खड़े हुए अर्जुन ने भी अपना असली रूप प्रकट किया जो की चित्र लिखित से खड़े आद्योपांत इस अपूर्व आश्चर्य जनक दृश्य को देख रहे थे, वे भी प्रभु के चरणों में गिर कर बोले-हे, दयानिधि, मेरी भक्ति का जिसका मुझे घमंड था चूर चूर हो गया है राजा मयूरध्वज की भक्ति का दृष्टान्त न तो इस विश्व में है और न कभी मिलेगा। 
             इस कथा का उपसंहार देते हुए महाभारत में कहा गया है की 3 दिन तक राजा मयूरध्वज का आतिथ्य ग्रहण करने के बाद श्री कृष्ण एवं अर्जुन अपने अश्व सहित महाराज मयूरध्वज से संधि कर आगे पलायन हुए। मयूरध्वज ने भी भगवत भक्ति में लीं होने के लिए पुत्र ताम्रध्वज को अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाकर वन की ओर चले गए।


संधि काल 
यह सर्व विदित है की महाभारत का युद्ध 18 दिनों तक चला। अश्वमेघ यज्ञ के समय अर्जुन के साथ युद्ध करने वाले ताम्रध्वज की आयु उस समय मात्र 16 वर्ष थी। अर्थात वे अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के समान वयस्क थे। आगे जब भगवान् श्री कृष्णा ने वीर भोग्या वसुंधरा का परित्याग किया, तब पांड्वो ने अभिमन्यु बढ़ के बाद अपने पौत्र परीक्षित को राज्य देकर हिमाचल की ओर प्रयाण किया . 
          पौराणिक विद्वानों का कथन है की, राजा परीक्षित के शासन काल में ही कलियुग का आरम्भ हो  गया था।इसी आधार पर यह संभव है कि , श्री कृष्ण के द्वारा राज्य परित्याग के समानांतर ही मयूरध्वज ने भी ताम्रध्वज को सिंहासन का राज्यभार सौप कर स्व कल्याण हेतु किसी वन खंड के एकांत में चले गए हो। समकालीनता की इस पृष्ठ भूमि के आधार पर यह सिद्ध हो जाता है की ताम्रध्वज का शासनकाल द्वापर के अंत तथा कलियुग के प्रारम्भ का संधिकाल है। कलियुग का समावेश भी ऐतिहाशिक युग के पूर्व भूमिका स्वरूप स्वीकार करना चाहिए।

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