मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

11 - हैहय जन्म एवं उनका चरित्र

हैहय जन्म एवं उनका चरित्र 


श्री श्री 108 परम पूज्यनीय गुरूजी द्वारा कुछ सामग्री प्राप्त हुयी। आप पुराणों के प्रवचन में अत्यंत दक्ष थे। ज्योतिष के भी प्रकांड विद्वान् थे। आपको विविध ग्रंथो का अध्ययन विशेष है। आप लगभग 20 वर्ष पूर्व हम लोगो को छोड़कर परलोक को निकल गए। निम्न लिखित श्लोक जो आपके द्वारा ही बतलाये गये है, वे यहाँ उधृत है----
Guruji Sri Sri 108 pujyaniya get some content by ultimate. you were very efficient in the discourse of the Puranas. astrology also hired education. studying special books, you have a variety of nearly 20 years ago. we were the last people to leave out the following verses written by. were they here --

        अश्व वाणी शुक्ल पक्षम प्रतिपदा मंद वासरे।
           मध्य दिवसे अभिजिते जन्मावित जनार्दनह।।
             ययुर चन्द्रम त्वया वंश ययाति नृप तथैव च।
             तस्य पुत्रं सु-पुत्रम च हैहय देव  जनार्दनह।।


ययाति महान चन्द्रवंशी सम्राट

ययाति

ययाति राजा नहुष की रानी बिरजा के गर्भ से उत्पन्न  पुत्र थे वे  भारत के पहले चकर्वर्ती सम्राट हुये जिसने अपने राज्य का बहुत विस्तार किया॥ इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी इसलिए  इनके पिता नहुष  को अगस्तय मुनि आदि ऋषियों ने इन्द्रप्रस्थ से गिरा दिया और अजगर बना दिया तथा इनके ज्येष्ठ भ्राता यति ने राज्य लेने से इन्कार कर दिया।तब ययाति राजा के पद पर बैठे।उन्होंने  अपने चारों छोटे भाइयों को चार दिशाओ में नियुक्त कर दिया और आप शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे। देवयानी से दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए।  

देवयानी के गर्भ से  महाराज ययाति के यदु  नामक एक  पुत्र  उत्पन्न हुआ और यदु से यदुवंश चला। महाराज ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राह्मण पुत्री थी।  यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ? 

देवयानी और शर्मिष्ठा कौन थी? 

इसका विवरण इस प्रकार है:- शर्मिष्ठा दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या थी। वह अति माननी अति सुंदर राजपुत्री थी।राजा को शर्मिष्ठा से विशेष स्नेह था। पुराणों के अनुसार शुक्राचार्य दैत्यों के राजगुरु एवं पुरोहित थे।देवयानी उन्ही दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी तथा शर्मिष्ठा की सखी थी। रूप-लावण्य में देवयानी शर्मिष्ठा से किसी प्रकार से कम न थी। देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों महाराज ययाति की पत्नियाँ थी। ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राहमण पुत्री थी तो यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ? 

इस विषय में कहा जाता है कि एक दिन शर्मिष्ठा अपनी हजारो सखियों के साथ नगर के उपवन में टहल रही थी उनके साथ गुरु पुत्री देवयानी भी थी उस उपवन में सुंदर सुंदर सुहावने पुष्पों से लदे हुए अनेको वृक्ष थे उसमे एक सुंदर सरोवर भी था सरोवर में सुंदर सुंदर मनमोहक कमल खिले हुए थे उनपर भौरे मधुरता पूर्वक गुंजार कर रहे थे इस सरोवर पर पहुचने पर सभी कन्याओ ने अपने अपने वस्त्र उतारकर किनारे रख दिया और आपस में एक दूसरे पर जल छिड़कती हुई जलविहार करने लगी उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले तो भगवान शकँर को आता देख सभी कन्याये लज्जावश दौड़ कर अपने अपने वस्त्र पहनने लगी जल्दी में भूलवश शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिए इस पर देवयानी क्रोधित हो कर बोली ये शर्मिष्ठा तु एक असुर पुत्री होकर तुमने ब्रह्मण पुत्री के वस्त्र पहनने का साहस कैसे किया?

जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है बड़े-बड़े लोकपाल तथा देव इंद्र आदि जिनके चरणों की वंदना करते है उन्ही ब्राह्मणों में श्रेष्ट हम भृगुवंशी है मेरे वस्त्र धारण करके तूने मेरा अपमान किया है देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा तिलमिला गयी और क्रोधित होकर देवयानी को कहा  ये भिखारिन आप तूने अपने आप को क्या समझा है? 
तुझे कुछ पता भी है कि नही है?
जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ो के लिए ताकते रहते है उसी तरह तू अपने बाप के साथ मेरी रसोई की तरफ देखा करती है क्या मेरे ही दिए हुए टुकडो से तेरा शरीर नहीं पला?

यह कहकर शर्मिष्ठा ने देवयानी के पहने हुए कपडे छीन कर उसे नंगी ही उपवन के एक कुएं में ढकेलवा दिया देवयानी को कुएं में ढकेलकर शर्मिष्ठा सखियों को लेकर घर चली आयी।

संयोगवश राजा ययाति उस समय वन में शिकार खेलने गए हुए थे और वे उधर से गुजर रहे थे उन्हें बड़ी प्यास लगी थी पानी की खोज करते हुए वे उसी कुएं के पास गए जिसमे देवयानी को धकेल दिया गया था उस समय वह कुए में नंगी खड़ी थी राजा ययाति ने उसे पहनने के लिए अपना दुपट्टा दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकड़कर कुएं से बहार निकाल लिया कुए से बहार निकलने पर देवयानी ने ययाति से कहा हे वीर जिस हाथ को तुमने पकड़ा है उसे अब कोइ दूसरा न पकडे। मेरा और आपका सम्बन्ध ईश्वरकृत है मनुष्यकृत नहीं निसंदेह मै बाह्मण पुत्री हूँ लेकिन मेरा पति ब्रह्मण नहीं हो सकता क्योकि वृहस्पति के पुत्र कच ने ऐसा श्राप दिया है कि देवयानी के ऐसा कहने पर राजा न चाहते हुए भी दैव की प्रेरणा से ययाति उसकी बात मान गए इसके बाद ययाति अपने घर चले गये उधर देवयानी रोती हुई अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था वह कह सुनाया पुत्री की दशा देख कर शुक्राचार्य का मन उचाट गया वे पुरोहिती की निंदा करते हुए तथा भिक्षा वृति को बुरी कहते हुए अपनी बेटी देवयानी को साथ लेकर नगर से बाहर चले गए यह समाचार जब वृषपर्वा ने सुना तो उनके मन में शंका हुई कि गुरूजी कही शत्रुओ से मिलकर उनकी जीत न करवा दे अथवा मुझे शाप न दे दें तो वो ऐसा विचार करके अपने पिता के साथ गुरूजी के पास आयी और मस्तक नवाकर पैरो में गिरकर क्षमा याचना कियातब शुक्राचार्य जी बोले हे राजन आप मेरी पुत्री देवयानी को मना लो वह जो कहे उसे पूरा करो वृषपर्वा ने कहा बहुत अच्छा तब देवयानी बोलीं मै पिता की आज्ञा से जिस पति के घर जाऊं अपनी सहेलियों के साथ आपकी पुत्री शर्मिष्ठा उसके यहाँ पर दासी बनकर रहे शर्मिष्ठा इस बात से बहुत दुखी हुई परन्तु यह सोच कर देवयानी की शर्त मान ली कि इससे मेरे पिता का बहुत काम सिद्ध होगा तब शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह ययाति के साथ कर दिया एक हज़ार सहेलियों सहित शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनाकर उसके घर भेज दिया समय बीतता गया देवयानी लगन के साथ पत्नी-धर्म का पालन करते हुए महाराज ययाति के साथ रहने लगी शर्मिष्ठा सहेलियों सहित दासी की भाति देवयानी की सेवा करने लगी।

शर्मिष्ठा राजा ययाति की पत्नी कैसे बनी?

आगे की पंक्तियों में इसका संक्षिप्त वर्णन किया गया है कुछ दिनों के बाद देवयानी पुत्रवती हो गई| देवयानी को संतान देख शर्मिष्ठा ने भी संतान प्राप्ति के उद्देश्य से राजा ययाति से एकांत में सहवास की याचना की| इस प्रकार की याचना को धर्म-संगत मानकर शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी उचित काल पर राजा ने शर्मिष्ठा से सहवास किया| 
इस प्रकार देवयानी से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए|

जब देवयानी को ज्ञात हुआ कि शर्मिष्ठा ने मेरे पति द्वारा गर्भ धारण किया था तो वह क्रुद्ध हो कर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली गयी| राजा ययाति भी उसके पीछे- पीछे गया| उसे वापस लाने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु देवयानी नही मानी| जब शुक्राचार्य को सारा वृतांत मालुम हुआ तो क्रोधित होकर बोले हे स्त्री लोलुप तू मंद बुद्धि और झूठा है| जा ओर मनुष्यों को कुरूप करने वाला तेरे शरीर में बुढ़ापा आ जाये| तब ययाति जी बोले हे ब्राह्मण श्रेष्ठ मेरा मन आपकी पुत्री के साथ सहवास करने से अभी तृप्त नहीं हुआ है|इस शाप से आपकी पुत्री का भी अनिष्ट होगा|मेरी पुत्री का अनिष्ट होगा ऐसा सोचकर बुढ़ापा दूर करने का उपाय बताते हुए शुक्राचार्य जी बोले  जाओ यदि कोई प्रसन्नता से तेरे बुढ़ापे को लेकर अपनी जवानी दे दे तो उससे अपना बुढ़ापा बदल लो|

यह व्यवस्था पाकर राजा ययाति अपने राज महल वापस आए| बुढ़ापा बदलने के उद्देश्य से वे अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से बोले बेटा तुम अपनी तरुणावस्था मुझे दे दो तथा अपने नाना द्वारा शापित मेरा बुढ़ापा स्वीकार कर लो| तब यदु बोले पिताजी असमय आपकी वृद्धावस्था को मै लेना नहीं चाहता क्योकि बिना भोग भोगे मनुष्य की तृष्णा नहीं मिटती है|इसी तरह तुर्वसु,, दुह्यु और अनु ने भी अपनी जवानी देने से इन्कार कर दिया| तब राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से कहा हे पुत्र  तुम अपने बड़े भाइयो की तरह मुझे निराश मत करना| पुरु ने अपने पिता की इच्छा के अनुसार उनका बुढ़ापा लेकर अपनी जवनी दे दिया| पुत्र से तरुणावस्था पाकर राजा ययाति यथावत विषयों का सेवन करने लगे| इस प्रकार वे प्रजा का पालन करते हुए एक हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग भोगते रहे परन्तु भोगो से तृप्त न हो सके|

राजा ययाति का गृह त्याग

इस प्रकार स्त्री आसक्त रहकर विषयों का भोग करते हुए राजा ययाति ने देखा कि इन भोगो से मेरी आत्मा नष्ट हो गयी है। सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो गयी है| तब वे वैराग्ययुक्त अपनी प्रिय पत्नी देवयानी से कहने लगे हे प्रिय मेरी तरह आचरण करने वाले की मैं एक कथा कहता हूँ इसे ध्यान पूर्वक सुनना| पृथ्वी पर मेरे ही समान विषयी का यह सत्य इतिहास है| एक बकरा था| वह अकेला वन में अपने प्रिय पात्र को ढूंढता फिरता था| एक दिन उसने एक कुएं में गिरी हुई एक बकरी को देखा| बकरे ने उसे बाहर निकलने का उपाय सोच अपनी सीगों से मिट्टी खोद कर वहाँ तक पहुँचाने का मार्ग बनाया तथा उसी मार्ग से उसे बाहर निकाला| कुएं से बाहर निकल कर बकरी उसी बकरे से सनेह करने लगी तथा उसे अपना पति बना लिया| वह बकरा बड़ा हृष्ट-पुष्ट, जवान, व्यहारकुशल , वीर्यवान तथा मैथुन में निपुण था| जब दूसरी बकरियों ने देखा कि कुएं में गिरी हुई बकरी से उसका प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध चल रहा है तो उन्होंने भी उसे अपना पति बना लिया| वह उन बकरियों के साथ कामपाश में बंधकर अपनी सुधबुध खो बैठा| कुए से निकाली हुई बकरी ने जब अपने पति दूसरी बकरोयों के साथ रमण करते हुए देखा तो वह क्रोध से आग बबूला हो गयी| वह उस कामी बकरे को छोडकर बड़े दुःख से अपने पलने के पास चली गयी| वह कामी बकरा भी उसके पीछे-पीछे गया परन्तु मार्ग में उसे मना न सका| उस बकरी के मालिक को जब सारा वृतांत ज्ञात हुआ तो उसने क्रोध में आकर बकरे के लटकते हुए अंडकोष को काट दिया| परन्तु इससे बकरी का भी बुरा होगा यह सोचकर उसने अंडकोष पुनः जोड़ दिया| अंडकोष जुड़ जाने पर वह बकरा बहुत काल तक उस बकरी के साथ विषय भोग करता रहा परन्तु काम पिपासा से कभी तृप्त नहीं हुआ| हे देवयानी! यैसे ही मैं तुम्हारे प्रेमपाश में बंधकर अपनी आत्मा भूल गया हूँ| विषय-वासना से युक्त पुरुष को पृथ्वी के सभी यैश्वर्य, धन-धन्य मिलकर भी तृप्त नहीं कर सकते| क्योंकि विषय को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है| जैसे अग्नि में घी डालने पर वह बुझती नहीं है। बल्कि ज्यो-ज्यो घी डालते जाओ त्यों त्यों वह भड़कती जाती है| इसी प्रकार भोगों को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है कम नहीं होती| शरीर बूढा  हो जाने पर भी भोग विलास की इच्छा समाप्त नहीं होती है बल्कि नित्य नई इच्छाएं जागृत हो जाती हैं| जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे शीघ्र ही भोग-वासना की तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए| मैंने हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग किया तथापि दिन प्रतिदिन भोगों की चाहत बढ़ती जा रही है| इसलिए अब मैं इनका त्याग कर ब्रह्म में चित्त लगाकर निर्द्वंद विचरण करूँगा| इस प्रकार महाराज ययाति ने अपनी पत्नी देवयानी को समझाकर पुरु को उसकी जवानी लौटा दिया तथा उससे अपना बुढ़ापा वापस ले लिया|
तदोपरांत उन्होंने अपने पुत्र दुह्यु को दक्षिण-पूर्व की दिशा में तथा यदु को दक्षिण दिशा में व तुर्वसु को पश्चिम दिशा में और अनु को उत्तर दिशा में राजा बना दिया|पुरु को राज सिंहासन पर बिठाकर उसके सब बड़े भईयों को उसके अधीन कर स्वयँ वन को चले गए| वहां जाकर उन्होंने ऐसी आत्म आराधना की जिससे अल्प काल में ही परमात्मा से मिलकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए| देवयानी भी सब राज नियमों से विरक्त होकर भगवान का भजन करते हुए परमात्मा में लीन हो गयी|
महाराज ययाति के पांच पुत्र हुए जिसमे यदु और तुर्वसु महारानी देवयानी के गर्भ से तथा दुह्यु व अनु और पुरु शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न हुए।


 एक अन्य कथानक के अनुसार

                श्री राजराजेश्वर सहस्त्रबाहु महाराज का जन्म चन्द्रवंश की सर्वश्रेठ वंश महाराज हैहय की दसवी पीढ़ी मे कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी रविवासरे के दिन श्रवण नक्षत्र मे प्रात: काल मे हुआ था| जैसा की पहले वर्णित किया गया है, की इनका नाम इनके पिता ने अर्जुन रखा पर पिता के नाम को रोशन करने हेतु इनका नाम कार्तवीर्यअर्जुन पड़ा| स्मृति पुराण के महिस्श्य्माती महतां अध्याय १५ खंड ३ के अनुसार
 कर्तिकस्य्सिते पक्षे सप्त्भ्या भानुवासरे |
श्रवणक्षे निशानाथे निशीचे सुशुभक्षने ||
इअनके गुरु भगवान दतात्रेय के आशीर्वाद से इन्हें सहस्त्रबाहु अर्थात हजारों भुजाओं का बल प्राप्त होने के कारण सहस्त्रबाहु, सहस्त्रार्जुन, हैह्याधिपति, हहय्राज चक्रवर्तीराजराजेश्वर आदि नामो से भी पुराणों, ग्रंथो मे इनका नाम विख्यात है, जैसा कि महाभारत अध्याय ४९ खंड ३५, ३६ व् ३७ के अनुसार
एत्रिम्न्नेव काले तू कृतवीर्यात्म्जो बाली |
अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियों हैहयधिप: ||
दतात्रेय प्रसादेन राजा बाहुसग्स्र्वान |
चक्रवर्ती महातेजा विप्रनाम धर्म्भिके ||
ददौ स पृथ्वी सँवा सप्त्दीपम स्पर्वत्नाम |
स्व्बाहोसव्लेनोजौ जिला परम धर्मवित ||

कर्त्वीयार्जुनो ननं राजा बाहुसस्र्स्वान|
एन सागार्प्यान्ता धनुषा निजिता माहि: ||
महाभारत अध्ययय २ और २६
जिसका अर्थ है की कृतवीर्य अर्जुन ने अपने धनुष की शक्ति से सातो समुद्रों से घिरी इस पृथ्वी के विजय किया, वह कृतवीर्यकर्जुन के नाम से विख्यात हुए|

“राज्याभिषेकके भवतो दतात्रेयो महामुनि:
विश्वकर्म्प्रनित त विमान हादक ददो |
सम्ग्रसाधुनेयुक्त भुवाध्व्योमागानिगम
ततातोभिशेक्म कृतवान सप्त्वाधिसृज्ज्ले||
महाराज कृतवीर्य के राज्याभिषेक के सुबह अवसर पर महामुनि श्री दत्तात्रेय जी ने विश्वकर्मा द्वारा प्रिनीत स्वर्ण का सुंदर विमान महाराज को भेट किया जो कि सर्व्सधानो से यक्त आकाश, पाताल, पृथ्वी आदि मे विचरण के लिए संभव थी, श्री गुरु दत्तात्रेय ने महाराज कृतवीर्यअर्जुन का राज्याभिषेक सातो समुद्रों सप्त नदियों के जल से कियामहभारत, वायुपुराण, मतास्य्पुरान, विविध पौराणिक ग्रंथो आदि मे वर्णित है|
भरतार्जुन माधात भागीरथयुजिस्थर: |
सगरी न्र्हुश्चेय सप्तैने च्क्र्वतिस: ||

श्री राजराजेश्वर सहस्त्रबाहु महाराज को श्रेष्ठ धर्म का ज्ञान उसका रक्षक तथा आदर रखने के कारण उनकी ख्यति सप्त मंडलों प्रथ्वी, आकाश, पर्वत सभी दिशाओं मे फ़ैली, तथा अपने यासश्वी बहुबल और शश्त्र विद्याओ मे निपुण होने के कारण आधे से अधिक पृथ्वी पर जीत हाशिल के थी, जिसे बाद मे अपने इक्षा अनुसार दानवीरता के कारण दान मे दे दी थी, जैसा कि महाभारत अध्याय ४९ खंड ४४ के अनुसार --------
अर्जुन्स्तु महातेजा बाली नित्य श्मात्क: |
ब्रहान्याश्य शर्न्यश्च डाटा सुर्विरयम भारत||

आश्विन मॉस के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को शनिवार के मध्यान्ह में अभिजित नक्षत्र में ययुर चन्द्र वंश के राजा ययाति के प्रपौत्र, "हैहय" नारायण से उत्पन्न हुए। होनहार  कुमार हैहय जब कुछ बड़े हुए, तब उन्होंने अपने पालक पिता श्री तुवार्शु  से आज्ञा प्राप्त की एवं  भगवान् शंकर जी की आराधना में निमग्न हो गए - फलस्वरूप औघड़दानी भगवान् शंकर जी प्रसन्न होकर साक्षात् दर्शन दिए, और हैहय से वरदान मांगने को कहा। तब नम्रिभूत होकर हैहय ने भगवान् शंकर से 2 वरदान की निम्न रूपेण याचना की:
*प्रथम पूर्ण विश्व में एक क्षत्र राज्य 
**हमारी मृत्यु आपके वरद हस्तो में सुरक्षित हो।

           इस प्रकार भगवान् शंकर 2 वरदान, हैहय को एवमस्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गए। उस समय उनके हाथ में त्रिशूल विधमान था। भगवान् शंकर जी के त्रिशूल की महिमा और हैहय की मृत्यु गाथा सुप्रसिद्ध शिव पुराण पंचमी उमा संहिता अध्याय द्वितीय में निम्न प्रकार से वर्णित है:-

On the bright side Pratipada Moss Ashwin at mid-day Saturday Abhijit Nakshatra Yyur Yyati great-grandson of the king of Chandra dynasty, "Haihay" originated from Narayana. When something promising Kumar Haihay grew Was he received from his foster father, Mr.Tuwarshu and become engaged in the worship of Lord Shankar ji- Interview consequently Lord Shankar and appeared pleased, and to seek blessing from Haihay said. Then the Lord Shankar Namribhut Haihay 2 of the following fledged soliciting blessing: -

* The first full state of the world in a region
You're safe in our great hand.
           2 The Lord Shankar blessing, saying amen to Haihay have disappeared. At that time it was Vidhman trident in his hand. Shankar trident of God's glory and the famous story of the death of Hahy Panchami Siva Purana Uma Code Chapter II is described as follows: -


         महान शूरबीर तेजस्वी प्रतापशाली अधिपति हैहय ने भगवान् शंकर जी से वरदान प्राप्त कर विश्व के सभी छोटे-बड़े राज्यों / राजाओ को परास्त कर अत्यधिक प्रसिधि प्राप्त की। उस समय कौशल देश की राजधानी अयोध्या के अधिपति आहुक जो असित नाम से भी प्रख्यात थे, रायज का सञ्चालन कर रहे थे। अकस्मात् हैहय ने विजय प्राप्ति के लिए जब अयोध्या पर चढाई की, तब हैहय की अपराजित सेना को देखकर भय से विह्वल होकर आहुक अपनी सातों रानियों को साथ लेकर प्रच्छन्न रूप से भाग खड़े हुए, और छिपते छिपाते अवरव ऋषि के आश्रम में जा पहुचे। यह आश्रम एक घनघोर जंगल के मध्य में था। हैहय की पहुच से दूर राजा आहुक जब अपने को सुरक्षित समझ कर पुनः विषयों में आसक्त हो, कालयापन करने लगा। दैव योग से राजा आहुक की एक रानी इसी बीच गर्भवती हो गयी। एक होंनहार मेधावी बालक के आगमन का पूर्वाभास ज्ञात कर आश्रमवाशी अत्यंत आह्लादित हुए। परन्तु जहाँ धूप है, वहां छाया भी आती है। आनंद कभी अकेला नहीं आता जाता वह अपने साथ साथ जाते समय शोक भी छोड़ जाता है। तात्पर्य यह है कि जहा आश्रम्वाशी उत्सव में निमग्न थे, वही दूसरी तरफ दुखांत दृश्य की भूमिका तैयार हो रही थी। दुर्दैव से बालक के जन्म से पूर्व ही जनक आहुक परलोक को सिधार गए। यही नहीं बल्कि इर्ष्या और द्वेष की अग्नि में जलती हुयी अन्य 06 रानियों ने मिलकर षड़यंत्र पूर्वक गर्भवती रानी को हलाहल गरल (विष) दे दिया। गरल की तीव्रता , प्रभावोत्पादकता से ब्याकुल रानी अवरव ऋषि की शरण में पहुची।  बाहरी लक्षणों एवं दिव्य दृष्टी से ऋषि ने ज्ञात कर लिया की रानी को विष दिया गया है। अतः उपचार हेतु कमंडल से जल को अभिशिंचित कर रानी को पिला दिया। फलस्वरूप गर्भ सहित गरल गिर गया। यही घटना इस बालक के नाम कारन का मूल कारण बनी, अर्थात वह नवजात शिशु *सगरल* कहलाया, यही शब्द आगे कालांतर में संक्षिप्त होकर * सगर * नाम से बिख्यात हो गया।
Great warrior stunning blessed by Lord Shankar ji Haihay the Lord of the world, small - large states / kings defeated highly famous obtained. At that time, the country's capital of Ayodhya skills Ahuk chiefs who were known by the name Asit, were prevalent in circulation. The ashram was in the middle of a dense forest. Out of reach of Haihay Ahuk king secured his re enamored subjects, began to verification period. Meanwhile the queen of King Ahuk luckily got pregnant. Honnhar presaged the arrival of a gifted child, Ashram Vashi extremely excited to be determined by the ashram. But where is the sun, the shade comes. Do not ever be alone with pleasure when she leaves to mourn too. Implies that where Asrmwashi were immersed in festivities, on the other hand the role of the tragic scene was getting ready. Doom before the child's birth parent Ahuk have passed away to the other world. But envy and malice, was burning in the fire of the other 06 wives plot together naked pregnant girl poison (toxin) given. Intensity of poison, in the shelter of efficacy painful Queen Avrv sage. External symptoms and the sage of sixth sense toxin is known to be the queen. Therefore, to treat the queen with chant drink water from the ewer. Consequently fell poison, including pregnancy. This incident caused the boy's name was the root cause, ie newborn * Sagaral * called, briefly and in passing on the word * name * Sagara was famous.
बालक सगर के  आयुस्क  पर ऋषि ने उसे शास्त्र एवं शस्त्र विद्या में प्रवीण कर दिया। और बालक को संकेत किया की तुम्हारा राजपाट हैहय नरेश ने छीन लिया है। तरुण बीर  सगर का बीरत्व इस प्रसंग को सुनते ही जाग्रत हो गया। अतः तत्क्षण ही धनुष बाण  लेकर हैहय नरेश को युद्ध के लिए ललकारा दोनों तरफ से द्वन्द युद्ध हुआ परन्तु महा पराक्रमी एकाबीर हैहय के समक्ष ठहर न सका। अतः युद्ध के मैदान से सगर पलायन कर गए, और अपने गुरु अवरव ऋषि के शरण में आ गए। और अपनी पराजय का दुखित ब्रत्तांत निवेदित किया। ऋषि ने उन्हें उपाय बताया की श्री भगवान् शंकरजी की तपस्या से प्राप्त वरदान के द्वारा ही हैहय की मृत्यु संभव है।
सगर ने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर घोर तपस्या किया, जिससे प्रसन्न होकर श्री भगवान् शंकर ही ने सागर से वरदान मांगने को कहा तब सगर ने याचना की की बलात मेरे राज्य को हड़प लेने वाले प्रतिद्वनदी  हैहय को मृत्यु का वरदान प्रदान कीजिये। श्री अवघड दानी भोले शंकर जी तथास्तु कहने ही वाले थे, की अकस्मात् उन्हें स्मरण आया की हैहय की मृत्यु तो मेरे हाथो में सुरक्षित है। अर्थात मेरे हाथ में स्थित यह त्रिशूल ही हैहय की मृत्यु का कारन बन सकता है। इस कारण वह त्रिशूल सगर को दे दिया।

Child of him and the Sage ayusk sagar's arms lore chef. and your child have signs stripped of rajput King haha. listen to the context of Tarun sagar Bir bywater as be wakeful. so taking only bow to King ban instantaneously haha to dvand from both sides defied the war but not pause before the mighty General arabic haha. I therefore migrated from battlefield sagar Shelter of his mentor, the Sage and avrav. and its reversal by way dukhit bittorrent invoked God described Mr. Wiseman. Shankar g haha by the austerity of boon's death.
Sagar, guru did penance, whereby subject commanded the atrocious pleased Mr. God, Sankar said seeking the blessing of the sea then sagar has a horde of forcible soliciting to my state of pratidvandi who provide a boon to death haha it. Mr. avghad Dani were only say Amen naive Shankar g, akasmat recalled the death of them came in my hands is safe haha. that is located in my hands it's Trident only haha Common cause of death is the reason she gave to Trident sagar.

त्रिशूल पाकर सगर पुनः युद्ध क्षेत्र में गए और बीर  हैहय नरेश को युद्ध के लिए ललकारा। दोनों महारथियों में घनघोर युद्ध होने लगा मौका पाकर सगर ने भगवान् शंकर जी के वरदानी त्रिशूल को हैहय के वक्ष स्थल पर प्रहार कर संहार किया। इस प्रकार महा पराक्रमी सम्राट हैहय का जन्म और मृत्यु का रहस्य शिव पुराण में लिखा है। Trident in the war zone again and Bir Sagar, Haihay King provoked to war. Sagar banged by two giants began pouring war Vardani trident of Lord Shankar ji, Haihay massacred striking the breast. The Mighty Monarch Haihay Maha Shiva Purana written in the mystery of birth and death.
         इन्ही पुराण पुरुष श्री नारायण पुत्र श्री हैहय की पटरानी का नाम एकावली था। जिन्होंने अपनी पवित्र से धर्मनेत्र  नामक पुत्र रत्न को जन्म दिया। धर्मनेत्र का जन्म स्थान प्रतिस्थानपुर (झूंसी, प्रयाग) है। 
         सम्राट हैहय से होने वाली वंशावली निम्न  तालिका से स्पस्ट रूप से जाना एवं समझा जा सकता है-


These Puranas men named empress ekavali Narayan was the son of Mr. Haihay. Meaning your sacred womb who Dharmnetra pregnant gave birth to a son named Gem. Dharmnetra Pratisthanpur's birthplace (Junsi, Prayag) is.
          The table below records the emperor Haahay be obvious and can be understood as -


1- पुराणों के मतानुसार धर्म्नेत्र एक ही ब्यक्ति का नाम है, जबकि कतिपय इतिहास वेत्ता धर्म और नेत्र इन  दो व्यक्तियों को क्रम्श: पिता और पुत्र सिद्ध करते है।
2-कृतवीर्य के अनुज क्रतौजा, कृतवर्मा, और क्रताग्नी थे। 
1 - Who is the name of one of the Purana's Dharmnetra opinion, while certain history, religion and eye ideologist these two persons: the Father and the Son is proved.
2 - Kritwirya Kratuja's brother, Kritavarma, and were Kratagni.
गान 
रण  उन्मादता में, जब आते हैहय लाल,
                                                 शत्रु दल देख देख, भय से थर्राते है।
अस्त्र शस्त्र  समक्ष में न ख्हते है, प्राण भय ,
                                            शत्रुओ के वार रोक, चुटकी में उड़ाते है।।
मुंड कट जाने पर, रुंड भी न पीछे हटे ,
                                                नगन कृपाण  गह, आगे बढ़  जाते है।
अमर करते पूत, कहानी नवीन नित्य,
                                              मात्रभूमि मांग, पर लहू भर जाते है।।



भगवान् दत्तात्रेय



पूजा -  
               आपका इस्ट देव 'Kartviryarjun', जिसकी सब संसार ने पूजा की है है उसकी आकर्षक उत्साहित मूर्ति पूजा स्थान में स्थापित किया जाना चाहिए और हर सुबह उसे मंत्र के साथ याद रखें और तब आपका दिन शुरू हो यदि आप ऐसा संभव करते हो तो , फिर देखो जो तुम पहन रहे हैं हीरे और माणिक। दिन की शुरूवात अपने आप सभी उत्कृष्ट समाचारो से भरा रहेगा।  

 'ध्यान केंन्द्र' - हल्की धूप और घी तेल के लैंप और मंत्र-

सहस्र भुज मण्डली जीत्तमीचेरणाधिपम, 
हिमांशु  सदृशानानं धृति सहस्रा टोरनिकरम… 
सीताम्बरधरम सदा तुराग्राज मध्यस्थितम्,
स्मरामि भुवन दीपम हृदि तू कार्तवीर्यार्जुनम।
 ओम झम झम हम हम हां हेम हेम स्वाहा…

                       उपरोक्त मंत्र शुद्ध मन, दिल से प्रतिदिन सुबह सुबह ०१ माला जाप करने वाला काम, लोभ, क्रोध, मोह, अहंकार से मुक्ति पा जाता है.


कार्तवीर्य अर्जुन  स्तोत्रम  



यह एक शक्तिशाली स्तोत्र है. जो सामान चोरी हो जाने , गलत हांथो में चले जाने  या  सामग्री को खो दिया है, से उबरने में अथवा पुनः प्राप्त करने के लिए उत्तम  है। कार्तवीर्यअर्जुन, भगवान विष्णु के अवतार होने के कारण वे सदैव सुदर्शन चक्र युक्त हैहयवंश के एक महान चक्रवर्ती सम्राट थे.  नीचे कार्तवीर्यार्जुन स्तोत्रम  गीत का हिंदी अर्थ है...

ओम कार्तवीर्यार्जुनो नमो नमः
राजा बाहु  सहस्रवण
तस्य  स्मरणं  मात्रेण
गतम् नष्टम् च लभ्यते।।

ओम कार्तवीर्यार्जुन को नमस्कार है,

                             राजा, जिनके सहस्त्र हाथ है, मै उन्हें बारम्बार नमस्कार करता हूँ, मेरा प्रिय वस्तु जो खो गया है, उसे बारम्बार याद करता हूँ, काश! वह पुनः मुझे मिल गया होता?

कार्तवीर्यः, कला  द्वेषी , कृतः , वीर्यो  सुतो , बाली,
सहस्र  बाहु , शत्रुघ्नो , रक्तवसा  धनुर्धरा,
रक्त  गन्धो , रक्त  माल्यो , राजा, समर्थुर , अभीष्टदा ,
द्वसाइथानी नमामि  कर्ता  वीर्यस्य या पड़ेथ ,
सम्पद  स्थाठरा  जयंती  जना स्थाठरा वसमगाथा,
आनयथायसु दूर अस्ठं क्षमा  लाभा  युतम्  प्रियं ,
सहस्रा बहुम , महितम् , सासाराम सचापं,
रक्ताम्बरम  वि-विधा  रक्त  किरीट  भूशम ,
चोरधि  दुष्ट  भाया नासनम् , इष्ट  दाँतम ,
ध्यानं महाबाला विजरुम्बिता  कार्तवीर्यं,
यस्य  स्मरणं मात्रेण  सर्व दुख  क्षयो  भवेत् ,
यान नामानि  महावीरश्चार्जुना  कृता वीर्यवान,
हैहयाधी  पाते , स्तोत्रम  सहस्रावृति  करितम् ,
वंचितार्था  प्रधाम  नॄणाम्  स्वराज्यम्  सुकृतं  यदि,


इति  कार्तवीर्यार्जुन  द्वादसानामा स्तोत्रम  सम्पूर्णं।।।।।।। 
श्री कृषणर्पितमस्तु ।
                                   इस प्रकार कार्तवीर्यार्जुन के बारह नामों की प्रार्थना समाप्त होती है
                                   उपरोक्त सब कुछ कृष्ण को दिया जाता है...


                                                                  (लेखक - प्रदीप सिंह तमेर)
                                                                               इलाहाबाद 


   

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