शनिवार, 26 जनवरी 2013

21 - रतनपुर के नरेश व अन्य शिलालेख और 36 गढ़

21 - रतनपुर के व अन्य शिलालेख और 36 गढ़ 
Other shilalekh of Ratanpura and Chhattisgadh

 एविग्राफिका इंडिका खंड 1 पेज 45 के अनुसार यह लेख् नागपुर संग्रहालय में है. यह पृथ्वीदेव III के बारे में लिखा गया है। इसमें वि0स0 1247 (की 1989-90) अंकित है। जाजल्लदेव के पुत्र रतनदेव जिन्होंने चुड़ और गंग वीरो को हराया था, के पुत्र पृथ्वीदेव थे। इस लेख के रचयिता देव गंग थे। यह लेख साम्बा ग्राम शिवमंदिर के निर्माण के अवसर पर लगाया गया था। पृथ्वीदेव III के समय विक्रम संवत 1248 में दिल्ली के सुप्रसिद्ध नरेश पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गोरी का युद्ध हुआ था, जिसका वर्णन इतिहास में दर्ज है। ऐतिहासिक विद्वानों के मतानुसार उस समय मध्य और दक्षिण भारत के करीब 150 राजागण चौहान की सहायतार्थ दिल्ली गए थे। अध्ययन से पता चलता है राठौर और चंदेल चौहान के विपरीत, हैहय और खेतसिंह खंगार आदि राजा इनके पक्ष में थे।
        रतनपुर के हैहय वंशी राजाओ में पृथ्वीदेव I से पृथ्वीदेव III तक विक्रम संवत की 10वी सदी से 12वी सदी की अर्धाली तक अधिक प्रभावशाली राजा महाराजा रहे इनके ही द्वारा छत्तिश्गढ़ (36 गढ़ ) बनवाए गए थे। इसी कारण इस क्षेत्र का नाम छत्तीसगढ़ पड़ गया। छत्तीसगढ़ के पहले इस क्षेत्र को दक्षिण कौशल कहते थे।
According to Section 1, page 45 Avigrafika Indica this lekh is Nagpur Museum. Prithvidev III, has been written about it. The Vikram samvat 1247 (for 1989-90) is marked. Chud and Ganga's son who Ratandev Jajlldev warior was defeated, was the son of Prithvidev. Gang Dev was the author of this article. This article was imposed on Samba Village Temple building. Prithvidev Vikram Era III, in 1248 at Delhi's prestigious King Prithviraj Chauhan and Muhammad Gori was the war, which is described in recorded history. Historical scholarly opinion at that time to help the central and South Delhi, India were 150 Rajagn Chauhan. The study shows Chandel Chauhan Rathore and contrast, etc. Khangar Ketsingh Haihay and King were in their favor.

        
Prithvidev I to III of Ratanpur Haihay Prithvidev Vikram Vamshi era of kings of the 10th century to the 12th century Ardhali are more impressive His Majesty the King Chhattishgadh (36 forts) were built. That has left the field name Chhattisgarh. Skills were called to the area south of Chhattisgarh.

इन 36 गढ़ों के नाम इस प्रकार से है- name are given below-
1- रतनपुर Ratanpur                                                               19- मदनपुर Madanpur
2- मारोगढ़ Marogadh                                                              20- उमरेलो  गढ़  Umrelo Gadh
3- विजयपुर Vijaygadh                                                             21-नया गढ़  Naya Gadh
4- लोणी गढ़ Lonee gadh                                                          22- कन्तुल गढ़  Kantalu Gadh
5- रामगढ़ Ramgadh                                                                 23- कोस्गा गढ़ Kosgaa Gadh
6- रतनगढ़ Ratangadh                                                              24- उप्रोड़ा गढ़ Uproda Gadh
7- तखतपुर takhatpur                                                               25- लाफा गढ़ Laafa Gadh
8- महल्वार् गढ़ Mahalwar gadh                                                26- केदार गढ़ Kedar Gadh
9- नवागढ़ Nawa gadh                                                              27- मातिन गढ़ Maatin Gadh
10- देवरवीजा Devar veeja                                                        28- सोंठी गढ़ Sonthee Gadh
11- पथरिया गढ़ Patharia Gadh                                                 29- ओखर गढ़ Okhar Gadh
12- पड़रभाटा (वतारगढ़) Vataar Gadh                                        30- सेमरिया गढ़ Semaria Gadh
13- मुंगेली Mungeli                                                                     31- कन्डरी गढ़ Kandri Gadh
14- मालदा गढ़ Malda gadh                                                        32- कर्कटी गढ़ Karkati Gadh
15- देवर हाट Devar Hat                                                             33- पेड़रा गढ़ Pendra Gadh
16- खरोद गढ़ Kharod Gadh                                                       34- रामपुर गढ़ Rampur Gadh
17- कोट गढ़ Kot Gadh                                                               35- दुर्ग पाटन Durg Paatan
18- पड़र भट Padar Bhat                                                            36- लवन गढ़ Lavan Gadh
       बाद में उपरोक्त गढ़ो की संख्या बढ़कर 40 हो गई, परन्तु इस क्षेत्र का नाम छत्तीसगढ़ ही बना रहा। 40 After Some times were above the number of the build up, but the name of the region remained Chhattisgarh.
नरेश भानु सिंह देव , नर्शिंह देव, भूमि सिंह देव, आदि (Naresh Bhanu Singh Dev, Narsingh Dev, Bhoomi Singh Dev etc)
आपके शासन काल की अवधि 1257 से 1278 विक्रम संवत रही। आपकी रानियों के नाम पारवती देवी और श्यामा देवी था। 
आपके ज्येष्ठ पुत्र का नाम नरसिंह देव था। आपके पश्चात् रतनपूराधीश नरसिंह देव हुए . नरेश नरसिंह देव का शासन काल 1278 से 1308 तक रहा। बुलपुर सीता कोल के राजा धर्म केतु की पुत्री खौशाल्या देवी से नरसिंह देव का विवाह हुआ था। जिनसे भावसिंह (भूमि सिंह) नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई। भूमि सिंह का शासन काल 1308 से 1333 तक रहा, आपने विक्रम संवत 1308 से शासन किया। आपका विवाह बघेल नरेश की पुत्री जोतकुंवर से हुआ था। जिनसे 2 पुत्र उत्पन्न हुए। प्रताप सिंह देव और लक्ष्मी देव। नरेश प्रताप सिंह देव का शासन काल 1333 से 1376 तक रहा। प्रताप सिंह दे ने अपने छोटे भाई लक्ष्मी देव को खलारी का मंडलेश्वर राजा बनाया। लक्ष्मी देव सिंह ने रायपुर नामक नगर बसाकर अपनी राजधानी बने। इस शाखा का वर्णन आगे किया जायेगा। प्रताप सिंह देव के पश्चात् क्रम्श: जयसिंह देव, धर्मसिंह देव, जगन्नाथ सिंह देव, वीर सिंह देव, कलमल देव, शंकर साय , मोहन साय, दादू साय एवं पुरुसोत्तम साय रतनपुर की गद्दी पर बैठे। इनका कोई महत्वपूर्ण कार्य/घटना न मिलने के कारण विशेष लिख पाना मुश्किल है। अतः केवल नाम दिए गए है। 
                पुरुसोत्तम साय का विवाह राजा गणपति की राजकुमारी सुमित्रा देवी से हुआ, जिसने बहार साय नामक पुत्र को जन्म दिया। आपने अपने जीवन काल में ही अपने बहादुर योग्य पुत्र बहार साय को राज्य की बागडोर सौप दी थी। 

Vikram Era 1278 to 1257 was a period of rule. Brunette Goddess Parwati Devi was the name of your queens.Your eldest son was named Narasimha Deva. After you have Rtnpuradish Narasimha Deva. From 1278 until 1308 during the reign of King Narasimha Deva. Ketu Dharma King Cole's daughter Sita Bulpur Kaushalya Devi was married to Lord Narasimha. Which Bavsinh (ground Singh) got the name of the Son. From 1308 to 1333 during the reign of Singh's land, you Vikrama era ruled from 1308. Was the daughter of King Jotkunvr Baghel your marriage. Which bore two sons. Dev Pratap Singh Deo and Lakshmi. During the reign of King Pratap Singh Deo from 1333 until 1376. Klari Dev Pratap Singh of his younger brother Lakshmi Mondleshhwar king. Dev Singh called Lakshmi Nagar Raipur Bsakr became its capital. The branch will be further described. After Pratap Singh Deo Kramsh: Jai Dev, Dharmsinh Dev, Jagannath Singh Deo, Vir Singh Deo, Klml Dev, Sai Shankar, Mohan Sai, Dadu Purusottm evidence and evidence to the throne of Ratanpur. The important task / event is difficult due to non-specific type. Therefore, only the name is given.

                
Evidence Purusottm Sumitra Devi was the princess married the king Ganapati, who gave birth to a son called out evidence. You brave and worthy son during his lifetime out his hand over the reins of the state gave evidence.

महाराज बहार साय (Maharaj Bahar Saay)
 महाराज बहार साय के सम्बन्ध में 02 शिलालेख मिले हा, जिनके  आधार पर आपका शासन काल 1576 से 1620 विक्रम संवत तक रहा। रतनपुर के शिलालेख जो महामाया मंदिर से प्राप्त है तथा कांसेस प्रोग्रेस रिपोर्ट 1904 के पेज 52 के आधार पर यह शिलालेख महामाया मंदिर के सिंह द्वार के दोनों तरफ अंकित है। एक ओर रतनपुर की तुलना इन्द्रपुरी से की गई है और राजा का वर्णन बहारेन्द्र नाम से संबोधन किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है की बहारेन्द्र राजा बहारसाय ही थे। इन्होने कोस्गैन को अपनी राजधानी बनाया और एक लेख अंकित कराया, जो अब नागपुर के संग्रहालय में है। महामाया मंदिर के दुसरे शिलालेख में  सूत्रधार छिकातु की  स्मृति में है और उसमे संवत 1552 अंकित है। 
Springtime chef evidence regarding inscription found 02 ha, on which you Vikrama era rule in 1620 until 1576. Mahamaya Temple of Ratanpur inscription which is derived from the Kanses progress report of 1904 on page 52 of this inscription is engraved on either side of the entrance Mahamaya Temple Singh. A comparison of the Ratanpur is from Indrapuri Bharendra name and address of the king has been described. It appears Bharendra Bharasay was king. He made ​​his capital, and an article Kosgan Face made​​, which is now in the Museum of Nagpur. Mahamaya Temple facilitator Chikatu second inscription is engraved in the memory of 1552 and in that era.
कोसगैन शिलालेख (Kosgan Shilalekh)
डा0 हीरालाल द्वारा लिखित " डिस्क्रिपतिव लिस्ट्स ऑफ़ इनस्क्रिपसंस इन दी सी0 पि0 एंड बरार" पेज 114 के अनुसार कोस्गैन ग्राम घूरी जमीन्दारी में है, जो बिलासपुर से 60 मील पर है। यह लेख अब नागपुर के संग्रहालय में है। जिस शिलालेख पर यह लेख अंकित है वह अब बहुत घिस गई है। यह लेखो दोनों ओर है परन्तु दोनों भिन्न है। एक लेख में हैहय नरेश राजा बहारेन्द्र की स्तुति लिखी है, उन्होंने पठानों को हराया था, का वर्णन है। बहारेन्द्र शायद बहारसाय का शुद्ध संस्कृत रूप है। बहारसाय संवत 1576 विक्रमी में हुए थे। दूसरे लेख में गौतम राजा का जिक्र किया गया है इनका मंत्री गौरव नाम का था। दोनों लेखो में संवत अंकित थे, परन्तु दुर्भाग्यवश अब वह टूट चूका है। बहार्साय का विवाह ब्रम्हपुर नरेश मदन देव की पुत्री राजकुमारी श्यामा कुमारी से हुआ था। इस प्रकार बहारसाय के संबध में उपरोक्त जानकारी से यह स्पस्ट विदित होता है की पृथ्वी देव त्रित्तीय के पश्चात् हैहय वंश की गौरव गरिमा बढ़ने वाले यही शासक थे। इन्होने अपने बाहुबल से पठान जैसी बलवान कौम को पराजित किया था। आपके पश्चात् युवराज कल्याण साय रतनपुर की गद्दी पर बैठे। 

Written by Dr. Hiralal "lists of descreptive inscriptions in the CP and Berar" according to page 114 ghuri Jmindari Kosgan village, which is 60 miles from Bilaspur. This article is now in the Museum of Nagpur. This article is imprinted on which the inscription is now very worn. The articles on both sides, but both are different. Praise Bharendra Haihay King, King has written an article, he was defeated Pathans, is described. Bharendra probably Baharasay pure Sanskrit. Baharasay Vikram era occurred in 1576. The king has been mentioned in other articles Gautam was named minister glory. Both articles were inscribed in the era, but unfortunately she has now broken. Bramhpur brunette princess married the daughter of King Baharsay Madan Dev Kumari was. Baharasay above information in respect of this type is known, it is obvious after the Earth dev Trittiy Haihay Dynasty ruler's growing pride dignity. He like his power is stronger Pathan tribes were defeated. After the prince to the throne of your welfare Ratanpur evidence.

महाराजा कल्याणसाय और जहाँगीरनामा 
(Maharaja Kalyaan Saay and Jahangeer namaa)
कल्याण साय की रानी का नाम भावना देवी था। कल्याण साय की बड़ी रानी से लक्षमण साय बनाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, आपके 2 दीवान थे, बाबू रामसहाय लाल जेमिन गोत्री एवं वीर गोपाल राव। 
         जहाँगीरनामा के अनुसार कल्याण साय 08 वर्ष तक दिल्ली में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के पास रहे। आपके साथ इनके दीवान गोपाल राव वीर भी थे। गोपाल राव दीवान ने दिल्ली में अपनी वीरता का परिचय दिया था, जिसका पमारा गीत आज भी यहाँ के (रतनपुर) देवार (36 गढ़िये चारण) लोग ढुंन्ग्रू (बाजा) बजाकर गाया करते है। पं0 श्री लोचन प्रसाद तिवारी जी ने देवरों के पमारा गीत की ऐतिहासिकता के बारे में लिखा है की देवार छत्तीसगढ़ की एक चारण जाती ढुगरु बाद्य पर इस गीत को गाया करती है। हैहय वंशी राजा कल्याण साय दिल्ली गए थे, जिनके साथ गोपाल राव, मल्ल भी गया था। इस गोपाल राव की गीत में काफी प्रशंसा की गई है। 
         जहाँगीरनामा से भी यह बात स्पस्ट होती है उसमे लिखा है की " पच्चीस खुरदाद शनिवार" अषाढ़ सुदी 4 संवत 1676 को सुलतान परवेज के साथ इलाहाबाद से आकर रतनपुर नरेश कल्याण साय ने चौरवट चूमने की प्रथा पाई। यही बात पमारा गीत की निम्न पंक्ति में स्पस्ट होती है-
  घूर पंचमी मानिस राजा डेरा उसलगे 
जेठ महिना दिल्ली पहुचिस छाय रहिस आषाढ़ 

अर्थात - घूर पंचमी, जेठ चैत्र का उत्सव् मनाकर राजा कल्याण साय ने रतनपुर से प्रस्थान किया, जेठ में राजा दिल्ली पहुचे और आषाढ़ के महिना में वहां मौजूद थे। इन पंक्तियों की पुस्ती जहाँगीरनामा से इस प्रकार होती है।

Divine spirit was being named Queen of evidence. Evidence vs. Evidence of welfare Lakshman son of the queen, you were Diwan 2, Babu Rao Gopal Ramshay red Zemin Gotri and heroic.

         
According to the evidence being Jahagirnama Mughal emperor Jahangir were in Delhi for 08 years. Diwan Gopal Rao was brave of them with you. Diwan Gopal Rao had showed their mettle in Delhi, which Pamara song still here (Ratanpur) Dewar (36 Gdie BARD) people Dunngru (banjo) playing is rendered. Mr. Lochan Prasad Tiwari Ji Pan's Devron Dewar Pamara song is written about the historicity of Chhattisgarh is a bard who sang the song on Dugru Bady. Evidence Delhi Hahy descent were being king, with whom Gopal Rao, Malla was also. The Gopal Rao has been praised in song.

         
It is also obvious Jahagirnama wrote of him, "Twenty-five Khurdad Saturday" Ashadh Sudi 4, 1676 Sultan era ruler Pervez Ratanpur come from Allahabad, with evidence of being able to practice kissing Chaurvt. That is obvious in the following line of the song Pamara -

                                                      
घूर पंचमी मानिस राजा डेरा उसलगे 
जेठ महिना दिल्ली पहुचिस छाय रहिस आषाढ़

Ie - Staring Panchami, brother-in-law of Chaitra Utsw Welfare evidence after the king's departure from Ratanpur, brother of the King of Delhi Reach and ashadh were there in months. Thus these lines are Jhaँgirnama Pusti.
" दुनी बैठे बाच्छराज जेकर बेटा शाहजहाँ"
इससे राजा कल्याण साय का दिल्ली जाना जहाँगीर के समय में दिद्ध होता है। राज कल्याण साय का दिल्ली प्रस्थान जहाँगीर के समय में हुआ होगा। इसकी पुसटी "वश" वाले देवार् गीत से होती है-
राजा बोले कल्याण साय भावानामती माता।
तोर हुकुम ला पाते तो बच्छाय की सेवा में जोतब।।
बाच्छाय बैठे है जेकर बीटा शाहजहाँ . 
बाच्छाय के वीरान बैठे नेगी "बहादुर खान।।
वीरन बहादुर नेगी के बीटा डब्बल खान। 
बाच्छाय के गुरु जहाँ है दलीला मलिला।।
रानी बोले भवनामती की बाबू दिल्ली आगरा जहाँ जाव।
बाच्छाय बड जनम धरे है दिल्ली चढ़े कमान।।
छै महिना ले सेवा करै तो तख्ताला करे सलाम।
वर्ष दिन ले सेवा करे तो बाच्छाय लाकरै सलाम।।
एक निकरे दसे दशहरा घूर पंचमी एक।
बरस भर में दू पैत बाच्छाय बहिराय।।
तिल तिल औ बाल बाल दनी झुकोवत है।
हिन्दू के बाना ला वो दिल्ली में लावेगा।।
गाय गोस खाना ले, "कलमा"पढवाव़े जवान।
कान चीर मुंदरी पहिरावे कर मुगलानी भेस।।
हन्दू के बाना ला वो दिल्ली में बोरत है।
ते कारण ले राजा मत दिल्ली नहीं जाव जी।।
देवार लोगों के गीत में बाधेगढ़े मुकाम।
शहर कहाइस "रीजा " भाई गदहर "बाघौ "नाम,,
वेन विक्रम वारा भाई बधेला बैठे एक मदनसिंह लाल।।
उपरोक्त बसहा  गीत से सिद्ध हो जाता है की राजा कल्याण साय दिल्ली अवश्य ही गए होगे। बसहा गीत में भासांतर के कारण कुछ शब्द स्पस्ट नहीं होते है। पर गीत से यह स्पस्ट हो जाता है की कल्याण साय जेकर वेटा शाहजहाँ अर्थात जहाँगीर के शासनावधि में अवश्य ही दिल्ली में रहे। इससे यह भी स्पस्ट होता है की रानी भाव्नामती राजा को कुछ कारणों से दिल्ली जाने को मना भी करती है। राजा कल्याण साय दिल्ली जाने के पूर्व बांधौगढ़ पर भी गए थे, जिसका वर्णन ऊपर दिया गया है। बंधौगढ़ नरेश विक्रमाजीत ने बसाले दरबार में मुजरा किया। इससे प्रसन्न होकर बादशाह ने उसके समस्त अपराध क्षमा कर दिए। पमारा गीतों की ऐतिहासिकता अनेक बातो से सिद्ध होती है। देवार लोगो के गीतों में गोपाल राव के वारे में कहा गया है----

बेटा बाजन में मर्द गोपल्ला, मर्द गोपल्ला राय 
दूध पियाईस रानी भवाना , जनो जमुना कोख 
सटी सूरमा नारी पुरुष भये, पन्मेसर अवतार 
हो हो वंश कल्याण साय की होवे जय जय कार 
उपरोक्त वर्णन के आधार पर हैहय वंशी राजा कल्याण साय का साथी गोपाल राव था, जिसकी माता का नाम जमुना एवं पिटा का नाम माधव साय था। परन्तु गीत से ऐसा प्रतीत होता है की गोपाल साय  को जन्म तो जमुना ने दिया है पर लालन पोषण राजमाता भाव्नामती ने किया है। गोपाल साय  बहुत ही अधिक शक्तिशाली था उसके सम्बन्ध में जहाँगीर नामा की कुछ ऐतिहासिक घटनाएं नीचे लिखे अनुसार है-
राज कल्याण साय अपनी पत्नी से दिल्ली जाने की आज्ञा मागते है तो उन्होंने कहा की गोपाल साय  के नगर की भलाई एवं रक्षा हेतु छोड़ जाना, पर कूच की तैयारी होने पर राजा के साथ गोपाल साय  एवं अनेक राजा नवागढ़ के ठाकुर लखीम चन्द्र, मरकाम गौंड, कबन्धी के मोह्पत्रव, पडरिया के ठाकुर सूरज देवान, अमदा मोहदा के भागीरथी दुबे जो कांख से नारियल फोड़ते थे। गवां में सुपारी (गवां -2 अँगुलियों के बीच की जगह को कहते है) फोरते थे, घुटकू के चन्द वाह, अन्न बताई, बरतोरी के आनंद पटेल, खवाना के अधरिया आदि राजा साथ में थे।
राजा केदा, पेंड्रा होते हुए बंधौगढ़ (रीवां) अपने समधी विक्रमाजीत के यहाँ पहुचे। बाघेला राजा ने अपने समधी का अच्छा स्वागत सत्कार किया। वहां पर गोपाल राव ने बांधौगढ़ के नरसिंह एक ब्याघ्र को मार कर वहा की प्रजा को बहुत प्रसन्न किया। वह से वे सब गंगा स्नान करते हुए जेठ के महीने में पहले आगरा फिर दिल्ली दरबार में पहुचे, वहां राजा वर्षात भर रहे। गोपाल राव की आगरा के एक मोदी से अनबन हो गई जिससे उसकी दूकान लूटकर गोपाल राव ने गरीबो में बाँट दी। उसकी शिकायत आने पर राजा ने अपने पुत्र लक्षमण साय को समझाने हेतु भेजा तथा गोपाल राव को भी समझाया। कुछ समय बाद गोपाल राव ने शाही अखाड़े के गुरु को भी पछाड़ दिया एवं दरी बांध तालाब से होता हुआ पन्हारिनो के बताये हुए रस्ते से आकार वह ठहर गया जाना से राजा का हाथी पानी पीने जीता था। जब हाथी पानी पीने आया तो उसने उसे भी पछाड़ दिया इसका प्रतिफल यह हुआ की बादशाह ने राजा कल्याण साय और उसके 22 नेगी तथा 18 लालों को नजर कैद कर लिया। परन्तु गोपाल राव वह से शाही दरबार के मुख्या दरवाजे को तोड़ता हुआ दरबार में पंहुचा, उसके पहुचने पर दरबार में खलबली मच गई। बादशाह उसके शारीरिक गठन को देखकर दंग रह गए तथा बादशाह ने अपने शाही पहलवान से कुश्ती कराइ, वह भी गोपाल राव से हार गया। इससे खुश होकर बादशाह ने राजा कल्याण साय सहित सभी साथियों को नजर कैद से रिहा किया। एवं छत्तीसगढ़ (18 गढ़ रायपुर और 18 गढ़ रतनपुर) का लगान कल्याण साय को लेने का हुक्म दे दिया। साथ ही साथ गोपाल राव को 02 ग्राम (ब्रिर्हान्पुर एवं हरदीपुर) भी पुरसकार में दे दिए, गोपाल राव ने इसी समय पर बादशाह के 22 राज्यों के कैदी, जिसमे से 2 हिन्दू राजाओं की भी रिहाई कराई, जिससे गोपाल राव को " बंदी छोर" का नाम मिला। साथ ही साथ कल्याण साय सहित सभी साथियों को अपनी राजधानी वापिस आने की आज्ञा भी बादशाह ने दी।
              यदपि हैहय वंश में अनेक प्रतापी शासक हुए, परन्तु कल्याण साय ही एक ऐसा शासक था, जिसने दिल्ली में जाकर अपनी प्रतिभा को एवं अपने पूर्वजो के नाम को स्थापित करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की। दिल्ली से लौटने के बाद इन्होने कल्याणपुर नामक नगर बसाया, आपके समय की राज्य व्यवस्था सम्बन्धी एक पुस्तक में सेना का विवरण निम्नानुसार है--
           तलवार चलाने  वाले 2000, खंजर चलाने वाले 5000, बंदूकची 3600, तीरंदाज 2600, घुड़सवार 1000, हाथी 116, घोड़े 1000 
राज कल्याण साय की सैनिक शक्ति एवं वीर गोपाल राव की बहादुरी इस बात को स्पस्ट करती है की कयां साय का समय "हैहय नरेशो" में बहुत ही गौरयमई एवं उन्नतिशील रहा है।कल्याण साय के पश्चात् रतनपुर की गद्दी पर उनका पुत्र लक्ष्मण साय बैठा।
नरेश लक्षमण साय, नरेश त्रिभुवन साय, नरेश जगमोहन साय, नरेश रणजीत साय, नरेश तख्तसिंह, राजा राजसिंह आदि 
नरेश लक्षण साय का शासन काल विक्रम संवत 1662 से 1676 तक रहा। आपका विवाह चंद्रपुर नरेश सुदरसन देव की राजकुमारी के साथ हुआ, वैसे आपके बारह विवाह हुए, परन्तु बड़ी रानी धोपकुंवारी से शंकर साय नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। आपने अपने पिटा कल्याण साय की कीर्ति गौरव को बनाये रखा और 14 वर्ष तक राज्य किया। और अपने युवराज शंकर साय को शासनाधिकारी घोषित कर विक्रम संवत 1676 को स्वर्वासी हो गए। नरेश त्रिभुवन साय का शासन काल 1708 से 1716 तक रहा आपकी सबसे बड़ी रानी संबलपुर नरेश मुकुंद साय की राजकुमारी बिमलादेवी थी, इसके अतिरिक्त आपकी 05 रानिया और थी। आपने बस्तर और बंगाल आदि राज्यों को परास्त कर अपने राज्य में मिलाकर बिस्तार किया। आपने अपने समय में हैहय वंश के वैभव और प्रतिस्ठा रुपी डूबते हुए सूरज को उज्जवल बनाए रखा। नरेश जगमोहन साय धमतरी, बालौदा और नए रायपुर को खूब सजाया एवं उनका चौमुखी विकास किया आपने किला और कई सुन्दर भवनों का निर्माण कराया आपकी मृत्यु के पश्चात् युवराज जगमोहन से पदासीन हुए। आपका विवाह बस्तर नरेश राज दिव्य देव की राजकुमारी ज्योति कुंवरी से हुआ। जिनसे अदली साय नामक पुत्र हुआ। आपने सिंहपुर नगर बसाकर वह सुन्दर सरोवर एवं मंदिर बनवाया तथा मंदिर में मालवी देवी की स्थापना की, आपने विक्रम संवत 1716 से 1717 तक शासन किया। आपके स्वर्गारोहण के बाद युवराज अदली साय पदासीन हुए। आपका शासन काल विक्रम स्वत 1723 तक रहा। आपके पश्चात् युवराज रणजीत साय ने शासन संभाला। (अदली साय और अदिति साय एक ही है) नरेश रणजीत साय का विवाह चंदेल नरेश की राजकुमारी कमलादेवी से हुआ, आपकी 04 रानिया थे, जिनमे सबसे बड़ी कमलादेवी ही थी। शेष 3 रानिय चौहान राजाओ की राजकुमारिया थी, आपके 4 पुत्र हुए जिनके नाम तख्तसिंह , बखतसिंह , मेरुसिंह और रघुनाथ सिंह थे। आपके समय में ही इस वंश के राजो के नाम के अंत में साह/साय के स्थान पर सिंह शब्द का प्रयोग होने लगा। नरेश तख्तसिंह का शासनकाल विक्रम संवत 1732 से 1746 तक रहा। इनका विवाह संबल नरेश दुर्जन देव की राजकुमारी सोन कुंवारी से हुआ, आपके पुत्र का नाम राजसिंह था, आपने तखतपुर नामक नगर बसाकर वहां किला बनवाया जिनके खंडहर आज भी मौजूद है। शासन की सुविधा हेतु विक्रम संवत 1333 के लगभग प्रतापसिंह ने अपने अनुज लक्ष्मीदेव को रायपुर को उपराजधानी बनाकर वहां का शासक बना दिया था। हैहय वंश में तख़्त सिंह के समकालीन रायपुर राजधानी में भी मेरु सिंह राजा हुए, जिन्हें " योगेन्द्रनाथ शील " ने उमेदसिंह का नाम दिया था। इस समय तक हैहय वंश की दोनों राजधानियो का शासन प्रबंध एक ही रहा, परन्तु तख़्त सिंह के समय में मन मुटाव हो जाने से इन दोनों राज्यों का बँटवारा हुआ, बँटवारा श्री नरसिंह देव जू द्वारा संपन्न हुआ, बंटवारे का विवरण एक पत्र के रूप में पाया गया है इससे उस काल की भाषा शैली का ज्ञान होता है।


पत्र की नक़ल 
श्री कृष्ण कारी कान्हा विजय सखा स्वस्ति महाराजाधिराज श्री राजा श्री श्री तख्त सिंह देव राजे रतनपुर योग्य स्वस्ति श्री महाराज कुमार राजा श्री मेरुसिंह देव भाई प्रतिलिखित अस जो तुम्हारे कई राज कई बतार दीन्हे मध्यस्थ पञ्च राजा श्री नरसिंह देव आदि कई सो जगह बाँट दीन्हे सेवा राज गादी कई सलाह सरई की परम्परा कह निवाहि देने जथा योग विदा जगह।

रायपुर - ग्राम - 640
राजिम - ग्राम - 084
दुरुग - ग्राम - 084
पाटन - ग्राम - 152
खलारी - ग्राम - 084
सिरपुर - ग्राम - 084
लवन - ग्राम - 252

यह परिगन सात सात भोग करी कई वर्त वुक करत जाऊ, सही कार्तिक सुदी 5 संवत 1745 सही रामधार देवान कई तथा बाबू राम साय देवान कई।
                                               (मुंदरी मुहर)

इस हस्तलेख पत्र से पता चलता है की रतनपुर में भी इसी प्रकार के सात परगने होंगे, जिनमे 1289करीब  ग्रामो की संख्या रही होगी।

राजा राजसिंह का शासन काल 1746 से 1777 तक रहा इनकी 3 रानिया थी, सुवंशा कुँवरी, दिव्य कुंवारी, एवं कजरा देवी 3 किन्तु रानियों के बीच एक पुत्र था जिसका नाम विश्वनाथ सिंह था, विश्व्नाथ सिंह का विवाह बघेल नरेश मनमोहन सिंह की पुत्री के साथ हुआ था, राजसिंह के 3 भाई और थे, मोहन सिंह, सरदार सिंह और रघुनाथ सिंह। राजसिंह विद्वानों और कवियों का बहुत आदर करते थे। इनके आश्रय में रहकर "गोपाल कवी" व् उनके पुत्र माखन ने " खूब तमाशा" नामक नीति सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा है तथा भक्त चिंतामणि, जैमन अश्वमेघ, रामप्रताप, सुदामा चरित्र, छंद विलास आदि में सुन्दर कविताओं की रचना की है।

राज सिंह ने रतनपुर के पूर्वी भाग को उन्नत किया एवं रस भाग का नाम " राजपुर" रखा, एक सुन्दर महल भी बनवाया, कजरा देवी के नाम पर कजरा सागर नामक सरोवर का निर्माण कराया। विक्रम संवत 1767 में एक अघटित घटना घटी। राजसिंह के पुत्र विश्वनाथ सिंह की मृत्यु, राजसिंह के राज्यकाल में ही हो गई। दूसरी घटना 1777 में जब इनके भाई मोहन सिंह शिकार खेलने गए थे, उस समय एक दिन राजा राजसिंह घोड़े पर सवार हो सैर कर रहे थे अचानक महाराज राज सिंह घोड़े पर से गिर पड़े, उन्हें प्राण घातक चोट आई और राजसिंह स्वर्गवासी हो गए। मोहनसिंह घर पर नहीं थे, इसलिए राज्य का भार सरदार सिंह को सौंप दिया गया। मोहनसिंह के रतनपुर लौटने पर यह बात मोहनसिंह को अच्छी नहीं लगी। इसके मन में रागद्वेष की ज्वाला भड़क उठी। विधि विधान वश कुछ समय बाद सरदारसिंह की मृत्यु हो जाने के पश्चात शासन की बागडोर रघुनाथ सिंह के हाथ में आई। रागद्वेष से घडके हुए मोहन सिंह मराठा सरदारों से जाकर मिल गए। रतनपुर की शक्ति बंटवारे से वैसे ही कम हो गई थी किन्तु उपरोक्त घटना आपसी रागद्वेष से और भी अधिक क्षीण हो गयी, विक्रम संवत 1797 में महाराज रघुनाथ सिंह बीमार हुए उसी समय मराठा सरदार सेनापति भास्कर पन्त ने रतनपुर पर चढाई कर दी। रघुनाथ सिंह की रानी ने परिस्थिति ठीक न समझकर (पराधीनता सूचक) सफ़ेद झंडा किले पर फहरा कर संधि के लिए किले के फाटक खोल दिए। किन्तु मराठा सेनापति ने नियम के विप्तीत अनुचित व्यवहार किया और लाखो की संपत्ति लूट ले गए। मोहनसिंह जो पहले ही मराठों के राज रघु से मिल गए थे, रतनपुर की गद्द्दी मराठो द्वारा पुनः मिली। 13 वर्षो बाद रघु जी के भाई बिम्बा जी ने मोहनसिंह की मृत्यु के बाद रतनपुर को पुनः अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार हैहय नरेशो का सूर्य रतनपुर से अस्त हो गया। किन्तु मोहनसिंह की काली करतूत हमेशा ही हैहय वंशियो के ह्रदय में खात्करी रहेगी। 

" गरम मिजाज में भी, दया कुछ रहती है 
आगी की आग लिहाज कुछ करती है 
वचना बड़ा मुश्किल है ठन्डे पानी वालो से 
पानी की बनी विद्युत् दया नहीं करती है।  
"

       

                       रतनपुर की पहचान


कांसेके बर्तनों को रतनपुरिहा ब्रांड देकर पिछले 60 वर्षों से रामानुज कसेर अपने पुरखों से विरासत में मिले ‘नेर शिल्प’ को आगे बढ़ा रहे हैं। इसे वे नई पीढ़ी के युवाओं को सिखा रहे हैं ताकि रतनपुर की पहचान बन चुकी यह कला जीवित रह सके। 

रामानुज कसेर ने बताया उनके यहां यह काम चार पीढ़ियों से किया जा रहा है। उनके पूर्वज मोहन साव दो सौ साल पहले उत्तरप्रदेश से आकर यहां बस गए थे। उन्हें तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने पुरस्कृत भी किया था। उन्हीं की तीसरी पीढ़ी में प्रहलाद कसेर हुए, जो रामानुज के पिता थे। उन्हीं से यह कला रामानुज को मिली। रामानुज ने बताया पहले मिट्‌टी का सांचा तैयार कर उस पर मोम का लेप चढ़ाया जाता है इस सांचे में पीछे छेद होता है इसमें से एक खास तापमान पर पिघले हुआ कांसा धीरे-धीरे सांचे में डाला जाता है। फिर इसे ठंडा होने दिया जाता है। फिर मिट्‌टी तोड़कर बर्तन को फाइल कुंद से खराद कर ब्रासो से चमकाया जाता है। इस तकनीक से मनचाहे आकार-प्रकार डिजाइन के बर्तन बनाए जा सकते हैं। 

आजभी है बर्तनों की मांग: बाजारमें भले ही स्टील के बर्तनों का बोलबाला हो पर नेर कांसे के बर्तनों की मांग कम नहीं हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में अाज भी कांसे के बर्तन चलन में हैं। हालांकि अब ये बर्तन महंगे हो गए हैं। रामानुज ने बताया जब उन्होंने काम शुरू किया था तब कांसा 10 रुपए किलो था, आज यह 9 सौ रुपए किलो है। इसी तरह 5 रुपए का मोम 250 रुपए किलो हो गया है। इसलिए बर्तनों का लागत मूल्य भी बढ़ा है। चांदीके बर्तन भी बनाए: रामानुजने बताया केंदा, मातिम लाफा के जमींदार उनके पूर्वजों से चांदी के बर्तन बनवाते थे। जमींदार चांदी भेज देते थे इसकी ढ़लाई कर लोटा, गिलास, थाली, फूलदान, कटोरी इत्रदान बनाया जाता था। 

बर्तन भेंट करने की परंपरा 

शासकीयकार्यक्रमों में आज भी रतनपुर में बने कांसे के बर्तन अतिथियों को भेंट दिए जाते हैं। 3 फरवरी को मेला उद्घाटन के दौरान मंत्री अमर अग्रवाल को विधायक डॉ. रेणु जोगी को भी रतनपुरिहा लोटा भेंट में दिया गया था। 

क्या है नेर शिल्प 

नेरशिल्प बर्तन बनाने की खास कला है। नेर एक संयुक्त धातु है इसमें जस्ता तांबा मिला होता है। इससे बटुअा, खलबट्‌टा, आरती, घंटा जैसी चीजें बनाई जाती हैं। कांसे मेंे तांबा रांगा मिला होता है इससे थाली, लोटा, गिलास, कटोरी, प्लेट, मंजीरा बनाया जाता है। रामानुज कसेर इन दोनों धातुओं से बर्तन बना रहे हैं। 

प्रसिद्ध हैं रतनपुरिहा बर्तन 

रतनपुरके इतिहास में कसेर जाति का महत्वपूर्ण स्थान है। कसेरपारा निवासी 75 वर्षीय रामानुज कसेर ‘नेर’ कांसे के बर्तन बनाने में माहिर है। उन्होंने 60 सालों में नेर कांसे के बर्तनों को रतनपुरिहा ब्रांड देकर इसे प्रसिद्धि दिलाई है। जब स्टील के बर्तनों का चलन नहीं था उस जमाने में रतनपुर मेले के माध्यम से रामानुज इनके भाई रामकृष्ण कसेर द्वारा बनाया गया कांसे का हाथी पांव कटोरा, नासकी लोटा, कुंभकर्णी लोटा, मंडलहा लोटा, धतूराफूल गिलास, गुटका गिलास गांवों से लेकर सुदूरवर्ती इलाके तक पहुंच रहे थे। अभी चल रहे रतनपुर मेले में ‘रतनपुरिहा बर्तनों’ की खूब मांग है। यहां तक कि जो दुकानदार बाहर से बने बर्तन लेकर आए हैं वे भी उसे ‘रतनपुरिहा कांसे का बर्तन’ कहकर बेच रहे हैं। आज भी नेर कांसे के बर्तन बाजार में रतनपुरिहा ब्रांड चल रहा है। 

15 घरों में थे कारीगर 

पहलेकसेरपारा के 15 घरों में नेर कांसे के बर्तन बनाए जाते थे, ये सभी एक ही परिवार से जुड़े थे। ये सभी मोहन साव के नेर शिल्प को आगे बढ़ाने में जुटे थे। वर्तमान में रामानुज कसेर इस परंपरा की अंतिम कड़ी हैं। उनका कहना है कि युवा पीढ़ी जातीय पेशे को छोड़कर दूसरे व्यवसाय को अपना रही है जबकि वे युवाओं को इस कला को सिखाने के लिए तत्पर हैं। उनकी इच्छा है कि रतनपुर की यह खास नेर शिल्प आगे भी घरों की शाेभा बढ़ाए। उनका मानना है कि इस कला को बचाने के लिए शासन को चाहिए कि शिल्पकारों को प्रोत्साहित करे। इसके लिए कार्यशाला आयोजित की जाए। कला गुरुओं को वजीफा दिया जाए। 








PraDeep Singh Tamer

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*****************************************अगला_राजधानी खलारी एवं रायपुर