शनिवार, 26 जनवरी 2013

21 - रतनपुर के नरेश व अन्य शिलालेख और 36 गढ़

21 - रतनपुर के व अन्य शिलालेख और 36 गढ़ 
Other shilalekh of Ratanpura and Chhattisgadh

 एविग्राफिका इंडिका खंड 1 पेज 45 के अनुसार यह लेख् नागपुर संग्रहालय में है. यह पृथ्वीदेव III के बारे में लिखा गया है। इसमें वि0स0 1247 (की 1989-90) अंकित है। जाजल्लदेव के पुत्र रतनदेव जिन्होंने चुड़ और गंग वीरो को हराया था, के पुत्र पृथ्वीदेव थे। इस लेख के रचयिता देव गंग थे। यह लेख साम्बा ग्राम शिवमंदिर के निर्माण के अवसर पर लगाया गया था। पृथ्वीदेव III के समय विक्रम संवत 1248 में दिल्ली के सुप्रसिद्ध नरेश पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गोरी का युद्ध हुआ था, जिसका वर्णन इतिहास में दर्ज है। ऐतिहासिक विद्वानों के मतानुसार उस समय मध्य और दक्षिण भारत के करीब 150 राजागण चौहान की सहायतार्थ दिल्ली गए थे। अध्ययन से पता चलता है राठौर और चंदेल चौहान के विपरीत, हैहय और खेतसिंह खंगार आदि राजा इनके पक्ष में थे।
        रतनपुर के हैहय वंशी राजाओ में पृथ्वीदेव I से पृथ्वीदेव III तक विक्रम संवत की 10वी सदी से 12वी सदी की अर्धाली तक अधिक प्रभावशाली राजा महाराजा रहे इनके ही द्वारा छत्तिश्गढ़ (36 गढ़ ) बनवाए गए थे। इसी कारण इस क्षेत्र का नाम छत्तीसगढ़ पड़ गया। छत्तीसगढ़ के पहले इस क्षेत्र को दक्षिण कौशल कहते थे।
According to Section 1, page 45 Avigrafika Indica this lekh is Nagpur Museum. Prithvidev III, has been written about it. The Vikram samvat 1247 (for 1989-90) is marked. Chud and Ganga's son who Ratandev Jajlldev warior was defeated, was the son of Prithvidev. Gang Dev was the author of this article. This article was imposed on Samba Village Temple building. Prithvidev Vikram Era III, in 1248 at Delhi's prestigious King Prithviraj Chauhan and Muhammad Gori was the war, which is described in recorded history. Historical scholarly opinion at that time to help the central and South Delhi, India were 150 Rajagn Chauhan. The study shows Chandel Chauhan Rathore and contrast, etc. Khangar Ketsingh Haihay and King were in their favor.

        
Prithvidev I to III of Ratanpur Haihay Prithvidev Vikram Vamshi era of kings of the 10th century to the 12th century Ardhali are more impressive His Majesty the King Chhattishgadh (36 forts) were built. That has left the field name Chhattisgarh. Skills were called to the area south of Chhattisgarh.

इन 36 गढ़ों के नाम इस प्रकार से है- name are given below-
1- रतनपुर Ratanpur                                                               19- मदनपुर Madanpur
2- मारोगढ़ Marogadh                                                              20- उमरेलो  गढ़  Umrelo Gadh
3- विजयपुर Vijaygadh                                                             21-नया गढ़  Naya Gadh
4- लोणी गढ़ Lonee gadh                                                          22- कन्तुल गढ़  Kantalu Gadh
5- रामगढ़ Ramgadh                                                                 23- कोस्गा गढ़ Kosgaa Gadh
6- रतनगढ़ Ratangadh                                                              24- उप्रोड़ा गढ़ Uproda Gadh
7- तखतपुर takhatpur                                                               25- लाफा गढ़ Laafa Gadh
8- महल्वार् गढ़ Mahalwar gadh                                                26- केदार गढ़ Kedar Gadh
9- नवागढ़ Nawa gadh                                                              27- मातिन गढ़ Maatin Gadh
10- देवरवीजा Devar veeja                                                        28- सोंठी गढ़ Sonthee Gadh
11- पथरिया गढ़ Patharia Gadh                                                 29- ओखर गढ़ Okhar Gadh
12- पड़रभाटा (वतारगढ़) Vataar Gadh                                        30- सेमरिया गढ़ Semaria Gadh
13- मुंगेली Mungeli                                                                     31- कन्डरी गढ़ Kandri Gadh
14- मालदा गढ़ Malda gadh                                                        32- कर्कटी गढ़ Karkati Gadh
15- देवर हाट Devar Hat                                                             33- पेड़रा गढ़ Pendra Gadh
16- खरोद गढ़ Kharod Gadh                                                       34- रामपुर गढ़ Rampur Gadh
17- कोट गढ़ Kot Gadh                                                               35- दुर्ग पाटन Durg Paatan
18- पड़र भट Padar Bhat                                                            36- लवन गढ़ Lavan Gadh
       बाद में उपरोक्त गढ़ो की संख्या बढ़कर 40 हो गई, परन्तु इस क्षेत्र का नाम छत्तीसगढ़ ही बना रहा। 40 After Some times were above the number of the build up, but the name of the region remained Chhattisgarh.
नरेश भानु सिंह देव , नर्शिंह देव, भूमि सिंह देव, आदि (Naresh Bhanu Singh Dev, Narsingh Dev, Bhoomi Singh Dev etc)
आपके शासन काल की अवधि 1257 से 1278 विक्रम संवत रही। आपकी रानियों के नाम पारवती देवी और श्यामा देवी था। 
आपके ज्येष्ठ पुत्र का नाम नरसिंह देव था। आपके पश्चात् रतनपूराधीश नरसिंह देव हुए . नरेश नरसिंह देव का शासन काल 1278 से 1308 तक रहा। बुलपुर सीता कोल के राजा धर्म केतु की पुत्री खौशाल्या देवी से नरसिंह देव का विवाह हुआ था। जिनसे भावसिंह (भूमि सिंह) नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई। भूमि सिंह का शासन काल 1308 से 1333 तक रहा, आपने विक्रम संवत 1308 से शासन किया। आपका विवाह बघेल नरेश की पुत्री जोतकुंवर से हुआ था। जिनसे 2 पुत्र उत्पन्न हुए। प्रताप सिंह देव और लक्ष्मी देव। नरेश प्रताप सिंह देव का शासन काल 1333 से 1376 तक रहा। प्रताप सिंह दे ने अपने छोटे भाई लक्ष्मी देव को खलारी का मंडलेश्वर राजा बनाया। लक्ष्मी देव सिंह ने रायपुर नामक नगर बसाकर अपनी राजधानी बने। इस शाखा का वर्णन आगे किया जायेगा। प्रताप सिंह देव के पश्चात् क्रम्श: जयसिंह देव, धर्मसिंह देव, जगन्नाथ सिंह देव, वीर सिंह देव, कलमल देव, शंकर साय , मोहन साय, दादू साय एवं पुरुसोत्तम साय रतनपुर की गद्दी पर बैठे। इनका कोई महत्वपूर्ण कार्य/घटना न मिलने के कारण विशेष लिख पाना मुश्किल है। अतः केवल नाम दिए गए है। 
                पुरुसोत्तम साय का विवाह राजा गणपति की राजकुमारी सुमित्रा देवी से हुआ, जिसने बहार साय नामक पुत्र को जन्म दिया। आपने अपने जीवन काल में ही अपने बहादुर योग्य पुत्र बहार साय को राज्य की बागडोर सौप दी थी। 

Vikram Era 1278 to 1257 was a period of rule. Brunette Goddess Parwati Devi was the name of your queens.Your eldest son was named Narasimha Deva. After you have Rtnpuradish Narasimha Deva. From 1278 until 1308 during the reign of King Narasimha Deva. Ketu Dharma King Cole's daughter Sita Bulpur Kaushalya Devi was married to Lord Narasimha. Which Bavsinh (ground Singh) got the name of the Son. From 1308 to 1333 during the reign of Singh's land, you Vikrama era ruled from 1308. Was the daughter of King Jotkunvr Baghel your marriage. Which bore two sons. Dev Pratap Singh Deo and Lakshmi. During the reign of King Pratap Singh Deo from 1333 until 1376. Klari Dev Pratap Singh of his younger brother Lakshmi Mondleshhwar king. Dev Singh called Lakshmi Nagar Raipur Bsakr became its capital. The branch will be further described. After Pratap Singh Deo Kramsh: Jai Dev, Dharmsinh Dev, Jagannath Singh Deo, Vir Singh Deo, Klml Dev, Sai Shankar, Mohan Sai, Dadu Purusottm evidence and evidence to the throne of Ratanpur. The important task / event is difficult due to non-specific type. Therefore, only the name is given.

                
Evidence Purusottm Sumitra Devi was the princess married the king Ganapati, who gave birth to a son called out evidence. You brave and worthy son during his lifetime out his hand over the reins of the state gave evidence.

महाराज बहार साय (Maharaj Bahar Saay)
 महाराज बहार साय के सम्बन्ध में 02 शिलालेख मिले हा, जिनके  आधार पर आपका शासन काल 1576 से 1620 विक्रम संवत तक रहा। रतनपुर के शिलालेख जो महामाया मंदिर से प्राप्त है तथा कांसेस प्रोग्रेस रिपोर्ट 1904 के पेज 52 के आधार पर यह शिलालेख महामाया मंदिर के सिंह द्वार के दोनों तरफ अंकित है। एक ओर रतनपुर की तुलना इन्द्रपुरी से की गई है और राजा का वर्णन बहारेन्द्र नाम से संबोधन किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है की बहारेन्द्र राजा बहारसाय ही थे। इन्होने कोस्गैन को अपनी राजधानी बनाया और एक लेख अंकित कराया, जो अब नागपुर के संग्रहालय में है। महामाया मंदिर के दुसरे शिलालेख में  सूत्रधार छिकातु की  स्मृति में है और उसमे संवत 1552 अंकित है। 
Springtime chef evidence regarding inscription found 02 ha, on which you Vikrama era rule in 1620 until 1576. Mahamaya Temple of Ratanpur inscription which is derived from the Kanses progress report of 1904 on page 52 of this inscription is engraved on either side of the entrance Mahamaya Temple Singh. A comparison of the Ratanpur is from Indrapuri Bharendra name and address of the king has been described. It appears Bharendra Bharasay was king. He made ​​his capital, and an article Kosgan Face made​​, which is now in the Museum of Nagpur. Mahamaya Temple facilitator Chikatu second inscription is engraved in the memory of 1552 and in that era.
कोसगैन शिलालेख (Kosgan Shilalekh)
डा0 हीरालाल द्वारा लिखित " डिस्क्रिपतिव लिस्ट्स ऑफ़ इनस्क्रिपसंस इन दी सी0 पि0 एंड बरार" पेज 114 के अनुसार कोस्गैन ग्राम घूरी जमीन्दारी में है, जो बिलासपुर से 60 मील पर है। यह लेख अब नागपुर के संग्रहालय में है। जिस शिलालेख पर यह लेख अंकित है वह अब बहुत घिस गई है। यह लेखो दोनों ओर है परन्तु दोनों भिन्न है। एक लेख में हैहय नरेश राजा बहारेन्द्र की स्तुति लिखी है, उन्होंने पठानों को हराया था, का वर्णन है। बहारेन्द्र शायद बहारसाय का शुद्ध संस्कृत रूप है। बहारसाय संवत 1576 विक्रमी में हुए थे। दूसरे लेख में गौतम राजा का जिक्र किया गया है इनका मंत्री गौरव नाम का था। दोनों लेखो में संवत अंकित थे, परन्तु दुर्भाग्यवश अब वह टूट चूका है। बहार्साय का विवाह ब्रम्हपुर नरेश मदन देव की पुत्री राजकुमारी श्यामा कुमारी से हुआ था। इस प्रकार बहारसाय के संबध में उपरोक्त जानकारी से यह स्पस्ट विदित होता है की पृथ्वी देव त्रित्तीय के पश्चात् हैहय वंश की गौरव गरिमा बढ़ने वाले यही शासक थे। इन्होने अपने बाहुबल से पठान जैसी बलवान कौम को पराजित किया था। आपके पश्चात् युवराज कल्याण साय रतनपुर की गद्दी पर बैठे। 

Written by Dr. Hiralal "lists of descreptive inscriptions in the CP and Berar" according to page 114 ghuri Jmindari Kosgan village, which is 60 miles from Bilaspur. This article is now in the Museum of Nagpur. This article is imprinted on which the inscription is now very worn. The articles on both sides, but both are different. Praise Bharendra Haihay King, King has written an article, he was defeated Pathans, is described. Bharendra probably Baharasay pure Sanskrit. Baharasay Vikram era occurred in 1576. The king has been mentioned in other articles Gautam was named minister glory. Both articles were inscribed in the era, but unfortunately she has now broken. Bramhpur brunette princess married the daughter of King Baharsay Madan Dev Kumari was. Baharasay above information in respect of this type is known, it is obvious after the Earth dev Trittiy Haihay Dynasty ruler's growing pride dignity. He like his power is stronger Pathan tribes were defeated. After the prince to the throne of your welfare Ratanpur evidence.

महाराजा कल्याणसाय और जहाँगीरनामा 
(Maharaja Kalyaan Saay and Jahangeer namaa)
कल्याण साय की रानी का नाम भावना देवी था। कल्याण साय की बड़ी रानी से लक्षमण साय बनाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, आपके 2 दीवान थे, बाबू रामसहाय लाल जेमिन गोत्री एवं वीर गोपाल राव। 
         जहाँगीरनामा के अनुसार कल्याण साय 08 वर्ष तक दिल्ली में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के पास रहे। आपके साथ इनके दीवान गोपाल राव वीर भी थे। गोपाल राव दीवान ने दिल्ली में अपनी वीरता का परिचय दिया था, जिसका पमारा गीत आज भी यहाँ के (रतनपुर) देवार (36 गढ़िये चारण) लोग ढुंन्ग्रू (बाजा) बजाकर गाया करते है। पं0 श्री लोचन प्रसाद तिवारी जी ने देवरों के पमारा गीत की ऐतिहासिकता के बारे में लिखा है की देवार छत्तीसगढ़ की एक चारण जाती ढुगरु बाद्य पर इस गीत को गाया करती है। हैहय वंशी राजा कल्याण साय दिल्ली गए थे, जिनके साथ गोपाल राव, मल्ल भी गया था। इस गोपाल राव की गीत में काफी प्रशंसा की गई है। 
         जहाँगीरनामा से भी यह बात स्पस्ट होती है उसमे लिखा है की " पच्चीस खुरदाद शनिवार" अषाढ़ सुदी 4 संवत 1676 को सुलतान परवेज के साथ इलाहाबाद से आकर रतनपुर नरेश कल्याण साय ने चौरवट चूमने की प्रथा पाई। यही बात पमारा गीत की निम्न पंक्ति में स्पस्ट होती है-
  घूर पंचमी मानिस राजा डेरा उसलगे 
जेठ महिना दिल्ली पहुचिस छाय रहिस आषाढ़ 

अर्थात - घूर पंचमी, जेठ चैत्र का उत्सव् मनाकर राजा कल्याण साय ने रतनपुर से प्रस्थान किया, जेठ में राजा दिल्ली पहुचे और आषाढ़ के महिना में वहां मौजूद थे। इन पंक्तियों की पुस्ती जहाँगीरनामा से इस प्रकार होती है।

Divine spirit was being named Queen of evidence. Evidence vs. Evidence of welfare Lakshman son of the queen, you were Diwan 2, Babu Rao Gopal Ramshay red Zemin Gotri and heroic.

         
According to the evidence being Jahagirnama Mughal emperor Jahangir were in Delhi for 08 years. Diwan Gopal Rao was brave of them with you. Diwan Gopal Rao had showed their mettle in Delhi, which Pamara song still here (Ratanpur) Dewar (36 Gdie BARD) people Dunngru (banjo) playing is rendered. Mr. Lochan Prasad Tiwari Ji Pan's Devron Dewar Pamara song is written about the historicity of Chhattisgarh is a bard who sang the song on Dugru Bady. Evidence Delhi Hahy descent were being king, with whom Gopal Rao, Malla was also. The Gopal Rao has been praised in song.

         
It is also obvious Jahagirnama wrote of him, "Twenty-five Khurdad Saturday" Ashadh Sudi 4, 1676 Sultan era ruler Pervez Ratanpur come from Allahabad, with evidence of being able to practice kissing Chaurvt. That is obvious in the following line of the song Pamara -

                                                      
घूर पंचमी मानिस राजा डेरा उसलगे 
जेठ महिना दिल्ली पहुचिस छाय रहिस आषाढ़

Ie - Staring Panchami, brother-in-law of Chaitra Utsw Welfare evidence after the king's departure from Ratanpur, brother of the King of Delhi Reach and ashadh were there in months. Thus these lines are Jhaँgirnama Pusti.
" दुनी बैठे बाच्छराज जेकर बेटा शाहजहाँ"
इससे राजा कल्याण साय का दिल्ली जाना जहाँगीर के समय में दिद्ध होता है। राज कल्याण साय का दिल्ली प्रस्थान जहाँगीर के समय में हुआ होगा। इसकी पुसटी "वश" वाले देवार् गीत से होती है-
राजा बोले कल्याण साय भावानामती माता।
तोर हुकुम ला पाते तो बच्छाय की सेवा में जोतब।।
बाच्छाय बैठे है जेकर बीटा शाहजहाँ . 
बाच्छाय के वीरान बैठे नेगी "बहादुर खान।।
वीरन बहादुर नेगी के बीटा डब्बल खान। 
बाच्छाय के गुरु जहाँ है दलीला मलिला।।
रानी बोले भवनामती की बाबू दिल्ली आगरा जहाँ जाव।
बाच्छाय बड जनम धरे है दिल्ली चढ़े कमान।।
छै महिना ले सेवा करै तो तख्ताला करे सलाम।
वर्ष दिन ले सेवा करे तो बाच्छाय लाकरै सलाम।।
एक निकरे दसे दशहरा घूर पंचमी एक।
बरस भर में दू पैत बाच्छाय बहिराय।।
तिल तिल औ बाल बाल दनी झुकोवत है।
हिन्दू के बाना ला वो दिल्ली में लावेगा।।
गाय गोस खाना ले, "कलमा"पढवाव़े जवान।
कान चीर मुंदरी पहिरावे कर मुगलानी भेस।।
हन्दू के बाना ला वो दिल्ली में बोरत है।
ते कारण ले राजा मत दिल्ली नहीं जाव जी।।
देवार लोगों के गीत में बाधेगढ़े मुकाम।
शहर कहाइस "रीजा " भाई गदहर "बाघौ "नाम,,
वेन विक्रम वारा भाई बधेला बैठे एक मदनसिंह लाल।।
उपरोक्त बसहा  गीत से सिद्ध हो जाता है की राजा कल्याण साय दिल्ली अवश्य ही गए होगे। बसहा गीत में भासांतर के कारण कुछ शब्द स्पस्ट नहीं होते है। पर गीत से यह स्पस्ट हो जाता है की कल्याण साय जेकर वेटा शाहजहाँ अर्थात जहाँगीर के शासनावधि में अवश्य ही दिल्ली में रहे। इससे यह भी स्पस्ट होता है की रानी भाव्नामती राजा को कुछ कारणों से दिल्ली जाने को मना भी करती है। राजा कल्याण साय दिल्ली जाने के पूर्व बांधौगढ़ पर भी गए थे, जिसका वर्णन ऊपर दिया गया है। बंधौगढ़ नरेश विक्रमाजीत ने बसाले दरबार में मुजरा किया। इससे प्रसन्न होकर बादशाह ने उसके समस्त अपराध क्षमा कर दिए। पमारा गीतों की ऐतिहासिकता अनेक बातो से सिद्ध होती है। देवार लोगो के गीतों में गोपाल राव के वारे में कहा गया है----

बेटा बाजन में मर्द गोपल्ला, मर्द गोपल्ला राय 
दूध पियाईस रानी भवाना , जनो जमुना कोख 
सटी सूरमा नारी पुरुष भये, पन्मेसर अवतार 
हो हो वंश कल्याण साय की होवे जय जय कार 
उपरोक्त वर्णन के आधार पर हैहय वंशी राजा कल्याण साय का साथी गोपाल राव था, जिसकी माता का नाम जमुना एवं पिटा का नाम माधव साय था। परन्तु गीत से ऐसा प्रतीत होता है की गोपाल साय  को जन्म तो जमुना ने दिया है पर लालन पोषण राजमाता भाव्नामती ने किया है। गोपाल साय  बहुत ही अधिक शक्तिशाली था उसके सम्बन्ध में जहाँगीर नामा की कुछ ऐतिहासिक घटनाएं नीचे लिखे अनुसार है-
राज कल्याण साय अपनी पत्नी से दिल्ली जाने की आज्ञा मागते है तो उन्होंने कहा की गोपाल साय  के नगर की भलाई एवं रक्षा हेतु छोड़ जाना, पर कूच की तैयारी होने पर राजा के साथ गोपाल साय  एवं अनेक राजा नवागढ़ के ठाकुर लखीम चन्द्र, मरकाम गौंड, कबन्धी के मोह्पत्रव, पडरिया के ठाकुर सूरज देवान, अमदा मोहदा के भागीरथी दुबे जो कांख से नारियल फोड़ते थे। गवां में सुपारी (गवां -2 अँगुलियों के बीच की जगह को कहते है) फोरते थे, घुटकू के चन्द वाह, अन्न बताई, बरतोरी के आनंद पटेल, खवाना के अधरिया आदि राजा साथ में थे।
राजा केदा, पेंड्रा होते हुए बंधौगढ़ (रीवां) अपने समधी विक्रमाजीत के यहाँ पहुचे। बाघेला राजा ने अपने समधी का अच्छा स्वागत सत्कार किया। वहां पर गोपाल राव ने बांधौगढ़ के नरसिंह एक ब्याघ्र को मार कर वहा की प्रजा को बहुत प्रसन्न किया। वह से वे सब गंगा स्नान करते हुए जेठ के महीने में पहले आगरा फिर दिल्ली दरबार में पहुचे, वहां राजा वर्षात भर रहे। गोपाल राव की आगरा के एक मोदी से अनबन हो गई जिससे उसकी दूकान लूटकर गोपाल राव ने गरीबो में बाँट दी। उसकी शिकायत आने पर राजा ने अपने पुत्र लक्षमण साय को समझाने हेतु भेजा तथा गोपाल राव को भी समझाया। कुछ समय बाद गोपाल राव ने शाही अखाड़े के गुरु को भी पछाड़ दिया एवं दरी बांध तालाब से होता हुआ पन्हारिनो के बताये हुए रस्ते से आकार वह ठहर गया जाना से राजा का हाथी पानी पीने जीता था। जब हाथी पानी पीने आया तो उसने उसे भी पछाड़ दिया इसका प्रतिफल यह हुआ की बादशाह ने राजा कल्याण साय और उसके 22 नेगी तथा 18 लालों को नजर कैद कर लिया। परन्तु गोपाल राव वह से शाही दरबार के मुख्या दरवाजे को तोड़ता हुआ दरबार में पंहुचा, उसके पहुचने पर दरबार में खलबली मच गई। बादशाह उसके शारीरिक गठन को देखकर दंग रह गए तथा बादशाह ने अपने शाही पहलवान से कुश्ती कराइ, वह भी गोपाल राव से हार गया। इससे खुश होकर बादशाह ने राजा कल्याण साय सहित सभी साथियों को नजर कैद से रिहा किया। एवं छत्तीसगढ़ (18 गढ़ रायपुर और 18 गढ़ रतनपुर) का लगान कल्याण साय को लेने का हुक्म दे दिया। साथ ही साथ गोपाल राव को 02 ग्राम (ब्रिर्हान्पुर एवं हरदीपुर) भी पुरसकार में दे दिए, गोपाल राव ने इसी समय पर बादशाह के 22 राज्यों के कैदी, जिसमे से 2 हिन्दू राजाओं की भी रिहाई कराई, जिससे गोपाल राव को " बंदी छोर" का नाम मिला। साथ ही साथ कल्याण साय सहित सभी साथियों को अपनी राजधानी वापिस आने की आज्ञा भी बादशाह ने दी।
              यदपि हैहय वंश में अनेक प्रतापी शासक हुए, परन्तु कल्याण साय ही एक ऐसा शासक था, जिसने दिल्ली में जाकर अपनी प्रतिभा को एवं अपने पूर्वजो के नाम को स्थापित करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की। दिल्ली से लौटने के बाद इन्होने कल्याणपुर नामक नगर बसाया, आपके समय की राज्य व्यवस्था सम्बन्धी एक पुस्तक में सेना का विवरण निम्नानुसार है--
           तलवार चलाने  वाले 2000, खंजर चलाने वाले 5000, बंदूकची 3600, तीरंदाज 2600, घुड़सवार 1000, हाथी 116, घोड़े 1000 
राज कल्याण साय की सैनिक शक्ति एवं वीर गोपाल राव की बहादुरी इस बात को स्पस्ट करती है की कयां साय का समय "हैहय नरेशो" में बहुत ही गौरयमई एवं उन्नतिशील रहा है।कल्याण साय के पश्चात् रतनपुर की गद्दी पर उनका पुत्र लक्ष्मण साय बैठा।
नरेश लक्षमण साय, नरेश त्रिभुवन साय, नरेश जगमोहन साय, नरेश रणजीत साय, नरेश तख्तसिंह, राजा राजसिंह आदि 
नरेश लक्षण साय का शासन काल विक्रम संवत 1662 से 1676 तक रहा। आपका विवाह चंद्रपुर नरेश सुदरसन देव की राजकुमारी के साथ हुआ, वैसे आपके बारह विवाह हुए, परन्तु बड़ी रानी धोपकुंवारी से शंकर साय नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। आपने अपने पिटा कल्याण साय की कीर्ति गौरव को बनाये रखा और 14 वर्ष तक राज्य किया। और अपने युवराज शंकर साय को शासनाधिकारी घोषित कर विक्रम संवत 1676 को स्वर्वासी हो गए। नरेश त्रिभुवन साय का शासन काल 1708 से 1716 तक रहा आपकी सबसे बड़ी रानी संबलपुर नरेश मुकुंद साय की राजकुमारी बिमलादेवी थी, इसके अतिरिक्त आपकी 05 रानिया और थी। आपने बस्तर और बंगाल आदि राज्यों को परास्त कर अपने राज्य में मिलाकर बिस्तार किया। आपने अपने समय में हैहय वंश के वैभव और प्रतिस्ठा रुपी डूबते हुए सूरज को उज्जवल बनाए रखा। नरेश जगमोहन साय धमतरी, बालौदा और नए रायपुर को खूब सजाया एवं उनका चौमुखी विकास किया आपने किला और कई सुन्दर भवनों का निर्माण कराया आपकी मृत्यु के पश्चात् युवराज जगमोहन से पदासीन हुए। आपका विवाह बस्तर नरेश राज दिव्य देव की राजकुमारी ज्योति कुंवरी से हुआ। जिनसे अदली साय नामक पुत्र हुआ। आपने सिंहपुर नगर बसाकर वह सुन्दर सरोवर एवं मंदिर बनवाया तथा मंदिर में मालवी देवी की स्थापना की, आपने विक्रम संवत 1716 से 1717 तक शासन किया। आपके स्वर्गारोहण के बाद युवराज अदली साय पदासीन हुए। आपका शासन काल विक्रम स्वत 1723 तक रहा। आपके पश्चात् युवराज रणजीत साय ने शासन संभाला। (अदली साय और अदिति साय एक ही है) नरेश रणजीत साय का विवाह चंदेल नरेश की राजकुमारी कमलादेवी से हुआ, आपकी 04 रानिया थे, जिनमे सबसे बड़ी कमलादेवी ही थी। शेष 3 रानिय चौहान राजाओ की राजकुमारिया थी, आपके 4 पुत्र हुए जिनके नाम तख्तसिंह , बखतसिंह , मेरुसिंह और रघुनाथ सिंह थे। आपके समय में ही इस वंश के राजो के नाम के अंत में साह/साय के स्थान पर सिंह शब्द का प्रयोग होने लगा। नरेश तख्तसिंह का शासनकाल विक्रम संवत 1732 से 1746 तक रहा। इनका विवाह संबल नरेश दुर्जन देव की राजकुमारी सोन कुंवारी से हुआ, आपके पुत्र का नाम राजसिंह था, आपने तखतपुर नामक नगर बसाकर वहां किला बनवाया जिनके खंडहर आज भी मौजूद है। शासन की सुविधा हेतु विक्रम संवत 1333 के लगभग प्रतापसिंह ने अपने अनुज लक्ष्मीदेव को रायपुर को उपराजधानी बनाकर वहां का शासक बना दिया था। हैहय वंश में तख़्त सिंह के समकालीन रायपुर राजधानी में भी मेरु सिंह राजा हुए, जिन्हें " योगेन्द्रनाथ शील " ने उमेदसिंह का नाम दिया था। इस समय तक हैहय वंश की दोनों राजधानियो का शासन प्रबंध एक ही रहा, परन्तु तख़्त सिंह के समय में मन मुटाव हो जाने से इन दोनों राज्यों का बँटवारा हुआ, बँटवारा श्री नरसिंह देव जू द्वारा संपन्न हुआ, बंटवारे का विवरण एक पत्र के रूप में पाया गया है इससे उस काल की भाषा शैली का ज्ञान होता है।


पत्र की नक़ल 
श्री कृष्ण कारी कान्हा विजय सखा स्वस्ति महाराजाधिराज श्री राजा श्री श्री तख्त सिंह देव राजे रतनपुर योग्य स्वस्ति श्री महाराज कुमार राजा श्री मेरुसिंह देव भाई प्रतिलिखित अस जो तुम्हारे कई राज कई बतार दीन्हे मध्यस्थ पञ्च राजा श्री नरसिंह देव आदि कई सो जगह बाँट दीन्हे सेवा राज गादी कई सलाह सरई की परम्परा कह निवाहि देने जथा योग विदा जगह।

रायपुर - ग्राम - 640
राजिम - ग्राम - 084
दुरुग - ग्राम - 084
पाटन - ग्राम - 152
खलारी - ग्राम - 084
सिरपुर - ग्राम - 084
लवन - ग्राम - 252

यह परिगन सात सात भोग करी कई वर्त वुक करत जाऊ, सही कार्तिक सुदी 5 संवत 1745 सही रामधार देवान कई तथा बाबू राम साय देवान कई।
                                               (मुंदरी मुहर)

इस हस्तलेख पत्र से पता चलता है की रतनपुर में भी इसी प्रकार के सात परगने होंगे, जिनमे 1289करीब  ग्रामो की संख्या रही होगी।

राजा राजसिंह का शासन काल 1746 से 1777 तक रहा इनकी 3 रानिया थी, सुवंशा कुँवरी, दिव्य कुंवारी, एवं कजरा देवी 3 किन्तु रानियों के बीच एक पुत्र था जिसका नाम विश्वनाथ सिंह था, विश्व्नाथ सिंह का विवाह बघेल नरेश मनमोहन सिंह की पुत्री के साथ हुआ था, राजसिंह के 3 भाई और थे, मोहन सिंह, सरदार सिंह और रघुनाथ सिंह। राजसिंह विद्वानों और कवियों का बहुत आदर करते थे। इनके आश्रय में रहकर "गोपाल कवी" व् उनके पुत्र माखन ने " खूब तमाशा" नामक नीति सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा है तथा भक्त चिंतामणि, जैमन अश्वमेघ, रामप्रताप, सुदामा चरित्र, छंद विलास आदि में सुन्दर कविताओं की रचना की है।

राज सिंह ने रतनपुर के पूर्वी भाग को उन्नत किया एवं रस भाग का नाम " राजपुर" रखा, एक सुन्दर महल भी बनवाया, कजरा देवी के नाम पर कजरा सागर नामक सरोवर का निर्माण कराया। विक्रम संवत 1767 में एक अघटित घटना घटी। राजसिंह के पुत्र विश्वनाथ सिंह की मृत्यु, राजसिंह के राज्यकाल में ही हो गई। दूसरी घटना 1777 में जब इनके भाई मोहन सिंह शिकार खेलने गए थे, उस समय एक दिन राजा राजसिंह घोड़े पर सवार हो सैर कर रहे थे अचानक महाराज राज सिंह घोड़े पर से गिर पड़े, उन्हें प्राण घातक चोट आई और राजसिंह स्वर्गवासी हो गए। मोहनसिंह घर पर नहीं थे, इसलिए राज्य का भार सरदार सिंह को सौंप दिया गया। मोहनसिंह के रतनपुर लौटने पर यह बात मोहनसिंह को अच्छी नहीं लगी। इसके मन में रागद्वेष की ज्वाला भड़क उठी। विधि विधान वश कुछ समय बाद सरदारसिंह की मृत्यु हो जाने के पश्चात शासन की बागडोर रघुनाथ सिंह के हाथ में आई। रागद्वेष से घडके हुए मोहन सिंह मराठा सरदारों से जाकर मिल गए। रतनपुर की शक्ति बंटवारे से वैसे ही कम हो गई थी किन्तु उपरोक्त घटना आपसी रागद्वेष से और भी अधिक क्षीण हो गयी, विक्रम संवत 1797 में महाराज रघुनाथ सिंह बीमार हुए उसी समय मराठा सरदार सेनापति भास्कर पन्त ने रतनपुर पर चढाई कर दी। रघुनाथ सिंह की रानी ने परिस्थिति ठीक न समझकर (पराधीनता सूचक) सफ़ेद झंडा किले पर फहरा कर संधि के लिए किले के फाटक खोल दिए। किन्तु मराठा सेनापति ने नियम के विप्तीत अनुचित व्यवहार किया और लाखो की संपत्ति लूट ले गए। मोहनसिंह जो पहले ही मराठों के राज रघु से मिल गए थे, रतनपुर की गद्द्दी मराठो द्वारा पुनः मिली। 13 वर्षो बाद रघु जी के भाई बिम्बा जी ने मोहनसिंह की मृत्यु के बाद रतनपुर को पुनः अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार हैहय नरेशो का सूर्य रतनपुर से अस्त हो गया। किन्तु मोहनसिंह की काली करतूत हमेशा ही हैहय वंशियो के ह्रदय में खात्करी रहेगी। 

" गरम मिजाज में भी, दया कुछ रहती है 
आगी की आग लिहाज कुछ करती है 
वचना बड़ा मुश्किल है ठन्डे पानी वालो से 
पानी की बनी विद्युत् दया नहीं करती है।  
"

       

                       रतनपुर की पहचान


कांसेके बर्तनों को रतनपुरिहा ब्रांड देकर पिछले 60 वर्षों से रामानुज कसेर अपने पुरखों से विरासत में मिले ‘नेर शिल्प’ को आगे बढ़ा रहे हैं। इसे वे नई पीढ़ी के युवाओं को सिखा रहे हैं ताकि रतनपुर की पहचान बन चुकी यह कला जीवित रह सके। 

रामानुज कसेर ने बताया उनके यहां यह काम चार पीढ़ियों से किया जा रहा है। उनके पूर्वज मोहन साव दो सौ साल पहले उत्तरप्रदेश से आकर यहां बस गए थे। उन्हें तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने पुरस्कृत भी किया था। उन्हीं की तीसरी पीढ़ी में प्रहलाद कसेर हुए, जो रामानुज के पिता थे। उन्हीं से यह कला रामानुज को मिली। रामानुज ने बताया पहले मिट्‌टी का सांचा तैयार कर उस पर मोम का लेप चढ़ाया जाता है इस सांचे में पीछे छेद होता है इसमें से एक खास तापमान पर पिघले हुआ कांसा धीरे-धीरे सांचे में डाला जाता है। फिर इसे ठंडा होने दिया जाता है। फिर मिट्‌टी तोड़कर बर्तन को फाइल कुंद से खराद कर ब्रासो से चमकाया जाता है। इस तकनीक से मनचाहे आकार-प्रकार डिजाइन के बर्तन बनाए जा सकते हैं। 

आजभी है बर्तनों की मांग: बाजारमें भले ही स्टील के बर्तनों का बोलबाला हो पर नेर कांसे के बर्तनों की मांग कम नहीं हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में अाज भी कांसे के बर्तन चलन में हैं। हालांकि अब ये बर्तन महंगे हो गए हैं। रामानुज ने बताया जब उन्होंने काम शुरू किया था तब कांसा 10 रुपए किलो था, आज यह 9 सौ रुपए किलो है। इसी तरह 5 रुपए का मोम 250 रुपए किलो हो गया है। इसलिए बर्तनों का लागत मूल्य भी बढ़ा है। चांदीके बर्तन भी बनाए: रामानुजने बताया केंदा, मातिम लाफा के जमींदार उनके पूर्वजों से चांदी के बर्तन बनवाते थे। जमींदार चांदी भेज देते थे इसकी ढ़लाई कर लोटा, गिलास, थाली, फूलदान, कटोरी इत्रदान बनाया जाता था। 

बर्तन भेंट करने की परंपरा 

शासकीयकार्यक्रमों में आज भी रतनपुर में बने कांसे के बर्तन अतिथियों को भेंट दिए जाते हैं। 3 फरवरी को मेला उद्घाटन के दौरान मंत्री अमर अग्रवाल को विधायक डॉ. रेणु जोगी को भी रतनपुरिहा लोटा भेंट में दिया गया था। 

क्या है नेर शिल्प 

नेरशिल्प बर्तन बनाने की खास कला है। नेर एक संयुक्त धातु है इसमें जस्ता तांबा मिला होता है। इससे बटुअा, खलबट्‌टा, आरती, घंटा जैसी चीजें बनाई जाती हैं। कांसे मेंे तांबा रांगा मिला होता है इससे थाली, लोटा, गिलास, कटोरी, प्लेट, मंजीरा बनाया जाता है। रामानुज कसेर इन दोनों धातुओं से बर्तन बना रहे हैं। 

प्रसिद्ध हैं रतनपुरिहा बर्तन 

रतनपुरके इतिहास में कसेर जाति का महत्वपूर्ण स्थान है। कसेरपारा निवासी 75 वर्षीय रामानुज कसेर ‘नेर’ कांसे के बर्तन बनाने में माहिर है। उन्होंने 60 सालों में नेर कांसे के बर्तनों को रतनपुरिहा ब्रांड देकर इसे प्रसिद्धि दिलाई है। जब स्टील के बर्तनों का चलन नहीं था उस जमाने में रतनपुर मेले के माध्यम से रामानुज इनके भाई रामकृष्ण कसेर द्वारा बनाया गया कांसे का हाथी पांव कटोरा, नासकी लोटा, कुंभकर्णी लोटा, मंडलहा लोटा, धतूराफूल गिलास, गुटका गिलास गांवों से लेकर सुदूरवर्ती इलाके तक पहुंच रहे थे। अभी चल रहे रतनपुर मेले में ‘रतनपुरिहा बर्तनों’ की खूब मांग है। यहां तक कि जो दुकानदार बाहर से बने बर्तन लेकर आए हैं वे भी उसे ‘रतनपुरिहा कांसे का बर्तन’ कहकर बेच रहे हैं। आज भी नेर कांसे के बर्तन बाजार में रतनपुरिहा ब्रांड चल रहा है। 

15 घरों में थे कारीगर 

पहलेकसेरपारा के 15 घरों में नेर कांसे के बर्तन बनाए जाते थे, ये सभी एक ही परिवार से जुड़े थे। ये सभी मोहन साव के नेर शिल्प को आगे बढ़ाने में जुटे थे। वर्तमान में रामानुज कसेर इस परंपरा की अंतिम कड़ी हैं। उनका कहना है कि युवा पीढ़ी जातीय पेशे को छोड़कर दूसरे व्यवसाय को अपना रही है जबकि वे युवाओं को इस कला को सिखाने के लिए तत्पर हैं। उनकी इच्छा है कि रतनपुर की यह खास नेर शिल्प आगे भी घरों की शाेभा बढ़ाए। उनका मानना है कि इस कला को बचाने के लिए शासन को चाहिए कि शिल्पकारों को प्रोत्साहित करे। इसके लिए कार्यशाला आयोजित की जाए। कला गुरुओं को वजीफा दिया जाए। 








PraDeep Singh Tamer

(मिलिए फेसबुक पर)

*****************************************अगला_राजधानी खलारी एवं रायपुर 


शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

20 - प्राचीन शिलालेखो के आधार Based on ancient inscriptions

पेज 20--------------
कुगदा का टूटा-फूटा लेख 
इंडियन एंटीक्वेरी जिल्द 20 के पेज 84 और कनिगहम की आर्कोलोजिकल\रिपोर्ट जिल्द 7 के पेज 211 के अनुसार प्रथ्वी देव द्वित्तीय का शासन काल कलचुरी संवत 893 अंकित है (जो कि विक्रम संवत 1199 होता है) लेख के अनुसार कलचुरी लाछल देवी, रतनदेव और बल्लभ्राज शब्द आये है, अतिम दोनों नाम रतनपुर नरेशों के है। इन दोनों शिलालेखो से पृथ्वी देव द्वित्तीय का शासन काल 1199 से 1222 तक रहा है। 
              महमदपुर, अकलतारा और कुग्दा के लेखो में बल्लभ राज का नाम भी आया है, परन्तु आपके सम्बन्ध में निश्चित नहीं कहा जा सकता है की आपका सम्बन्ध किस राजघराने से था। 

Kugda's broken-erupted articles

Indian entikveri kanigham archaeological of bookbinding 20 page 84 and interlace 7 page report according to 211 \0 prathvi dev II sanvat kalchuri period ruled 892 face (which is sanvat Vikram 1199) according to articles ratnadev and ballabhraj Word kalchuri lachal goddess, come, atim is both name nasrin ratnapura. both these shilalekho ruled the Earth until the second period from 1204 1199 dev.
Mahmadpur, Raj ballabh elettrica and kugda in the name of the texts prepared through, but not fixed in your relationship can be said what he enjoys your relationship.

महामद का शिलालेख 
इंडियन एंटीक्वेरी जिल्द 20 के पेज 85, कोन्सेन प्रोग्रेस रिपोर्ट 1904 पेज 50  बिलासपुर जिला गजेटिएर पेज 255 के अनुसार यह शिलालेख बिलासपुर के प्राचीन खंडहरों में पाया गया था महामदपुर बिलासपुर से 17 मील की दूरी पर स्थित एक ग्राम है। यह लेख सरलता से नहीं पढ़ा जा सकता है। पर इसे डा0 कील हार्न ने पढ़ा और लिखते है की तुम्मड प्रदेश के जाजल्लदेव एक प्रतापी राजा हुए। आपके उत्तराधिकारी राजा रतनदेव और उनके पृथ्वीदेव हुए। आगे बल्ल्भराज और पृथ्वीदेव द्वित्तीय का नाम आता है, पृथ्वीदेव द्वित्तीय का शायद एक छोटा भाई अकाल देव था, जिसके नाम पर अकलतारा नामक ग्राम बसाया गया। यह ग्राम महामदपुर से 02 मील दूर है।
                 उपरोक्त शिलालेख के वर्णन से यह अनुमानित होता है, की राजा पृथ्वीदेव द्वित्तीय, रतनदेव एवं जाजल्लदेव बहुत ही अधिक प्रतापी राजा और शासक रहे थे। यदि कहा जाये की उपर्युक्त प्रतापी राजाओं के समय पर रतनपुर राज्य अपनी चरम उन्नति की सीमा पर रहा होगा तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

Mahamad's inscription

Indian entikveri page 85, 20 progress report bookbinding konsen district BILASPUR 1904 page 50 page 255 in accordance gajetier inscription was found in the ancient ruins of BILASPUR mahamdapur BILASPUR a village 17 miles. This article simply cannot be read. it is read and write by Dr. nail honk tummad jajalladev of a majestic King ratnadev King and his successor, your next ballbharaj prithvidev. And the name of the second prithvidev, prithvidev II was a younger brother of dev, probably named after the famine called village was resettled elettrica this village mahamdapur from 02 miles away.
The inscription above the description of it is anticipated, King prithvidev II, ratnadev and jajalladev were very more majestic as King and ruler of the majestic Kings mentioned above if at the time of said ratnapura is on the border of the State, its extreme advancement is not a superlative.

शिलालेख मल्हार 
एपिग्रफिका इंडिका खंड 1 पेज 39 के अनुसार यह लेख नागपुर के संग्रहालय में रखा हुआ है। मल्हार अथवा मल्लार बिलासपुर के दक्षिण में सोहल मील पर एक ग्राम है। यहाँ प्राचीन मंधियो के अनेक खंडहर और लेख विद्दमान है। यह लेख उन सब शिलालेखो से सबसे अधिक महत्वपूर्ण हा। यह चेदि संवत 917 (सन 1167-68  इ0) का है एवं महाराज जाजल्लदेव से सम्बंधित है। इस प्रकार जाजल्लदेव द्वित्तीय का शासन काल विक्रम संवत 1222 से आरम्भ होता है।
              इस लेख के अनुसार मल्लार नगर में केदारनाथ मंदिर की स्थापना हुई। उसकी स्थापना पं0 गंगाधर ने की, जो मध्य प्रदेश में कुम्भटी के रहने वाले थे। वे तुम्मड़ में रहने लगे एवं चुडागेगं के पराजित होने के समय महाराज रतनदेव से कुंस्भी नामक ग्राम प्राप्त किया। रतनदेव के पुत्र प्रिथ्वीदेव और उनके पुत्र जाजल्लदेव हुए। कुंसभी आधुनिक में कुंसडीह है।
Inscription mahler


According to epigraphic Indica volume 1 page 39 this article kept in the Museum of Nagpur. mahler or miller South of a village BILASPUR Sohal miles. here is the ancient ruins of mandhiyo and articles viddaman. This article most of them all shilalekho it HA sanvat significant chedi 917 (Sun 1173-68 E0) & Maharaj jajalladev is associated with the rule of the jajalladev II period. Vikram sanvat 1222 to start from.
According to this article in kedarnath temple city, miller was founded by her installation in Madhya Pradesh, PT. kumbhati Gangadhar, who were living in chudagegan of tummad began and they defeated ratnadev kunsbhi of time is called the chef's village., son of prithvidev and his son ratnadev jajalladev. kunsabhi kunsadih in modern.

शिलालेख खरोद 
इंडियन एंटीक्वेरी खंड 12 के पेज 82 कनिगहम की आर्कलोजिकल रिपोर्ट खंड 7 के पेज 201 तथा खंड 17 के पेज 43 सेन्सस प्रोग्रेस रिपोर्ट 1904 पेज 53 के अनुसार खरोद बिलासपुर से 37 मील दूर पर स्थित है। यह लेख लखनेश्वर के मंदिर में जड़ा हुआ है। उसमे वंश परंपरा रतनदेव त्रित्तीय तक दी हुई है। 

               खरौद, महानदी के किनारे बिलासपुर से 64 कि. मी., जांजगीर-चांपा जिला मुख्यालय से 55 कि. मी., कोरबा से 105 कि. मी., राजधानी रायपुर से बलौदाबाजार होकर 120 कि. मी. और रायगढ़ से सारंगढ़ होकर 108 कि. मी. और शिवरीनारायण से मात्र 02 कि. मी. की दूरी पर बसा एक नगर है। शैव परम्परा यहां स्थित लक्ष्मणेश्वर महादेव और शैव मठ से स्पष्ट परिलक्षित होता है। जबकि शिवरीनारायण वैष्णव मठ, नारायण मंदिर और चतुर्भुजी मूर्तियों के कारण वैष्णव परम्परा का द्योतक है। संभवत: इसी कारण खरौद और शिवरीनारायण को क्रमश: शिवाकांक्षी और विष्णुकांक्षी कहा जाता है और इसकी तुलना भुवनेश्वर के लिंगराज और पुरी के जगन्नाथ मंदिर से की जाती है। प्राचीन काल में ज्रगन्नाथ पुरी जाने का रास्ता खरौद और शिवरीनारायण से होकर जाता था। भगवान जगन्नाथ को शिवरीनारायण से ही पुरी ले जाने की बात कही जाती है। इसी प्रकार यहां सतयुग और त्रेतायुग में मतंग ऋषि के गुरूकुल आश्रम होने की जानकारी मिलती है। शबरी यहां रहकर निर्वासित जीवन व्यतीत की और उनके जूठे बेर भगवान श्रीराम और लक्ष्मण यहीं खाये थे ... उनका उद्धार करके उनकी मंशानुरूप शबरीनारायण नगर बसाकर उनकी स्मृति को चिरस्थायी बना गए थे।
          ऐसे पतित पावन नगर में पिकनिक जाने का पिछले दिनों प्रोग्राम बना। कॉलेज के छात्र-छात्राओं का विशेष आग्रह था कि मैं उनके साथ अवश्य चलूं। वे सब मेरे लेखकीय दृष्टि का लाभ उठाना चाहते थे। मैं भी खुश था, पिकनिक का पिकनिक और तीर्थयात्रा, यानी एक पंथ दो काज ..। खरौद, चांपा से 65 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। हमने वहां बस से जाने का निर्णय किया। सबका मन बड़ा प्रसन्न था। निर्धारित तिथि में हम खरौद के लिए रवाना हुए। रास्ता बहुत खराब होने के कारण हमारी बस हिचकोले खाती हुई धीरे धीरे चल रही थी .. दूर से सेंचुरी सीमेंट और रेमंड सीमेंट (अब लाफार्ज सीमेंट) फैक्टरी से धुआं उगलती चिमनियां दिखाई दे रही थी। मैंने विद्यार्थियों को बताया कि राजगांगपुर (उड़ीसा) से राजनांदगांव तक चूने की खान हैं और सीमेंट उद्योग के लिए उपयुक्त हैं। अब तक कई सीमेंट फैक्टरियां लग चुकी हैं और आगे भी लगने की संभावनाएं हैं। फिर भी सीेमेंट यहां मंहगी मिलती है। चिमनियों के धुओं से वायुमंडल प्रदूषित होता है और धुंआ जब नीचे आकर पेड़ों की पित्तयों और खेतों में गिरकर परत जमा लेती हैं तो पेड़-पौधे मर जाते हैं और खेत बंजर हो जाती है। इसकी किसे चिंता है ? औद्यौगिक क्रांति आयेगी तो अपने साथ कुछ बुराईयां तो लायेंगी ही। खैर, थोड़ी देरी में हम पामगढ़ पहुंचे। सड़क से ही लगा गढ़ के अवशेष दिखाई देता है-तीन तरफ खाई और उसमें पानी भरा था। विद्यार्थियों की उत्सुकता गढ़ देखकर ही शांत हुई। रास्ते में मेंहदी के सिद्ध बीर बजरंगबली के दर्शन किये। रास्ते में ही राहौद और धरदेई के तालाबनुमा प्राचीन खाईयों को देखते हुए खरौद के मुहाने पर पहुंचे। दूर से महानदी का चौड़ा पाट देखकर विद्यार्थी खुशी से चिल्ला उठे- सर, देखिये नदी। मैंने उन्हें बताया कि हम खरौद की सीमा में प्रवेश कर रहे हैं। देखो, इस नदी में शिवनाथ और जोंक नदी आकर मिलती हैं और त्रिधारा संगम बनाती है। विद्यार्थी बड़े प्रसन्न थे तभी हमारी बस सड़क किनारे स्थित जल संसाधन विभाग के निरीक्षण गृह में झटके के साथ रूकी। सभी वहां हाथ-मुंह धोकर नास्ता किये और मंदिर दर्शन करने निकल पड़े। एक-डेढ़ किण् मीण् की दूरी पर अत्यंत प्राचीन शबरी मंदिर है। ईंट से बना पूर्वाभिमुख इस मंदिर को ``सौराइन दाई`` का मंदिर भी कहा जाता है। मंदिर के गर्भगृह में श्रीराम और लक्ष्मण धनुष बाण लिये विराजमान हैं। पुजारी ने बताया कि श्रीराम और लक्ष्मण जी शबरी के जूठे बेर यही खाये थे। द्वार पर एक अर्द्धनारीश्वर की टूटी मूर्ति रखी है। मूर्ति के चेहरे पर सिंदूर मल दिया गया है जिससे अर्द्धनारीश्वर का स्वरूप स्पष्ट दिखाई नहीं देता। लोग श्रद्धावश किसी भी मूर्ति में जल चढ़ाने लगते हैं जिससे उसका क्षरण होने लगता है। इस मूर्ति की भी यही स्थिति है। मंदिर से लगा मिट्टी से बना एक गढ़ है जिसमें दशहरा के दिन प्रदर्शन होता है, जिसे गढ़ भेदन कहा जाता है। पुरातत्व विभाग द्वारा पूरा मंदिर परिसर को घेर दिया गया है। पास में ही हरिशंकर तालाब और उसमें बैरागियों की समाधि है।
          स्कंद पुराण के उत्कल खंड में वर्णन मिलता है कि पुरी में वहां के राजा ने एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया तब उसमें मूर्ति स्थापना की समस्या आयी। देव संयोग से आकाशवाणी हुई कि दक्षिण पश्चिम दिशा में चित्रोत्पला-गंगा के तट पर सिंदूरगिरि में रोहिणी कुंड के निकट स्थित मूर्ति को लाकर यहां स्थापना करो। उस काल में खरौद क्षेत्र में शबरों का अधिपत्य था। जरा नाम के शबर का उल्लेख स्कंद पुराण में मिलता है। शबरी इसी कुल की थी जिसके जूठे बेर श्रीराम और लक्ष्मण ने खाये थे। द्वापर युग के उत्तरार्द्ध में श्रीकृष्ण की मृत्यु जरा नाम के शबर के तीर से हो जाती है। तब उनके अधजले मृत शरीर को इसी क्षेत्र में लाकर रोहिणी कुंड के किनारे रखकर नित्य उसकी पूजा अर्चना करने लगा। आगे चलकर उन्हें अनेक प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हुई। प्राचीन काल में इस क्षेत्र में तांत्रिकों के प्रभाव का पता चलता है और ऐसा प्रतीत होता है कि जरा भी तंत्र मंत्र की सिद्धि इस मूर्ति के सामने बैठकर करता था। स्कंद पुराण के अनुसार पुरी के राजपुरोहित विद्यापति ने छल से इस मूर्ति को पुरी ले जाकर उस मंदिर में स्थापित करा दिया था। लेकिन डॉ. जे. पी. सिंहदेव ने ``कल्ट ऑफ जगन्नाथ`` में लिखा है कि `सिंदूरगिरि से मूर्ति को पुरी ले जानेवाले विद्यापति नहीं थे बल्कि उसे ले जाने वाले प्रसिद्ध तांत्रिक इंद्रभूति थे। उन्होंने इस मूर्ति को ले जाकर संबलपुर की पहाड़ी में स्थित संभल गुफा में रखकर तंत्र मंत्र की सिद्धि करता था। यहां उन्होंने अनेक तांत्रिक पुस्तकों का लेखन किया। उन्होंने तिब्बत में लामा सम्प्रदाय की स्थापना भी की। प्राप्त जानकारी के अनुसार इंद्रभूति की तीन पीढ़ियों ने यहां तंत्र मंत्र की सिद्धि की और चौथी पीढ़ी के वंशजों ने उसे पुरी ले जाकर उस मंदिर में भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित कर दिया। जगन्नाथ पुरी और खरौद-शिवरीनारायण क्षेत्र में तांत्रिकों के प्रभाव का उल्लेख मिलता है। शिवरीनारायण में तांत्रिकों के गुरू नगफड़ा और कनफड़ा की मूर्ति तथा नगर के बाहर कनफड़ा गुफा की उपस्थिति इस तथ्य की पुष्टि करता है। खरौद के दक्षिण द्वार पर स्थित `शबरी मंदिर` और सौंरापारा इसके प्रमाण माने जा सकते हैं। सौंरा जाति अपने को शबरों का वंशज मानती है। प्राचीन साहित्य में ``रोहिणी कुंड`` को एक धाम बताया गया है :-

Inscription kharod

Volume 12 page 82 kanigham Indian entikveri archaelogical report volume 7 of page 198 and section 17-page progress report according to the 1904 page 53 43 sensas kharod is located 37 miles away from BILASPUR. This article lakhneshvar in the Temple of ratnadev dynasty in the starry. trittiya has given up.
Krud, 64 km from Bilaspur bank of Mahanadi. M., Janjgir - Chanpa 55 km from the district headquarters. M., 105 km from Korba. M., Bludabajar and 120 km from state capital Raipur. M. And Sarngdh from Raigarh and 108. M. And only 02 km from Shivrinarayan. M. Is located at a distance of a city. Shaiva tradition Mahadev Lcshmneshwar located here and is reflected by the Saivite monastery. While Shivrinarayan Vaishnava monasteries, Narayan Temple and the Vaishnava tradition represents Cturbhuji sculptures. Probably why Krud and Shivrinarayan respectively compared to Shivakankshi and Vishnukankshi called Lingaraj in Bhubaneswar and Puri Jagannath temple is. In ancient times and Shivrinarayan Jrgnnath Krud was on the way to Puri. From the Shivrinarayan Puri Jagannath is said to have taken. Similarly, in the Golden Age and Tretayug Mtng Rishi Ashram Gurukul to get information. Sabari stay, spent in exile and their stale plum Lord Ram and Laxman ate here ... And deliver them to their Mnshanurup Sbrinarayan city Bsakr His memory was enduring.
Such retrograde holy city picnic to go past making programs. College students - students of a particular request that I had with them must move now. All my writing sight avail wanted. I was happy, picnic picnic and pilgrimage, ie kill two birds with one stone ... Krud, Chanpa from 65. M. The walk. We go there just decided to leave. Everyone's mood was pleased. The date we Krud left for. Way too bad because we just rumble-tumble slowly been .. From Century Cement and Raymond Cement (now Lafarge Cement) factory smoke spews chimneys visible was. I have students that Rajagangpur (Orissa) from Rajnandgaon to the lime mine and the cement industry are suitable for. Yet many cement factories touched even further to take potential. Still Siement the expensive things. Fireplaces fumes from the atmosphere polluted and smoke when you come down the trees Pittyon and Used lower layer deposition takes the vegetation die and farm waste is. Its who cares? Industrial revolution come with him some harm, then bring the same. Well, for a while we Pamgdh arrived. The road was a stronghold remains visible - three on the ditch and the water was full. Students eagerly stronghold seeing calmed down. In the way of henna proven lager Bajrangbali have worshiped. In the same way Rahud and Dhardei the Talabnuma ancient trenches Given Krud the mouth arrived. From Mahanadi wide span seeing students happily cried - Sir, you see the river. I told them we Krud limits are entered. Look, the river Shivnath and Leech River come meet and fifth confluence manufactures. Student large were pleased when our bus road located along the Water Resources Department Inspection Home with shock stopped. All the hand - mouth wash breakfast in and to visit the temple rushed. One - half Kin Min walk very ancient Sabari temple. Made of brick East, the temple `` Surain Dai `` temple is called. Temple sanctum Ram and Laxman bow arrows for seated. The priest said that Ram and Laxman G Sabari's stale plum that ate. At the entrance a ardh broken statue is kept. Statue's face vermilion stool has the ardh pattern clearly visible. People Sraddhavs any statue burned offerings seem that the corrosion starts. The statue is the case. Temple was composed of clay is a bastion which Dussehra day performance is the stronghold penetration is called. Archaeology Department entire temple complex is surrounded. Nearby Harishankar pond and the Bairagis is the tomb.
Incidentally, the voice from heaven that God Citrotpla south-west - on the banks of the Ganges near Sindurgiri Rohini Kund sculpture installation by bringing me here. At that time it was ruled by Sbron Krud area. Just mention the name Skanda Purana Sbr get. Sabari was the total of the Ram and Laxman ate stale plum. Just the name of the latter's death in Dwapara Yuga Sbr Krishna is the arrow. His half-burnt dead bodies brought into the area by the side of this pool continual Rohini started her obeisance. He has accomplished further variety. According to the Skanda Purana Puri Puri Rajpurohit Vidyapati the maneuver by moving the statue was made in the temple. But Dr. J.. P. Sinha wrote that the `` `` `cult of Jagannath Puri statue of Sindurgiri Vidyapati was not going to take the lead but it was the famous tantric Indrbhuti. He brought the statue of a hill located in Sambalpur accomplishment of mantras was carefully placed in the cave. He authored several books on the occult. He also established community Lama in Tibet. According to information received by three generations of Indrbhuti and fourth-generation descendants of the accomplishment of the mantras take him to the temple of Lord Jagannatha in Puri established. Jagannath Puri and Krud - Shivrinarayan allude to the impact of the innocent. In the Tantric guru Shivrinarayan Knfdha Ngfdha and the presence of the statue of the city outside the cave Knfdha confirms this fact. Located at the south entrance of the temple `and` Sabari Krud Sunrapara evidence can be considered. Sunra Sbron descendant of the race holds. `` `` Rohini Kund in ancient literature has pointed to a dwelling -

          रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर
          बंदरी से नारी भई, कंचन होत शरीर।
          जो कोई नर जाइके, दरशन करे वही धाम
          बटु सिंह दरशन करी, पाये पद निर्वाण।।
          इस मंदिर को देखकर हमें बहुत अच्छा लगा। अब हम नगर के पश्चिम दिशा में स्थित लक्ष्मणेश्वर महादेव के मंदिर की ओर बढ़े। मंदिर भव्य और आकर्षक है। मंदिर के द्वार पर पुरातत्व विभाग का एक बोर्ड लगा है जिसमें मंदिर का निर्माण आठवीं शताब्दी में इंद्रबल के पुत्र ईशानदेव के द्वारा कराये जाने का उल्लेख है। यहां स्थित शिलालेख के अनुसार इस मंदिर का जीर्णोद्धार रत्नपुर के कलचुरि राजा खड्गदेव ने कराया था। इस मंदिर में भगवान महावीर की मूर्ति देखने को मिली। मंदिर के प्रवेश द्वार के उभय पाश्र्व में कलाकृति से सुसज्जित दो पाषाण स्तंभ है। इनमें से एक स्तंभ में रावण द्वारा कैलासोत्तालन तथा अर्द्धनारीश्वर के दृश्य अंकित है। इसी प्रकार दूसरे स्तंभ में श्रीराम चरित्र से सम्बंधित दृश्य जैसे बाली वध, श्रीराम सुग्रीव मित्रता के अलावा शिव तांडव और सामान्य जन जीवन से सम्बंधित एक बालक के साथ स्त्री-पुरूष और एक दंडधारी पुरूष की मूर्ति है। उसके पाश्र्व में नारी प्रतिमा है। गर्भगृह में लक्ष्मण के द्वारा स्थापित ``लक्ष्मणेश्वर महादेव`` का पार्थिव लिंग है। इस अद्भूत लिंग के बारे में पता चलता है कि लंका विजय के उपरांत लक्ष्मण के उपर ब्रह्महत्या का पाप लगाया गया और इसकी मुक्ति के लिए उन्हें चारोंधाम की यात्रा करने और वहां के अभिमंत्रित जल से शिवलिंग की स्थापना करने की सलाह दी गयी। लक्ष्मण ने चारोंधाम की यात्रा की। जगन्नाथ पुरी से लौटकर उन्होंने गुप्तधाम शिवरीनारायण की यात्रा की। यहां चित्रोत्पला गंगा में स्नान कर आगे बढ़ते ही उन्हें क्षय रोग हो गया। आकाशवाणी हुई कि शिव आराधना से उन्हें क्षय रोग से मुक्ति मिल सकती है। उनकी आराधना से शिवजी प्रसन्न हुये और उन्हें दर्शन देकर पार्थिव लिंग स्थापित करने को कहा। तब उन्होंने यहां इस अद्भूत शिवलिंग की स्थापना की और क्षयरोग से मुक्ति पायी। इस शिवलिंग को ``लक्ष्मणेश्वर महादेव`` कहा गया। आज भी क्षयरोग निवारणाय लक्ष्मणेश्वर दर्शनम् प्रसिद्ध है। उनके दर्शन करके हमें लगा कि हमारा जीवन कृतार्थ हो गया। पुजारी ने हमें बताया कि यहां लखेसर (एक लाख साबूत चांवल) चढ़ाने का रिवाज है। इससे मनौतियां पूरी होती हैं। We're glad to see the temple. Located on the west side of the city Lcshmneshwar Now we move to the temple of Lord Shiva. The temple is magnificent and attractive. Board of the Department of Archaeology at the entrance of the temple, which temple Indrabl in the eighth century by the son Ishandev mention be made. Here, according to the inscription of the temple renovated Ratnpur Klchuri Kdgdev was commissioned by the king. The temple was seen the statue of Lord Mahavira. Pasrw common entrance of the temple with two stone pillars in the artwork. Kailasottaln by Ravana in one column and the ardh scenes. The second column refers to the character in the scene such as Bali slaughter Ram, Ram Sugriva than friendship and the public life associated with Shiva Tandava woman with a child - man and man is the statue of a sceptred. Woman statue in his Pasrw. Founded by Laxman Mahadev `` `` Lcshmneshwar sanctum of terrestrial penis. Laxman Charondham traveled. Guptdham Shivrinarayan he returned from a visit to Jagannath Puri. Moving Citrotpla bath in the Ganga, he has tuberculosis. Shiva Worship voice from heaven that can get rid of them from TB. His worship pleased Shiva appeared to them and asked to establish terrestrial gender. He then established a Shivling and the stupendous found freedom from tuberculosis. The Shiva lingam `` `` Lcshmneshwar stated. Tuberculosis is still famous Niwarnay Lcshmneshwar Drshnm. We felt that our life was succeeded by his philosophy. The priest told us Lkesr (whole Chanvl a million), it's customary to offer. This Mnautian are met. 
          पवित्र मन लिए जब हम मंदिर से बाहर आये तब हमें प्राचीन गढ़ के अवशेष देखने को मिला जिसका अंतिम छोर माझापारा तक जाता है। यहां पर ईंट से बना अति प्राचीन पश्चिमाभिमुख इंदलदेव का मंदिर है। उत्कृष्ट मूर्तिकला से सुसज्जित इस मंदिर के गर्भगृह में कोई मूर्ति नहीं है। मंदिर की दीवारों में पेड़ पौधे उग आये हैं। यह मंदिर केंद्रीय पुरातत्व संस्थान के संरक्षण में है लेकिन उचित देखरेख के अभाव में मंदिर जीर्ण शीर्ण हो गया है। दोपहर होने को आयी और हमारे पेट में चूहे दौड़ने लगे। सभी विद्यार्थी पुन: निरीक्षण गृह में आकर खाना खाये। लक्ष्मणेश्वर मंदिर से लौटते समय संस्कृति प्रचार केंद्र में विक्रम संवत् 2042, ज्येष्ठ शुक्ल 10 गंगा दशहरा के पावन पर्व के दिन शिव के आठ तत्वों के समिष्ट रूप ``अष्टमुख शिव`` और पांच मुख वाले अनुमान की प्रतिमा के दर्शन हुए। भारत में मंदसौर के बाद खरौद में स्थापित अष्टमुख शिव की यह प्रतिमा अद्वितीय, अनुपम और दर्शनीय है। संस्कृति प्रचार केंद्र के संचालक डॉ. नन्हेप्रसाद द्विवेदी हैं। पूरे छत्तीसगढ़ में संस्कृत भाषा के प्रचार प्रसार में यह संस्था लगी है। डॉ. द्विवेदी के द्वारा लिखित ``खरौद परिचय`` में खरौद नामकरण के बारे में लक्ष्मणेश्वर मंदिर के शिलालेख के 30 वें लाइन में लिखा है। इसके अनुसार महाराजा खड्गदेव ने भूतभर्ता शिव के इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया जो केवल मंडप मात्र था। यह घटना इस ग्राम के लिए ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। खड्गदेव शब्द में खड्ग का अपभ्रंश खरग तथा देव का अपभ्रंश ओद बना प्रतीत होता है। ``ग`` वर्ग के लोप हो जाने तथा `खर` और `ओद` के मिलने से ``खरौद`` शब्द की सिद्धि होती है। इस प्रकार खड्गदेव का बिगड़ा रूप खरौद हुआ ऐसा प्रतीत होता है। Holy mind when we came out of the temple, then we got to see the remains of the ancient citadel, whose ultimate end is to Majapara. It is made of brick temple of ancient western Indldev. Equipped with excellent sculpture is no idol in the sanctum sanctorum of the temple. Plant trees grow in the walls of the temple is here. This temple is under the patronage of the Central Institute of Archaeology, but in the absence of proper supervision temple has crumbled. It's nearly noon and our stomachs began running in the rat. All students rechecking having dinner here at home. Lcshmneshwar culture promotion center Vikram Samvat 2042 while returning from the temple, the holy festival of Dussehra eldest Shukla 10 days Shiv Ganga Smisht eight elements and five as `` `` Ashtmuk Shiva statue appeared in front of the estimates. Krud after India in Mandsaur Ashtmuk Shiva statue unique, unique and worth visiting. Culture media center's director, Dr. Nnheprasad Dwivedi. In Chhattisgarh, the whole organization is engaged in promoting Sanskrit language. Krud `` `` Introduction written by Dr. Dwivedi about naming the Krud Lcshmneshwar temple inscription written in the 30th line. Accordingly, the Maharaja Kdgdev Bhutbrta Shiva temple pavilion was merely only be restored. It is extremely important historical event for the village. Kdgdev Krg corruption of the word and the sword Od tends to be a corruption of God. `` C `` class `purchase` and `Od` disappeared, and the merging of the fulfillment of the word `` is `` Krud. This type of Kdgdev Krud impaired is as it appears.
          खरौद, छत्तीसगढ़ का एक गढ़ भी रहा है। इसे ``खरौदराज`` भी कहा जाता था। यहां के गढ़ाधीश के रूप में पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र का उल्लेख मिलता है जो कोटगढ़ के भी गढ़ाधीश थे। हमें बताया गया कि सन् 1835 में सोनाखान के जमींदार वीर नारायण सिंह ने उनके परिवार को समूल नष्ट करने का प्रयास किया था। मगर उस कुल के बीज को अपने गर्भ में लिए एक महिला किसी तरह बचकर कोटगढ़ आ गयी और मिसिर परिवार का वंश नष्ट होने से बच गया। आगे चलकर उनका परिवार कसडोल में निवास करने लगा। Kharaud, a bastion of Chhattisgarh too. "it was called ' kharaudraj '. gadhadhish as Pandit jvalaprasad Mishra of the here mentioned were also the kotgadh get gadhadhish. we were told that in 1774, the landowner of the Vir Narayan Singh sonakhan in his family tried to delete groups. but the total seed in your womb came a woman not having some kind of kotgadh and messier family dynasty The horizon was later saved his family residence in the kasdol.
          खरौद, कलचुरी कालीन गढ़ था। कलचुरी वंश के पतन के बाद मराठा वंश के शासक इसे ``परगना`` बना दिया। उस समय इस परगना में अकलतरा, खोखरा, नवागढ़, जांजगीर और किकिरदा के 459 गांव सिम्मलित था। ब्रिट्रिश काल में तहसील मुख्यालय सन् 1861 से 1891 तक शिवरीनारायण में था और फिर जांजगीर ले जाया गया। इसके बाद खरौद उपेक्षित होता चला गया। हमें लोगों ने बताया कि यहां के श्री परसराम भारद्वाज ने सारंगढ़ लोकसभा क्षेत्र का पांच बार प्रतिनिधित्व किया है। लेकिन हमारी उनसे भेंट नहीं हो सकी। Kharaud, kalchuri dynasty kalchuri carpet after the fall of the Citadel was 18 Maratha's descendants ruling made it "at the time" the Parganas. aklatra, khokhra, navagadh, janjagir in Parganas and checkered simmalit village of tehsil in 465 was headquartered in 1861 the britrish. 1891 up and then moved to janjagir in shivrinarayan. after kharaud went ignored. we told here by Mr. parsaram bhardwaj sarangarh Lok Sabha constituency represented five times But not offering them to us.
          संध्या होने को आयी और मेरा लेखक मन जैसे सबको समेट लेना चाहता था। मैंने सबको समझाया कि दो-ढाई कि. मी. पर सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक नगर शिवरीनारायण है, वहां वोटिंग का भी मजा लिया जाये उसके बाद वहां भगवान नारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, मां अन्नपूर्णा और चंद्रचूढ़ तथा महेश्वर महादेव के दर्शन भी कर लिया जाये। मेरी बात मानकर सभी शिवरीनारायण रवाना हो गये। वहां महानदी का मुहाना और बोटिंग का मजा लेकर सभी प्रसन्न मन से भगवानों के दर्शन किये और वापसी के लिए तैयार हो गये। मेरा लेखक मन भूतभर्ता भगवान लक्ष्मणेश्वर का आभारी रहेगा जिनके बुलावे पर खरौद जाने का संयोग बना और यहां के बारे में लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया। मुझे पंडित मालिकराम भोगहा कृत ``श्री शबरीनारायण माहात्म्य`` पढ़ने को मिला जिसके पांचवें अध्याय के 95-96 श्लोक में लक्ष्मण जी श्रीरामचंद्रजी से कहते हैं :- हे नाथ ! मेरी एक इच्छा है उसे आप पूरी करें तो बड़ी कृपा होगी कि इहां रावध के वध हेतु ``लक्ष्मणेश्वर महादेव`` थापना आप अपने हाथ कर देते तो उत्तम होता :-
Came to be evening and I wanted to gather all of the authors mind. I explained to everyone that the two - half that. M. Shivrinarayan the famous cultural city, there voting then there should also enjoyed Lord Narayana, Ram Lakshman Janaki, mother Annapurna and Mahadev Maheshwar Chandracudh and philosophy should be. I have obeyed all Shivrinarayan off. The Mahanadi delta and enjoy boating have worshiped the gods of all the happy mind and agreed to return. I would be grateful to the authors mind Bhutbrta Lcshmneshwar God who made the call at the chance to go Krud and prompted me to write about. `` `` Mr. Sbrinarayan significance Bhogha integrated Pt Malikaram I had read the fifth chapter in verses 95-96 g Sriramchandrji Laxman says: - Hey Nath!
          रावण के वध हेतु करि चहे चलन रघुनाथ
          वीर लखन बोले भई मैं चलिहौं तुव साथ।।
          वह रावण के मारन कारन किये प्रयोग यथाविधि हम।
          सो अब इहां थापि लखनेश्वर करें जाइ वध दुष्ट अधम।।
   यह सुन श्रीरामचंद्रजी ने बड़े 2 मुनियों को बुलवाकर शबरीनारायण के ईशान कोण में वेद विहित संस्कार कर लक्ष्मणेश्वर महादेव की थापना की :- By shriramchandraji hear shabrinarayan 2 ishan angle of Munis summoned by canonical establishment of ved lakshmaneshvar mahadev Temple:-
          यह सुनि रामचंद्रजी बड़े 2 मुनि लिये बुलाय।
          लखनेश्वर ईशान कोण में वेद विहित थापे तहां जाय।। 97 ।।
          ...और अनंतर अपर लिंग रघुनाथ। थापना किये अपने हाथ।
          पाइके मुनिगण के आदेश। चले लक्ष्मण ले दूसर देश।।
          अर्थात एक दूसरा लिंग श्रीरामचंद्रजी अपने नाम से अपने ही हाथ स्थापित किये, जो अब तक गर्भगृह के बाहर पूजित हैं। आंचलिक कवि श्री तुलाराम गोपाल अपनी पुस्तक ``शिवरीनारायण और सात देवालय`` में इस मंदिर की महिमा का बखान किया है:- That is a second penis shriramchandraji your name in their own hand, which installed so far outside the Sanctum sanctorum pujit. zonal poet Sri tularam Gopal in his book '' the seven '' shivrinarayan and glory of the temple Fane of discernment:-
          सदा आज की तिथि में आकर यहां जो मुझे गाये।
          लाख बेल के पत्र, लाख चांवल जो मुझे चढ़ाये।।
          एवमस्तु! तेरे कृतित्वके क्रम को रखे जारी।
          दूर करूंगा उनके दुख, भय, क्लेश, शोक संसारी।।
          अन्यान्य दुर्लभ मूर्तियों से युक्त मंदिरों, तालाबों और प्राचीन गढ़ी के अलावा धार्मिकता और ऐतिहासिक महत्ता के बावजूद यह नगर उपेक्षित है। महाशिवरात्री और सावन में यहां दर्शनार्थियों की भीड़ होती है मगर प्र्रदेश के पर्यटन नक्शे में यह नगर अभी तक नहीं आ सका है। इतनी जानकारी के बाद हमारा मन प्रफुिल्लत था। हमारी बस वापसी के चल पड़ी और मेरा मन बटुकसिंह चौहान के गीत को गुनगुनाने लगा :- Anyanya containing rare sculptures in addition to ponds and ancient temples, the historical importance of piety and crafted this neglected city. maharashivaratri and darshanarthiyon, but here is the multitude of sawan prradesh tours of the town in a map could not yet. so after our mind on our bus had to return praphuillat. and my mind began to COO about batuksinh Chauhan lyrics
          जो जाये स्नान करि, महानदी गंग के तीर।
          लखनेश्वर दर्शन करि, कंचन होत शरीर।
          सिंदूरगिरि के बीच में, लखनेश्वर भगवान
          दर्शन तिनको जो करे, पावे परम पद धाम।।
            लेख के अनुसार हैहय वंश में एक राजा के अठारह पुत्र थे। उनमे एक का नाम कलिंग था। उनके पुत्र कमल थे जो तुम्मड़ के राजा हुए। उनके पुत्र रतनदेव प्रथम हुए और उनके बाद पृथ्वीदेव प्रथम उनसे जाजल्लदेव प्रथम जिसने स्वर्णपुर नरेश भुजबल को परास्त किया। जाजल्लदेव द्वित्तीय के पुत्र रतनदेव द्वित्तीय हुए जिन्होंने कलिंगराज चुडागंग को हराया। रतनदेव द्वित्तीय के पुत्र पृथ्वीदेव द्वित्तीय हुए। 
              जाजल्लदेव द्वित्तीय का विवाह सोमला देवी से हुआ और उनसे रतनदेव त्रित्तीय हुए। इन्ही रतनदेव त्रितीय के समय में यह लेख अंकित किया गया, हिसमे चेदि स्वत 933 (118-82 ईस्वी ) अंकित है। रतनदेव त्रित्तीय ने खरोद और रतनपुर के मंडप बनवाए। उन्होंने पोराथा में एक शिव मंदिर का निर्माण कराया। इन्होने नारायणपुर में सदावर्त स्थापित किया। वहां एक उद्यान एवं उसुवा में एक तालाब का निर्माण कराया।
               खरोद के दक्षिण पश्चिम  की ओर 20 मील नारायणपुर है और उत्तर पूर्व की ओर 20 मील पर परोथा है। वन्वोदा आधुनिक बालौदा है जो की खरोद से 5 मील दूर पर स्थित है। बलौदा में पुराने मंदिरों के चिन्ह है। उसुवा ग्राम का अब तक पता नहीं है।
                भारतीय इतिहास की रूप रेखा पेज 219 में कन्नौज के गहड़वाल  नरेश गोविन्द चन्द्र ने कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये। 
                उपरोक्त शिलालेख (मल्हार) में वर्णित चुडागेंग के सम्बन्ध में (भारत की नई कहानी) लेखक ईश्वरी प्रसाद, इलाहाबाद सन 1939 पेज 151 में यह वर्णन भी मिला है। की कलिंग देश का राजा अनन्तवर्मन (चोंड गंग) सन 1076 संवत 1133 में गद्दी पर बैठा था। इसके वंशजो का सासन 1384 इसवी तक रहा।  According to the article were eighteen a King in the lineage son haha. each a name was tummad which were Kalinga King of his son Kamal. his son after them first and ratnadev prithvidev first svarnapur first jajalladev from which the King jajalladev II of defeating bhujbal ratnadev II, who respectively. kalingaraj ratnadev II prithvidev son of the chudagang. II.

Jajalladev II of ratnadev and trittiya from the goddess somla. these "ratnadev III at the time of this article got hammered, hisme chedi auto 922 (118-82 ad) ratnadev, trittiya face.. ratnapura kharod and Pavilion he built a Shiva temple in poratha. inhone naraynapur sadavart in usuva a garden there. and build a pond.
Kharod is 20 miles South on the West side of naraynapur and North East 20 miles on the modern balauda winwood parotha. 5 miles of kharod. balauda usuva old temples in the village signs. know by now.
Outlines of the history of India page 219 gahdaval King of kannauj belt in Govind Chandra diplomatic affiliate.
The above inscription (mahler) correlation of the chudageng described in (India's new story) writer aishwarya, Allahabad in February 1939 page 151 description of the King of Kalinga country also. environnement (chond gang) was sitting on the cushion in the Sun: sanvat 0. vanshajo it until 1384 sasan of isvi.

शिलालेख शिवरीनारायण 
यह शिलालेख कोनसेन प्रोग्रेस रिपोर्ट 1904 के 52 पेज 52 और 53 के अनुसार शिवरीनारायण बिलासपुर से 39 मील दूर दक्षिण में है। यह शिलालेख चन्द्रचुणेश्वर के मंदिर में निचले भाग में जडा हुआ है। इसका एक भाग टूट गया है। इसमें वंश परंपरा ज्जल्ल्देव द्वित्तीय तक अंकित है परन्तु इसमें कुछ हाल वंश के राजकुमारों का भी नाम अंकित है। सूर्य देव पृथ्वीदेव के छोटे भाई थे। उनको सोंथीव आधुनिक सोठी जो शिव्न्रिनारायण से 20 मील उत्तर में है, की जागीर मिली। यह यही राजने लगे, इनके पुत्र राजदेव थे और उनके चार पुत्र थे। तेजल्देव, उल्हनदेव, गोपालदेव, और विक्रम्देव। गोपालदेव का पुत्र अमानदेव था जिसको महाराजा जाजल्लदेव अपने पुत्र के सामान प्यार करते थे। अठारहवी पंक्ति में चेदि नरेश की पराजय का विवरण है। 20वी पंक्ति में सदी और उनकी 3 रानियो के सटी होने का वर्णन है। इसका पूरा विवरण लेख के टूट जाने से उपलब्ध नहीं रहा। इक्कीसवी पंक्ति के बाद इन राजकुमारों के दान पुन्य का वर्णन  लिखा है। 
Shivrinarayan inscription

This inscription konsen progress report page 52 and 53 1904 52 39 miles south of shivrinarayan BILASPUR is the inscription at the bottom in the Temple of chandrachuneshvar is a part of it has been lost.. jjalldev is the second dynasty in the face but there is also the recent dynasty Princes imprinted name. prithvidev Sun sonthiv little brother dev were shivnrinarayan them from the modern sothi. 20 miles northIt took the same jagir of found, were and their son rajdev rajne four son. tejaldev, ulhandev, gopaldev, and vikramdev. gopaldev amandev jajalladev his son Maharaja's son was that love stuff. atharhavi in-line description of the chedi King's defeat in centuries and 20V 3. renew the sati of. the full details available from broken articles. ikkisvi line after the donation of these princes punya Description of.
            सूर्यदेव ने सोठीव में एक शिव मंदिर और एक सरोवर बनवाया तथा एक उद्यान निर्मित कराया था। शिवरीनारायण के दक्षिण पूर्व में 16 मील पर पथरिया में राजदेव मंदिर और सरोवर बनवाया, शिवरी नारायण  से 25 मील पर बानारी (आजकल बानारी) में रानी रानी राम मलला ने एक तलब बनवाया। पजानी (पजरी तहसील जांजगीर) में एक आम का बगीचा लगवाया। यह लेख सहस्त्रार्जुन के वंशज कुमारपाल ने एक लिखवाया था। कुमारपाल ने शिवचंद्र चूर्ण के मंदिर में चिचौली नाम का ग्राम दान किया था। उसी अवसर पर शिलालेख तैयार हुआ। यह ग्राम अब भी चिचौली ग्राम से  प्रख्यात है।जो सिवृनारायण से 25 मील पश्चिम में है। इस लेख का काल चेदि संवत 917 तदनुसार 1165 इसवी है। यह शिलालेख लिखवाने वाले सहस्त्रबाहु के वंशज कुमारपाल थे। इसमें ऐसा जान पड़ता है की, कुमारपाल भी राज वंशजो में से रहे होंगे। क्योकि पृथ्वीदेव ही उपरोक्त शिलालेख मंदिरों में लगवाया था। दूसरी बात यह की पृथ्वीदेव प्रथम से जाजल्लदेव द्वित्तीय तक 5 पीढियां होती है और सूर्यदेव से अमानदेव तक 4 पीढियां होती है। इस कारण कुमारपाल को सम्मिलित करने पर ही ये 5 पीढियां पूर्ण होती है। तभी अमानदेव जाजल्लदेव के छोटे भाई रहे होंगे। तभी सायद जाजल्लदेव ने अमानदेव पर छोटे भाई होने के नाते पुत्रवत प्रेम किया होगा।  Sotiv a Shiva temple built by Surydev and a garden and a pond was built. 16 miles southeast of Shivrinarayan rajdev in Patharia erected temples and lake, 25 miles from Shivri Narayan Banari (nowadays Banari) built summoned by the Queen Ram Mlla. Pjani (Pjri Tehsil Janjgir) preferably in a common garden. This article was written as Shstrarjun a descendant of the Kumarpal. Kumarpal the name Cichauli Shivchandra g powder was donated to the temple. Was the inscription on the same occasion. The village is still eminent Cichauli grams. Sivrinarayn which is 25 miles west. This article Chedi era period AD 917 to 1165 accordingly. The inscription was Kumarpal descended from enrolling Shstrbahu. Seems like it's been in Kumarpal Vanshjo be a secret. Prithvidev because the temple had this inscription above. Secondly, the Prithvidev first to the second Jajlldev 4 generations 5 generations grows and grows until Amandev from Surydev. The reason to include it on Kumarpal completes 5 generations. She's younger brother will be Jajlldev Amandev. Being the younger brother of Jajlldev Sayd then Amandev Putrwat will love.


शिवरी की रथयात्रा 

महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी के त्रिधारा संगम के तट पर स्थित प्राचीन, प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण और ''छत्तीसगढ़ की जगन्नाथपुरी`` के नाम से विख्यात शिवरीनारायण बिलासपुर से ६४ कि. मी., राजधानी रायपुर से बलौदाबाजार से होकर १२० कि. मी., जांजगीर जिला मुख्यालय से ६० कि. मी., कोरबा जिला मुख्यालय से ११० कि. मी. और रायगढ़ जिला मुख्यालय से सारंगढ़ होकर ११० कि. मी. की दूरी पर अवस्थित है। अप्रतिम सौंदर्य और चतुर्भुजी विष्णु की मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे श्री पुरूषोत्तम और श्री नारायण क्षेत्र कहा गया है। हर युग में इस नगर का अस्तित्व रहा है और सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर और द्वापरयुग में विष्णुपुरी तथा नारायणपुर के नाम से विख्यात यह नगर मतंग ऋषि का गुरूकुल आश्रम और शबरी की साधना स्थली भी रहा है। भगवान श्रीराम और लक्ष्मण शबरी के जूठे बेर यहीं खाये थे और उन्हें मोक्ष प्रदान करके इस घनघोर दंडकारण्य वन में आर्य संस्कृति के बीज प्रस्फुटित किये थे। शबरी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लि 'शबरी-नारायण` नगर बसा है। भगवान श्रीराम का नारायणी रूप आज भी यहां गुप्त रूप से विराजमान हैं। कदाचित् इसी कारण इसे ''गुप्त तीर्थधाम`` कहा गया है। याज्ञवलक्य संहिता और रामावतार चरित्र में इसका उल्लेख है। भगवान जगन्नाथ की विग्रह मूर्तियों को यहीं से पुरी (उड़ीसा) ले जाया गया था। प्रचलित किंवदंती के अनुसार प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है।

स्कंद पुराण में शबरीनारायण (वर्तमान शिवरीनारायण) को ''श्रीसिंदूरगिरिक्षेत्र`` कहा गया है। प्राचीन काल में यहां शबरों का शासन था। द्वापरयुग के अंतिम चरण में श्रापवश जरा नाम के शबर के तीर से श्रीकृष्ण घायल होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। वैदिक रीति से उनका दाह संस्कार किया जाता है। लेकिन उनका मृत शरीर नहीं जलता। तब उस मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाता है। आज भी बहुत जगह मृत शरीर के मुख को औपचारिक रूप से जलाकर समुद्र अथवा नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इधर जरा को बहुत पश्चाताप होता है और जब उसे श्रीकृष्ण के मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित किये जाने का समाचार मिलता है तब वह तत्काल उस मृत शरीर को ले आता है और इसी श्रीसिंदूरगिरि क्षेत्र में एक जलस्रोत के किनारे बांस के पेड़ के नीचे रखकर उसकी पूजा-अर्चना करने लगा। आगे चलकर वह उसके सामने बैठकर तंत्र मंत्र की साधना करने लगा। इसी मृत शरीर को आगे चलकर ''नीलमाधव`` कहा गया। इसी नीलमाधव को १४ वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने पुरी में ले जाकर स्थापित करने की बात कही है। डॉ. जे. पी. सिंहदेव और डॉ. एल. पी. साहू ने ''कल्ट ऑफ जगन्नाथ`` और ''कल्चरल प्रोफाइल ऑफ साउथ कोसला`` में लिखते हैं-''भगवान नीलमाधव की मूर्ति को शबरीनारायण से पुरी लाने वाला पुरी के राजपुरोहित विद्यापति नहीं थे बल्कि उन्हें तांत्रिक इंद्रभूति ने संभल पहाड़ी की एक गुफा में ले जाकर उसके सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना किया करता था। यहीं उन्होंने ''वज्रयान बुद्धिज्म`` की स्थापना की। उन्होंने तिब्बत जाकर लामा सम्प्रदाय की भी स्थापना की थी। बंगाल की राजकुमारी लक्ष्मींकरा जो बाद में पटना के राजा जैलेन्द्रनाथ से विवाह की, वह इंद्रभूति की बहन थी। इंद्रभूति के वंशज तीन पीढ़ी तक नीलमाधव के सम्मुख बैठकर तंत्र मंत्र की साधना करते रहे बाद में उस मूर्ति को पुरी में ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। पहले जगन्नाथ पुरी के इस मंदिर में तांत्रिकों का कब्जा था जिसे आदि गुरू शंकराचार्य ने उनसे शास्त्रार्थ करके उनके प्रभाव से मुक्त कराया।
इधर जरा अपने नीलमाधव को न पाकर खूब विलाप करने लगा और अन्न जल त्याग कर मृत्यु का वरण करने के लिए उद्यत हो गया तभी भगवान नीलमाधव अपने नारायणी रूप का उन्हें दर्शन कराया और यहां गुप्त रूप से विराजित होने का वरदान दिये। उन्होंने यह भी वरदान दिया कि प्रतिवर्ष माघपूर्णिमा को जो कोई मेरा दर्शन करेगा वह मोक्ष को प्राप्त कर सीधे बैकुंठधाम को जाएगा। तब से यह गुप्तधाम कहलाया। आज भी यहां भगवान नारायण का मोक्षदायी स्वरूप विद्यमान है और उनके चरण को स्पर्श करता ''रोहिणी कुंड`` विद्यमान है जिसकी महिमा अपार है। प्राचीन कवि श्री बटुकसिंह ने रोहिणी कुंड को एक धाम माना है-''रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर`` जबकि सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने शबरीनारायण माहात्म्य में मुक्ति पाने का एक साधन बताया है :-
रोहिणि कुंडहि स्पर्श कर चित्रोत्पल जल न्हाय।
योग भ्रश्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय।।
तथ्य चाहे जो हो, पुरी के जगन्नाथ मंदिर और शबरीनारायण मंदिर में बहुत कुछ समानता है। दोनों मंदिर तांत्रिकों के कब्जे में था जिसे क्रमश: आदि गुरू शंकराचार्य और स्वामी दयाराम दास ने शास्त्रार्थ करके तांत्रिकों के प्रभाव से मुक्त कराया। शबरीनारायण में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों का कब्जा था। चूंकि शबरीनारायण से होकर जगन्नाथपुरी जाने का मार्ग था। पथिकों को यहां के तांत्रिक शेर बनकर डराते और अपने प्रभाव से मारकर खा जाते थे। इसलिए इस मार्ग में जाने में यात्री गण भय खाते थे। एक बार स्वामी दयाराम दास ग्वालियर से तीर्थाटन के लिए घूमते हुए रत्नपुर पहुंचे। उनकी विद्वता और पांडित्य से रत्नपुर के राजा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें शबरीनारायण के मंदिर और मठ की व्यवस्था करने का दायित्व सौंपा। स्वामी दयाराम दास जब शबरीनारायण पहुंचे तब वहां के तांत्रिक उन्हें भी डराने के लिए शेर बनकर झपटे लेकिन ऐसा चमत्कार हुआ कि शेर के रूप में तांत्रिक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके। बाद में तांत्रिकों के गुरू कनफड़ा बाबा के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ जिसमें कनफड़ा बाबा को पराजय का सामना करना पड़ा और डर के मारे वे जमीन के भीतर प्रवेश कर गये। इस प्रकार शबरीनारायण के मठ और मंदिर नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों के प्रभाव से मुक्त हुआ, जगन्नाथ पुरी जाने वाले यात्रियों को तांत्रिकों के भय से मुक्ति मिली और यहां रामानंदी सम्प्रदाय के वैष्णवों का बीजारोपण हुआ। यहां के मठ के स्वामी दयाराम दास पहले महंत हुए और तब से आज तक इस वैष्णव मठ में १४ महंत हो चुके हैं जो एक से बढ़कर एक धार्मिक, अध्यात्मिक और ईश्वर भक्त हुए। उनकी प्रेरणा से अनेक मंदिर, महानदी के किनारे घाट और मंदिर की व्यवस्था के लिए जमीन दान में देकर कृतार्थ ही नहीं हुए बल्कि इस क्षेत्र में भक्ति भाव की लहर फैलाने में मदद भी की। जिस स्थान पर कनफड़ा बाबा जमीन के भीतर प्रवेश किये थे उस स्थान पर स्वामी दयाराम दास ने एक ''गांधी चौरा`` का निर्माण कराया। प्रतिवर्ष माघ शुक्ल तेरस और आश्विन शुक्ल दसमी (दशहरा) को शिवरीनारायण के महंत इस गांधी चौरा में बैठकर पूजा-अर्चना करते हैं और प्रतीकात्मक रूप से यह प्रदर्शित करते हैं कि वैष्णव सम्प्रदाय तांत्रिकों के प्रभाव से बहुत उपर है। शिवरीनारायण के दक्षिणी द्वार के एक छोटे से मंदिर के भीतर तांत्रिकों के गुरू कनफड़ा बाबा की पगड़ीधारी मूर्ति है और बस्ती के बाहर एक ''नाथ गुफा'' के नाम से एक मंदिर है जिससे इस तथ्य की पुष्टि होती है।
शबरीनारायण में मठ के भीतर संवत् १९२७ में महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार श्री राजसिंह ने जगन्नाथ मंदिर की नींव डाली जिसे उनके पुत्र श्री चंदनसिंह ने पूरा कराया और उसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की विग्रह मूर्तियों की स्थापना करायी। संवत् १९२७ में ही उन्होंने महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से महानदी के तट पर योगियों के निवासार्थ एक भवन का निर्माण कराया। इसे ''जोगीडीपा`` कहते हैं। रथयात्रा के बाद भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी यहां एक सप्ताह विश्राम करते हैं। इस कारण इसे ''जनकपुर`` भी कहा जाता है। पहले रथयात्रा में पंडित कौशलप्रसाद द्विवेदी के घर की मूर्तियों को रथ में निकाला जाता था। बाद में जब मठ की मूर्तियों को निकाला जाने लगा तब दो रथ में दोनों जगहों की मूर्तियां निकाली जाने लगी। आज केवल मठ की मूर्तियां ही रथ में निकाले जाते हैं।
रथयात्रा यहां का एक प्रमुख त्योहार है। प्राचीन काल से यहां रथयात्रा का आयोजन मठ के द्वारा किया जा रहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार महंत गौतमदास ने यहां रथयात्रा की शुरूआत की और महंत लालदास ने उसे सुव्यवस्थित किया। मठ के मुख्तियार पंडित कौशलप्रसाद तिवारी को हमेशा स्मरण किया जायेगा। उन्होंने ही यहां रामलीला, रासलीला, नाटक, रथयात्रा, और माघी मेला को सुव्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। रथयात्रा के लिए जगन्नाथ पुरी की तरह यहां भी प्रतिवर्ष लकड़ी का रथ निर्माण कराया जाता था जिसे बाद में बंद कर दिया गया और एक लोहे का रथ बनवाया गया है जिसमें आज रथयात्रा निकलती है। शिवरीनारायण और आसपास के हजारों-लाखों श्रद्धालु यहां आकर रथयात्रा में शामिल होकर और रथ खींचकर पुण्यलाभ के भागीदार होते हैं। जगह-जगह रथ को रोककर पूजा-अर्चना की जाती है। प्रसाद के रूप में नारियल, लाई और गजामूंग दिया जाता है। मेला जैसा दृश्य होता है। इस दिन को सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में बड़ा पवित्र दिन माना जाता है। इस दिन बेटी को बिदा करने, बहू को लिवा लाने, नये दुकानों की शुरूआत और गृह प्रवेश जैसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कराये जाते हैं। इस दिन अपने स्वजनों, परिजनों और मित्रों के घर मेवा-मिष्ठान भिजवाने की परम्परा है। बच्चे नये कपड़े पहनते हैं और उन्हें खर्च करने के लिए पैसा दिया जाता है। उनके लिए यह एक विशेष दिन होता है। सद्भाव के प्रतीक रथयात्रा आज भी यहां श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। शिवरीनारायण को ''छत्तीसगढ़ की जगन्नाथ पुरी`` कहा जाता है। राजिम में भगवान साक्षी गोपाल विराजमान हैं और ऐसी मान्यता है कि शिवरीनारायण के बाद राजिम की यात्रा और भगवान साक्षी गोपाल का दर्शन करना आवश्यक है अन्यथा उनकी यात्रा निरर्थक होता है। इसी लिए प्राचीन कवि श्री बटुसिंह शिवरीनारायण माहात्म्य में गाते हैं-
मास अषाढ़ रथ दुतीया, रथ के किया बयान।
दर्शन रथ को जो करे, पावे पद निर्वान ।।
जिस प्रकार जगन्नाथ पुरी को ''स्वर्गद्वार'' कहा जाता है और कोढ़ियों का उद्धार होता है। उसी प्रकार शिवरीनारायण की भी महत्ता है। कवि बटुकसिंह श्रीशिवरीनारायण-सिंदूरगिरि माहात्म्य में लिखते हैं :-
क्वांर कृष्णों सुदि नौमि के होत तहां स्नान।
कोढ़िन को काया मिले निर्धन को धनवान।।
शिवरीनारायण में बिलासपुर रोड में एक पुराना कोढ़ी खाना है और यहां एक लेप्रोसी विशेषज्ञ के रूप में डॉ. एम. एम. गौर की नियुक्ति भी हुई थी। बाद में उन्हीं के सलाह पर प्रयागप्रसाद केशरवानी चिकित्सालय की स्थापना की गयी थी। शिवरीनारायण से पांच कि.मी. की दूरी पर स्थित दुरपा गांव को अंग्रेज सरकार द्वारा ''लेप्रोसी गांव'' घोषित किया गया था। इस गांव में आना-जाना पूर्णत: प्रतिबंधित था। शिवरीनारायण से ७० कि.मी. पर चांपा में सोंठी कुष्ठ आश्रम है। इसी प्रकार बिलासपुर रायपुर रोड में बैतलपुर में भी एक कुष्ठ आश्रम है, जहां कोढ़ियों का इलाज होता है और अनेक प्रकार के उद्योग उनके द्वारा चलाये जाते हैं। उनके बच्चों के रहने और पढ़ने आदि का पूरा इंतजाम किया जाता है। सरकार इस संस्था को हर प्रकार का सहयोग प्रदान करती है। ऐसे मुक्तिधाम को पुरी क्षेत्र कहा गया है :-
शिवरीनारायण पुरी क्षेत्र शिरोमणि जान।
याज्ञवल्क्य व्यासादि ऋषि निजमुख करत बखान।।
ऐसे पवित्र और तीर्थ नगर शिवरीनारायण को नारायण धाम के रूप में जाना जाता है। यहां भगवान विश्णु के चतृर्भुजी मूर्तियों की अधिकता है। यहां एक प्राचीन वैष्णव मठ भी है। कदाचित इसी कारण इसे विष्णुकांक्षी तीर्थ नगर कहा जाता है। चित्रोत्पला गंगा (महानदी) के तट पर अवस्थित शिवरीनारायण में प्राचीनता के अवशेष मिलते हैं। सभी युग में इस नगर का अस्तित्व था और इसे अनेक नामों से जाना जाता था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने शिवरीनारायण माहात्म्य में लिखते हैं :-
नारायण के कलाश्रित जानिय धामहि एक
प्रथम विष्णुपुरि नाम पुनि रामपुरि हूं नेक
चित्रोत्पल नदि तीर महि मंडित अति आराम
बस्यो यहां बैकुंठपुर नारायणपुर धाम
भासति तहं सिंदूरगिरि श्रीहरि कीन्ह निवास
कुंड रोहिणी चरण तल भक्त अभीष्ट प्रकास।
               प्रो. अश्विनी केशरवानी छत्तीसगढ़ के जाने-माने लेखक हैं। प्रस्तुत ग्रंथ 'शिवरीनारायण देवालय और परंपराएँ' उनकी दूसरी कृति है। इसके पूर्व 'पीथमपुर के कालेश्वरनाथ' प्रकाशित हुई थी। मूलत: विज्ञान के प्राध्यापक होने के बावजूद साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और परंपराओं पर उनकी गहरी रूचि के परिणाम स्वरूप इन ग्रंथों का प्रकाशन संभव हो सका है। वे स्वयं मानते हैं कि उन्हें चित्रोत्पलागंगा का संस्कार, भगवान शबरीनारायण का आशीर्वाद और भारतेन्दु कालीन साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह, पंडित मालिकराम भोगहा, पंडित हीराराम त्रिपाठी और श्री गोविंद साव की प्रेरणा मिली है जिसके कारण ही वे लेखन वृत्ति की ओर प्रवृत्त हुए हैं।

                 शिवरीनारायण कलचुरि कालीन मूर्तिकला से सुसज्जित है। यहाँ महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा नमूना है। इसीलिए इसे ''प्रयाग'' जैसी मान्यता है। स्कंद पुराण में इसे ''श्री नारायण क्षेत्र'' और ''श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र'' कहा गया है। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहाँ एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्री तक लगता है। इस मेले में हजारों-लाखों दर्शनार्थी भगवान शबरीनारायण के दर्शन करने जमीन में ''लोट मारते'' आते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहाँ विराजते हैं इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को ‘छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी’ कहा जाता है।

                उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम् पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिकाधाम स्थित है लेकिन मध्य में ''गुप्तधाम'' के रूप में शिवरीनारायण स्थित है। इसका वर्णन रामावतार चरित्र और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है। यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात् था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट देदीप्यमान है। यहाँ सकल मनोरथ पूरा करने वाली माँ अन्नपूर्णा, मोक्षदायी भगवान शबरीनारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूढ़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और माँ गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है। शिवरीनारायण में अन्यान्य मंदिर हैं जो विभिन्न कालों में निर्मित हुए हैं। चूंकि यह नगर विभिन्न समाज के लोगों का सांस्कृतिक तीर्थ है अत: उन समाजों द्वारा यहाँ मंदिर निर्माण कराया गया है। यहाँ अधिकांश मंदिर भगवान विष्णु के अवतारों के हैं। कदाचित् इसी कारण इस नगर को वैष्णव पीठ माना गया है।

                  डॉ. जे.पी. सिंहदेव के अनुसार-''इंद्रभूति शबरीनारायण से नीलमाधव को सोनपुर के पास सम्बलाई पहाड़ी में स्थित गुफा में ले  गये थे। उनके सम्मुख बैठकर वे तंत्र मंत्र की साधना किया करते थे। शबरी के इष्टदेव जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता दिलाने का यश भी इंद्रभूति को ही है।'' आसाम के ''कालिका पुराण'' में उल्लेख है कि तंत्रविद्या का उदय उड़ीसा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इष्टदेव थे। गोपीनाथ महापात्र के अनुसार ''भगवान शबरीनारायण संवरा लोगों द्वारा पूजित होते थे जो भुवनेश्वर के पास स्थित धौली पर्वत में रहते थे।'' सरला महाभारत के मुसली पर्व के अनुसार ''सतयुग में भगवान शबरीनारायण के रूप में पूजे जाते थे जो पुरूषोत्तम क्षेत्र में प्रतिष्ठित थे।'' लेकिन वासुदेव साहू के अनुसार ''शबरीनारायण न तो भुवनेश्वर के पास स्थित पर्वत में रहते थे, जैसा कि गोपीनाथ महापात्र ने लिखा है, न ही पुरूषोत्तम क्षेत्र में, जैसा कि सरला महाभारत में कहा गया है। बल्कि शबरीनारायण महानदी घाटी का एक ऐसा पवित्र स्थान है जो जोंक और महानदी के संगम से 3 कि.मी. उत्तर में स्थित है। स्वाभाविक रूप से यह वर्तमान शिवरीनारायण ही है। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र अपनी पुस्तक ''छत्तीसगढ़ परिचय'' में लिखते हैं-''शबर (सौंरा) लोग भारत के मूल निवासियों में एक हैं। उनके मंत्र जाल की महिमा तो रामचरितमानस तक में गायी गयी है। शबरीनारायण में भी ऐसा ही एक शबर था जो भगवान जगन्नाथ का भक्त था।'' आज भी शिवरीनारायण में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिक गुरूओं नगफड़ा और कनफड़ा बाबा की मूर्ति एक गुफा नुमा मंदिर में स्थित है। इसी प्रकार बस्ती के बाहर आज भी नाथ गुफा देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि शिवरीनारायण की महत्ता प्रयाग, काशी, बद्रीनारायण और जगन्नाथपुरी से किसी मायने में कम नहीं है तभी तो कवि गाता है :-

चित्रउत्पला के निकट श्री नारायण धाम,
बसत संत सज्जन सदा शबरीनारायण ग्राम।
होत सदा हरिनाम उच्चारण, रामायण नित गान करै,
अति निर्मल गंग तरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरै।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरे,
जहां जीव चारू बखान बसै सहज भवसिंधु अपार तरे॥

              नारायण मंदिर के वायव्य दिशा में एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद की थी। रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं और वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के चेदि संवत् 933 के शिलालेख में मंदिर के दक्षिण दिशा में संतों के निवासार्थ एक मठ के निर्माण कराये जाने का उल्लेख है।

            हिन्दुस्तान में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम प्रयागराज में हुआ है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ अस्थि प्रवाहित करने और पिंडदान करने से 'मोक्ष' मिलता है। लेकिन मोक्षदायी सहोदर के रूप में छत्तीसगढ़ के शिवरीनारायण और राजिम को माना जा सकता है। दोनों सांस्कृतिक तीर्थ चित्रोत्पला गंगा के तट पर क्रमश: महानदी, शिवनाथ और जोंकनदी तथा महानदी, सोढुल और पैरी नदी के साथ त्रिधारा संगम बनाते हैं। यहाँ भी अस्थि विसर्जन किया जाता है, और ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहाँ पिंडदान करने से मोक्ष मिलता है। शिवरीनारायण में तो माखन साव घाट और रामघाट में अस्थि कुंड है जिसमें अस्थि प्रवाहित किया जाता है। श्री बटुकसिंह चौहान ने श्री शिवरीनारायण सुन्दरगिरि महात्म्य के आठवें अध्याय में अस्थि विसर्जन की महत्ता का बहुत सुंदर वर्णन किया है :-

                                     
दोहा शिव गंगा के संगम में, कीन्ह अस पर वाह।
                                      पिण्ड दान वहाँ जो करे, तरो-बैकुण्ठ जाय॥
                                     दोहा क्वांर कृष्णो सुदि नौमि के, होत तहां स्नान।
                                          कोढ़िन को काया मिले, निर्धन को धनवान॥
                                   महानदी गंग के संगम में, जो किन्हे पिण्ड कर दान।
                                           सो जैहैं बैकुण्ठ को, कहीं बुटु सिंह चौहान॥


प्रस्तुत ग्रंथ ''शिवरीनारायण : देवालय और परंपराएँ'' इन्हीं सब भावों को लेकर लिखा गया है। इस ग्रंथ में दो खंड है। पहले खंड में यहाँ के मंदिरों क्रमश: गुप्तधाम, शबरीनारायण और सहयोगी देवालय, अन्नपूर्णा मंदिर, महेश्वरनाथ मंदिर, शबरी मंदिर, जनकपुर के हनुमान और खरौद के लखनेश्वर मंदिर के उपर सात आलेख हैं जिसके माध्यम से यहाँ के सभी मंदिरों के निर्माण से लेकर उसकी महत्ता का विस्तृत वर्णन करने का प्रयास किया है। प्रमुख मंदिर भगवान शबरीनारायण का है शेष सहायक मंदिर हैं जिसके निर्माण के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है। बदरीनारायण में भगवान नर नारायण की तपस्थली है और शिवरीनारायण में भगवान नर नारायण शबरीनारायण के रूप में गुप्त रूप से विराजमान हैं। भारतेन्दु कालीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने जो 'शबरीनारायण माहात्म्य' लिखा है उसका शीर्षक उन्होंने 'श्रीशबदरीनारायण माहात्म्य' दिया है। उन्होंने ऐसा शायद स्कंद पुराण में इस क्षेत्र को 'श्रीनारायण क्षेत्र' के रूप में उल्लेख किये जाने के कारण किया है। यहाँ रामायण कालीन शबरी उध्दार और लंका विजय के निमित्त भ्राता लक्ष्मण की विनती पर श्रीराम ने खर और दूषण की मुक्ति के पश्चात् 'लक्ष्मणेश्वर महादेव' की स्थापना खरौद में की थी। इसीप्रकार औघड़दानी शिवजी की महिमा आज महेश्वरनाथ के रूप में माखन वंश और कटगी-बिलाईगढ़ जमींदार की वंशबेल को बढ़ाकर उनके कुलदेव के रूप में पूजित हो रहे हैं। माँ अन्नपूर्णा की ही कृपा से समूचा छत्तीसगढ़ 'धान का कटोरा' कहलाने का गौरव प्राप्त कर सका है। इस खंड के सभी देवालय लोगों की श्रध्दा और भक्ति का प्रमाण है। तभी तो पंडित हीराराम त्रिपाठी गाते अघाते नहीं हैं :-

होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान करैं।
अति निर्मल गंगतरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरैं।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरैं।
जहाँ जीव चारू बखान बसैं सहजे भवसिंधु अपार तरैं॥

ग्रंथ के दूसरे खंड में यहाँ प्रचलित परंपराओं को दर्शाने वाले 17 आलेख है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदी की तरह चित्रोत्पलागंगा (महानदी) को भी मोक्षदायी माना गया है। 'मोक्षदायी चित्रोत्पलागंगा' में इन्हीं सब तथ्यों का वर्णन है। इस नदी में अस्थि विसर्जन, बनारस के समान महानदी के घाट, भगवान शबरीनारायण के चरण को स्पर्श करती मोक्षदायी रोहिणी कुंड, वैष्णव मठ और महंत परंपरा, महंतों के द्वारा गादी चौरा पूजा, जगन्नाथ पुरी के समान प्रचलित रथयात्रा, तांत्रिक परंपरा, नाटय परंपरा, साहित्यिक परंपरा, प्रसिध्द मेला के साथ शिवरीनारायण के भोगहा, गुरू घासी बाबा, रमरमिहा और माखन वंशानुक्रम, शिवरीनारायण की कहानी उसी की जुबानी और महानदी के हीरे आलेख यहाँ की परंपराओं को रेखांकित करता है।

इस ग्रंथ को पढ़कर आदरणीय पंडित विद्यानिवास मिश्र ने आवश्यक संशोधन करने का सुझाव दिया जिसे पूरा करने के बाद यह ग्रंथ पूर्णता को प्राप्त हुआ। जगन्मोहन मंडल के प्रभृति साहित्यकारों में एक गोविंद साव भी थे जिनका वें छठवीं पीढ़ी के वंशज हैं। भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी और मित्र ठाकुर जगमोहन सिंह शिवरीनारायण में रहकर अनेक ग्रंथों की रचना की है। यही नहीं बल्कि उन्हों 'जगन्मोहन मंडल' के माध्यम से छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें लेखन की दिशा प्रदान की थी। छत्तीसगढ़ के अन्यान्य साहित्यकारों के यहाँ आने की जानकारी मिलती है। शिवरीनारायण को साहित्यिक तीर्थ कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। इस ग्रंथ में बदरीनारायण, प्रयाग और जगन्नाथपुरी से शिवरीनारायण की तुलना की गयी है जिनकी पुष्टि दिये गये तथ्यों से होती है। किसी धार्मिक और सांस्कृतिक नगरों का महत्व उसके साहित्य से ही होता है। इस दिशा में शिवरीनारायण जैसे गुप्तधाम अब गुप्त न होकर प्रकाशमान होगा, ऐसी आशा की जा सकती है।



क्रमश:----------पेज 21

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