मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

8- भूमिका

                                                             "भूमिका"


पाठक गण, यह संसार परिवर्तनशील है इसकी हर एक वस्तु का रूप परिवर्तित होता रहता है। अध्ययन से विदित होता है, कि एक ही जाति थी, जो सदाचार और अनाचार के अनुसार दो जातियों में बट गयी। प्रथम देव और दुसरे दानव . मनुस्मृति में  पुरुष सूक्ति में इस प्रकार वर्णन है:-

The world is changing its Committee every reader of an object changes as is well know, from study. that was the same race, which virtue and incest according to two species butt. first dev and other monsters. Men in manusmriti States: in GNOME-
            ब्राम्हनोस्य मुख मासीत बाहु राजन्यः कृत:!
            उरू तदस्य यद् वैश्य: पदूयाम सूद्रो अजायातम !!
 अर्थात- मनु महाराज ने देश और धर्म की रक्षा हितार्थ मानवों की चार जातियां बतलाई। ब्राम्हण  मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, उदार से वैश्य एवं चरणों से शूद्र जाति की उत्पत्ति हुई। इन चारो प्रमुख जातियों से आधुनिक युग में हजारो जातियों की उत्पत्ति हो गई। 
इस परिवर्तन से हैहय वंश भी अछूता  नहीं रह सका। त्रेता युग में श्री परशुराम क्षत्रिय संघर्ष के समय भय के कारन अनेक क्षत्रियों ने अपने क्षत्रिय संसकारों को त्याग दिया। परन्तु हैहय वंशी कान्श्य्कारों, ताम्रकारो  ने अपने क्षत्रिय संस्कारों का त्याग नहीं किया बल्कि शासन और ब्यापार एक साथ करते रहे। ऐसे उदाहरण विद्वान लेखको के प्राप्त हुए, जो इस ब्लॉग में भी दिए गए है।
वर्तमान समय  में हैहय वंशी शाशन से बहुत दूर हो गए है। किन्तु उनकी क्षत्रियता अनेक नगरो में निवास करने वाले कान्स्कारो और ताम्रकारो के स्वभाव, रीति रिवाजो और ब्य्वहारो से आज भी सिध्द होती है। बर्तन निर्माण करने वाली मुख्य रूप से तीन जातिया थी। वैसे अब स्वतंत्रता के बाद अनेक जातिया  इस धंधे को कर रही है। वे तीन जातिया निम्न प्रकार से है:-
1- जाति भास्कर पेज 205-206 सा अनुसार स्वम्भुमनु ने क्रमश : साम , यजु, अथर्व, वेद ब्यास और प्रियब्रत यह 06 ब्राह्मण बतलाये है। इनके बाद 04 उप ब्राह्मण (शिल्पायन , गोर्वायन , कयास्थायण और गग्धायण ) हुए। इनमे से सेशिल्पायन  उप  ब्राम्हण के 05 पुत्र लोहकार, सूत्रधार, प्रस्तररि (पत्थर की नक्कासी करने वाले) ताम्रकार और स्वर्णकार हुए। ये सभी कालांतर में भ्रष्ट  होते होते कर्मो से रहित हो गए।
2- जाती भास्कर पेज 433 में गोपीनाथ ही ने 2 प्रकार के कसेरो का वर्णन किया है। उनमे एक को सूद्र की संज्ञा तथा दुसरे को क्षत्री की संज्ञा दी है। ये सभी कांसे का ब्यापार करते थे। 
3- जाति भास्कर के पेज 262 में पदम पुराण कलिका माहात्म्य के अनुसार लिखा है की, चंद्रवंशी कार्तवीर्य का पुत्र अर्जुन हुआ है। उसके बाद सेनादिक राजा हुए। उनके वंश के बहुत से शूर, कांस्य बृत्ति से अपनी जीविका करने लगे। वे सब कान्सार कहलाये तथा कलिका पूजन में तत्पर हुए। "कहलाये" शब्द से पता चलता है की कांस्यकार एवं ताम्रकार क्षत्रिय है, परन्तु अपनी जीविका चलाने को कांसे , पीतल, तांबे का धंधा अपना लेने के कारण वे कान्सार , ताम्रकार , ठठेरे , ठठेरा, टम्टा आदि कहलाने लगे। हम अपने इतिहास में हैहय वंशी कांस्यकार एवं ताम्रकार का विवरण प्रस्तुत कर रहे है।
समय  की कुचाग्र गति को हैहय वंशियो ने उपरोक्त धंधे को ग्रहण कर समाप्ति किया किन्तु राज्य समाप्ति की पश्चात् इन्होने उपरोक्त धंधे को अपनाया। जिससे अधिकांश इसे अपना मुख्य धंधा समझ कर करते रहे, और अपनी वास्तविक पहचान को भूल गए। इनमे से अल्पांश कृषि या सरकारी नौकरी की। इस प्रकार इन ताम्रकारो , कान्श्य्कारो , ठठेरो आदि को हैहय वंशी क्षत्रिय समझने में जो भ्रामकता दूसरो को आ गई है, इस ब्लॉग / ग्रन्थ के द्वारा, पुरानो के प्रमाण देकर उसे दूर करने का सत्य प्रयास किया गया है। 
 अस्तु  अंत में पाठक गणों से हम यह आशा करते है की वे इस इतिहास का अध्ययन कर इसमे वर्णित अपने पूर्वजो, महापुरुषों के उत्तम चरित्र ज्ञान, साहस, प्रेम, संयम, नियम, संगठन व समानता की प्रेरणा लेकर अपने समाज एवं देश को उन्नतशील और सम्रिध्शाली बनाने में तन, मन, धन से सहयोग प्रदान करें। हम सभी जानते है की हमारे समाज के लगभग 80 प्रतिशत हमारे भाई बंधू अत्यंत गरीब और समाज में दहेज़ की बढ़ती कुरीतियों से पीड़ित है, यदि हम सभी जैसे भगवन के लिए एक गुल्लक बनाते है उसमे अपनी आय का कुछ हिस्सा रखते जाते है, ठीक उसी प्रकार यदि प्रत्येक ताम्रकारो , कान्श्य्कारो , ठठेरो का परिवार समाज की कुरीतियों से निपटने के लिए एक गुल्लक बनाये और उसमे प्रतिदिन 1 रूपये से लेकर 5 रूपये तक (यथा संभव) डालते रहे, वक्त आने पर ऐसे कमजोर परिवारों की हमारे और आपके द्वारा मदद की जा सकती है। यह एक प्रयास आपको कितनी दुवाए देगा आप शायद इसकी कल्पना कर सकते है। 


IE-Manu Maharaj of the country and religion concerning the men's four races from home, bramhan Kshatriya slide stated., shudra caste of vaishya from moderate and steps does major Nations originated in the modern era of these saw tens of thousands of species of origin.


This change also could not remain untouched descendants haihay . Kshatriya struggle time in Mr. Parshuram bullshit fear results from several abandoned his Kshatriya sansakaron Kshatriyas. but kanshykaron, tamrakaro Kshatriya by vanshi haihay  me glar but not sacrificing governance and burpee together. examples of authors, scholars, which is also given in this blog.


At the present time has been very far from vanshi shashan haihay  but many of their kshatriyata kanskaro and tamrakaro who reside in nagro nature, customs rivajo and byvaharo from sidhd to build the pot still is mainly with three. casts . well now since independence to the business number of jatiya. three casts is as follows:-


1-page 205-206 svambhumnu per Bhaskar a caste of atharva Vedas respectively yaju, Sam, priyabrat, batlaye DIA * and it is later 04 06 Brahmin sub Brahmin (shilpayan, gorvayan, kayasthayan and gagdhayan). seshilpayan of these lohkar, architect, son of Deputy bramhan 05 prastarri (nakkasi of the stone) and they all periodically tamrakar carnivores are corrupt. are devoid of karmo.


It is only 2-2 in the page 433 Bhaskar Gopinath type describes a pasttime kasero is as the denomination of the sudra and other kshatri. all these bronze of burpee.


Page 3-race significance in kalika purana Bhaskar, padam wrote according to 262, son of Arjuna kartavirya chandravanshi. then King senadik. lots of shur dynasty, bronze to their sustenance britti. they all look forward in callded cancer and kalika piece. "kahlaye" shows the concourse and the word Kshatriya tamrakar is But my living running bronze, brass, copper, they take their cancer business, tamrakar, thathere, thathera, began in its history we called tamta etc haihay vanshi are offered details of the concourse and tamrakar.


Time to trade above by vanshiyo haihay  corkage speed assumed termination after expiry of the above business done but State adopted. which are your main business it would make sense to most, and forgot your real identity. some peoples which the agriculture or Government job, these tamrakaro, kanshykaro thathero., etc to others who understand haihay vanshi Kshatriya bhramkata occurred. This blog, by giving evidence of purano granth/it tried to sort out the truth.


In  the end reader is it ganon we hope they described the history of this mahapurushon your purvajo, love, courage, knowledge, best character of restraint, his inspiration of equality rules, organization and society and make the unnatshil and samridhshali Tan, mind, money, providing from. we all know our society is extremely poor and nearly 80 percent of our brother dahez bandhu kuritiyon in society is suffering from risingIf we make a piggy bank for all such as Bhagwan in keeping part of their income, exactly as if each tamrakaro, kanshykaro, thathero kuritiyon family of society to deal with everyday in a piggy bank and made 1 5 RS RS (as possible), while others come to help our families and such weak. How will you try this one duvae you maybe it Can imagine.




श्री सहस्त्रबाहु जी के बारे में अत्यधिक जानकारी हमें पुराणों और शास्त्रों से प्राप्त होती है परन्तु समाज के अधिकतम लोगों को न तो शास्त्रों को पढ़ने का ही सौभाग्य मिला न ही श्री राजेश्वर का सत्संग, यही कारण है कि हमारे राजराजेश्वर को लोग केवल नाम से ही जानते हैं उनकी महिमा का वर्णन जो शास्त्रों में है उसकी जानकारी नहीं है I

यदि हम उनकी संतान होने पर गर्व करते हैं तो मेरा प्रश्न है कि कितने लोग उनके भक्त हैं, उनकी पूजा करते हैं, तथा जो हमारा सिद्ध धार्मिक स्थल महेश्वर है वहाँ जाकर दर्शन किया है I मेरा विचार है कि दो से पाँच प्रतिशत लोग ही यह सब कुछ किये होंगे I यह मेरा आलेख उन 95 से 98 प्रतिशत लोगों के लिये समर्पित है जो इनके बारे में बिलकुल नहीं जानते I

इस आलेख को पढ़कर आप प्रण करें, प्रयास करें और सु परिणाम प्राप्त करें I प्रत्यक्ष किम प्रमाणम I अर्थात जो उपस्थित है उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है I श्री राजराजेश्वर भगवान कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन बहुत लोक प्रिय सम्राट थे विश्व भर के राजा महाराजा मांडलिक, मंडलेश्वर आदि सभी अनुचर की भाँति सम्राट सहस्त्रार्जुन के दरबार में उपस्थित रहते थे I उनकी अपर लोकप्रियता के कारण प्रजा उनको देवतुल्य मानती थी I आज भी उनकी समाधी स्थल "राजराजेश्वर मंदिर" में उनकी देवतुल्य पूजा होती है I उन्ही के जन्म कथा के महात्म्य के सम्बन्ध में मतस्य पुराण के 43 वें अध्याय के श्रलोक 52 की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं : -

यस्तस्य कीर्तेनाम कल्यमुत्थाय मानवः I

न तस्य वित्तनाराः स्यन्नाष्ट च लभते पुनः I

कार्तवीर्यस्य यो जन्म कथयेदित धीमतः II

यथावत स्विष्टपूतात्मा स्वर्गलोके महितये II

भावार्थ : - जो मनुष्य प्रातः उठकर श्री कार्तवीर्य अर्जुन का स्मरण करता है उसके धन का नाश नहीं होता है I यदि नष्ट हो भी जाय तो पुनः प्राप्त हो जाता है I जो मनुष्य श्री कार्तवीर्य अर्जुन के जन्म वृतांत को कहता है उसकी आत्मा यथार्थ रूप से पवित्र हो जाति है वह स्वर्गलोक में प्रशंसित होता है I

राजराजेश्वर मंदिर में युगों-युगों से देसी घी के ग्यारह नंदा दीपक अखण्ड रूप से प्रज्वलित हैं, इतिहासकारों की दृष्टि में 11 दीपक अखण्ड ज्योति में और कहीं नहीं हैं I मंदिर के गर्भ गृह में दक्षिण पश्चिम कोने पर सात दीपक हैं और उत्तर-पूर्वी कोने पर चार हैं जिनका पश्चिम उत्तरी कोने पर लगे पाँच फुट लम्बे आयने (दर्पण) में स्पष्ट प्रतिबिम्ब दिखाई देता है I भारत के अन्य किसी मंदिर में बिरले ही इतनी अधिक संख्या में शताब्दियों से अखण्ड दीपक प्रज्वलित हों I मंदिर को बड़ा सिद्ध स्थल मन जाता है, यहाँ पर भक्तों की मनोकामना आज भी उसी तरह पूरी होती है जिस प्रकार उनके जीवन काल त्रेतायुग में होती थी I उनके महेश्वर स्थित समाधी स्थल पर बने मंदिर का नाम "राजराजेश्वर मंदिर" है I यह मंदिर महेश्वर में नर्मदा तट पर किले के अन्दर है I मंदिर के गृहस्थ महंत किरान गिरी उनकी सात पीढ़ी से हैं I मुख्य मंदिर की स्थापत्य कला से उसके कलचुरी एवं परमार काल 11 वीं शताब्दी में जीर्णोद्धार के होने का आभास होता है I मंदिर मे नित्य पूजा पाठ महंत के मातहत ब्राह्मन कर्मचारी द्वारा की जाति है I

यह मनीर लगभग 150x100 फीट के प्रांगण के बीच पूर्वाभिमुखी है I मंदिर के बीच में शिवलिंग के रूप में राजराजेश्वर सहस्त्रार्जुन की समाधी है I शिवलिंग के पीछे अष्टधातु की शिव-पारवती की चालित मूर्ती है, इस मूर्ती का कपाल भाग दक्षिणात्य शैली के अनुसार पीछे की ओर थोडा दबा हुआ है I यह विशेषता इस प्रतिमा में है I इस मूर्ती के ऊपर श्री सहस्त्रार्जुन जी के गुरु भगवान दत्तात्रेय जी का चित्र है I

घी के ग्यारह दीपक चाँदी के बने हुए हैं जिनकी क्षमता लगभग दो किलो घी की है I छोटी ऊँगली के बराबर मोटाई की रुई की लगभग एक फीट लम्बी बत्तियाँ बनाकर दीपकों में रखी जातीं हैं जो 3-4 दिन चलती हैं I प्रतिदिन कितना घी जलता है यह जानकारी महंत और पुजारी को भी नहीं है I उषा ट्रस्ट द्वारा सीमित मात्रा में दीपकों के लिये घी दिया जाता है लेकिन दर्शनार्थियों द्वारा भारी मात्रा में घी चढ़ाया जाता है I घी का संग्रह रखने के लिये मंदिर में ही 1000 किलो की क्षमता वाले टैंक हैं, दर्शनार्थी द्वारा लाया गया घी उसी समय यथासंभव दीपकों में डाला जाता है, किंतु दीपकों के भरे होने पर घी टैंक में संगृहीत किया जाता है I चढ़ावे के घी का दुरूपयोग नहीं हो सकता, पू. महंत जी से चर्चा के दौरान यह ज्ञात हुआ की दैनिक भोग में लगने वाला घी भी उस भंडार से न लेकर बाज़ार का ख़रीदा हुआ ही होता है I अखण्ड ज्योति की घी का दुरूपयोग कभी किसी ने किया था, परिणाम में उसे अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा I इसलिए एक बूँद भी घी का दुरूपयोग नहीं होता है, ऐसे हैं हमारे जाग्रत देव श्री राजराजेश्वर प्रभु I

न्याय की देवी अहिल्या ने होलकर राज्य की राजधानी महेश्वर ही निश्चित की I देवी अहिल्या ने अपने जीवन काल में केवल तीन प्रणाम किये, प्रथम रिद्धी-सिद्धि दाता श्री गणेश, द्वितीय श्री राजराजेश्वर एवं तृतीय माँ नर्मदा को I देवी माँ अहिल्या के स्वर्गवास के बाद आज भी प्रति सोमवार सायं पाँच बजे देवी माँ अहिल्या की पालकी राजराजेश्वर पूजा एवं प्रसाद अर्पित करने हेतु आतीं हैं I देवी की पालकी इस मंदिर के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं जाति I होलकर राज्य शासन काल में श्री राज राजेश्वर की शोभा यात्रा को गार्ड आफ ऑनर (राजकीय सम्मान) प्रदान किया जाता था I जैसा कि उज्जैन महाकाल को आज भी श्रावण तथा भादों माह की अंतिम सवारी पर किया जाता है I

यदि समाज के जागरूक नवयुवक साथीगण हैहयवंश के इतिहास को जानना चाहें तो दिल्ली के स्व. श्री पुत्तूलाल वर्मा जी "करुणेश" की पुस्तक "हैहयवंश का इतिहास" अवश्य पढ़ें व् स्व. श्री राम सहाय जी हयारण, खुरई वालों की पुस्तक का अध्ययन भी करें I

पिछले 10-15 वर्षों में कलचुरी हैहयवंशियों में इतनी जागरूकता आई है की महेश्वर में श्री राजराजेश्वर के दर्शन करने की ललक जागी और दर्शन से जो लाभ हुआ उसमें लोगों ने 100 ग्राम घी चढ़ाया उसके बाद तो पीपों से घी चढ़ाया और लाभ अर्जित किया I आज उनके समाज की जागरूकता यह है कि राजराजेश्वर मंदिर परिसर में विशाल मंदिर का निर्माण हो रहा है I 5-7 वर्ष पूर्व इसका शिलान्यास हुआ तब योगना एक लाख रूपए कि थी परन्तु जब समाज के जागरूक वर्ग को यह जानकारी हुई तो आपस में इस बात पर बहस हो गई कि इतनी काम राशि क्यों निश्चित हुई अर्थात आज कि तारीख में यह मंदिर 21 लाख का बन रहा है I यह हमारी सुप्त अवस्था को करार तमाचा है I

इसलिए मेरे नवयुवक साथियों उठो और जागो, प्राण प्रण से एक कदम तो आगे रखो दूसरा कदम अपने आप बढेगा और उन्नति मार्ग सुगम होगा I एक बार महेश्वर श्री राजराजेश्वर के दर्शन करने अवश्य जाये I

इस समाज को समुद्र मानें, इसमें जो डालोगे वही पुनः प्राप्त होगा, क्योंकि समुद्र अपने पास कुछ नहीं रखता वापस कर देता है I
"हक़ के रौदाई हैं, कातिल को मिटा डालेंगे ,
गर्दिश वक्त की आई, तो बदल डालेंगे ,
हमने जिस दौर को चाहा, बदल डाला है,
और अब जिसे चाहेंगे, बदल डालेंगे I "
 मै क्यों हूँ ?
टिम टिम करते नन्हे तारे , 
सोंचू  तुम क्या हो रे,
क्यों मै हूँ, यहाँ नीचे रहता?
क्या तुम मुझको दोगे बता. 

अरे भाई कोई मुझे यह बता सकता है की मै यहाँ क्या कर रहा हूँ, अर्थात मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? यह किसका खेल है? यहाँ क्या चल रहा है?

क्या वास्तव में मरने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है? क्या केवल कवि ही अपनी कविताओ में अमर हो जाते है? या कोई वास्तव में सदा सदा के लिए अमर है?

इन प्रश्नो को पूछने के लिए मुझे अत्यंत खेद है, परन्तु हाल ही में इस संसार में आई विपदा के पश्चात मई आश्चर्य करने लगा की जीवन की सच्चाई और उसकी खोज के लिए मेरे पास कितना काम समय है.

ब्रम्हांड का इस सदस्य होने के नाते मै सोचता हु की मुझे इस बात का अधिकार है की मै अपने आसपास की जानकारी रखुँ. इन सब प्रश्नो से अधिक गड़बड़ बात है की मै जिससे भी यह प्रश्न पूंछता हु सबके उत्तर अलग अलग होते है. अधिकतर लोग इन प्रश्नो को पूछने पर मुझे मूर्ख या पागल समझते है. पर इससे क्या फर्क पड़ता है, कुछ कारण हेतु मुझे इसका अंतर पड़ता है, मैं इसके मर्म, जीवन के लक्ष्य तक पहुचना चाहता हूँ. अंततः मैंने निश्चय किया की जीवन के विषय और अपने बारे में बड़े बूढो के विचार जनू. उन्हें इसका ज्ञान होगा क्योकि आजकल तो लोग केवल अनुमान लगते है. मैं संसार की अत्यंत पुरातन पुस्तको को देखना चाहता हूँ, पढ़ना चाहता हू. शायद उनमे मेरी जिज्ञासा छिपी हो?

मैंने पुस्तकालयाध्यक्ष से पूछा तथा उन्होंने बताया की संसार की सबसे पुरातन पुस्तक ^^वेद^^  है. वे संस्कृत में लिखी है, पर आज हिंदी में भी उपलब्ध हो  चुकी है. परन्तु  वे यह बताना  भूल गए की वेद की तो सैकड़ो पुस्तके है. पुस्तको का क्रय, पढ़ना, मनन करने पर यह समझ नहीं आ रहा की किस पुस्तक से शुरू करू? इस प्रकार पुस्तको का संकलन और पाठन  की प्रक्रिया  प्रारम्भ  हुई . सालो तक कई ग्रंथो, वेद आदि का मंथन करने के पश्चात मुझे अपने बारे में १ प्रतिशत से भी काम जानकारी मिली. ग्रंथो को पढ़ते पढ़ते यह भी ज्ञान हुआ कि महाराज सहस्त्रबाहु हमारे पूर्वज थे, जो अत्यंत दयालु, दानी और भगवन विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे, भगवन शंकर जी का विशेस स्नेह था, उनके द्वारा दिए ज्ञान के द्वारा ही उन्होंने भगवान दत्तात्रेय की कठोर तपस्या की और विश्व के चक्रवर्ती सम्राट बने थे. उन भगवन सहस्त्रबाहु के जीवन पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेगे.

विनीत -
प्रदीप सिंह तामेर 
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