शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

13 - सहस्त्रबाहु और परशुराम युद्ध

       
                                   भगवान सहस्त्रबाहु 

सहस्त्रबाहु और परशुराम युद्ध      
           
जैसा कि आप जानते है कि सहस्त्रबाहु के दस हजार पुत्रो में ९९४ पुत्रो का संहार परसुराम जी के द्वारा किया गया. परशुराम और सहस्त्रबाहु के मध्य होने वाले द्वन्द युद्ध का वर्णन पुराणों में बहुत अधिक प्रसिद्ध है. जिसका संक्षिप्त वर्णन इस ब्लॉग में किया जा रहा  है ............

Shstrbahu youknow that the destruction of ९९४ sons of ten thousand  by Parasurama. Describing the duel between Parasuram and Shstrabahu 
much more famous in the Puranas. This blog is the sort description:



ब्राह्म्ण या भुमिहार नहीं थे परशुराम !
दोस्तों, यह सर्वविदित है कि भारत एक धर्म प्रधान देश है। खासकर हिन्दू धर्म ग्रंथों के आधार पर भारत का मूल्यांकन करें तो हम पाते हैं कि धर्म ही इस देश का असली आधार है। वहीं धर्म वैसे तो महज एक जीवनशैली है जिसे संविधान में स्वीकारा गया है और हर किसी को अपने हिसाब से अपनी अभिरूचि के हिसाब से धर्म का आचरण करने की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि धर्म का एक इस्तेमाल सत्तात्मक वर्चस्व के लिए किया जाता रहा है। रही सही कसर ग्रंथकारों और इतिहासकारों ने पूर्ण कर दी है। परिणाम यह हुआ है कि आज धर्म को लेकर जितनी मतभिन्नतायें भारतीय समाज में हैं, उतनी मतभिन्नता किसी और देश में नहीं है। ऐसी ही मतभिन्नता परशुराम को लेकर है। बा्रह्म्णवादियों ने परशुराम को भगवान की उपाधि दी है। सबसे दिलचस्प यह है कि परशुराम की जो परिकल्पना ग्रंथों में की गयी है उसके अनुसार उनका मुख्य पेशा पांडित्य नहीं था, बल्कि वे एक श्रम आधारित उद्यमी थे। हिन्दु ग्रंथों में कई स्थानों पर उनके रथकार होने का उल्लेख मिलता है। रथकार यानी रथ बनाने वाले। संभवत: यही वजह रही कि परशुराम की परिकल्पना में उनके लिए जिस अस्त्र की कल्पना की गयी है, वह एक कुल्हाड़ी है, जिसका इस्तेमाल सामान्य तौर पर लकड़ी काटने के लिए किया जाता है। इससे भी दिलचस्प यह है कि बिहार के भुमिहार समाज के लोग उन्हें अपना अराध्य मानते हैं। वहीं दूसरी ओर विश्वकर्मा समाज के लोग अपने पुरोधा।
प्राचीन ग्रंथो उपनिषद एवं पुराण आदि का अवलोकन करें तो पायेगें कि आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है । भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कोर्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है । पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है । कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है ।
भगवान विश्वकर्मा ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति करके उन्हे प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा 84 लाख योनियों को उत्पन्न किया । श्री विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हे जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भगण-पोषण का कार्य सौप दिया । प्रजा का ठीक सुचारु रुप से पालन और हुकुमत करने के लिये एक अत्यंत शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र प्रदान किया । बाद में संसार के प्रलय के लिये एक अत्यंत दयालु बाबा भोलेनाथ श्री शंकर भगवान की उत्पत्ति की । उन्हे डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर उन्हे प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया । यथानुसार इनके साथ इनकी देवियां खजाने की अधिपति माँ लक्ष्मी, राग-रागिनी वाली वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देंवों को सुशोभित किया।
हमारे धर्मशास्त्रो और ग्रथों में विश्वकर्मा के पाँच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन प्राप्त होता है ।
विराट विश्वकर्मा - सृष्टि के रचेता
धर्मवंशी विश्वकर्मा - महान शिल्प विज्ञान विधाता प्रभात पुत्र
अंगिरावंशी विश्वकर्मा - आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र
सुधन्वा विश्वकर्म - महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता ऋशि अथवी के पात्र
भृंगुवंशी विश्वकर्मा - उत्कृष्ट शिल्प विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र )

देवगुरु बृहस्पति की भगिनी भुवना के पुत्र भौवन विश्वकर्मा की वंश परम्परा अत्यंत वृध्द है।सृष्टि के वृध्दि करने हेतु भगवान पंचमुख विष्वकर्मा के सघोजात नामवाले पूर्व मुख से सामना दूसरे वामदेव नामक दक्षिण मुख से सनातन, अघोर नामक पश्चिम मुख से अहिंमून, चौथे तत्पुरुष नामवाले उत्तर मुख से प्रत्न और पाँचवे ईशान नामक मध्य भागवाले मुख से सुपर्णा की उत्पत्ति शास्त्रो में वर्णित है। इन्ही सानग, सनातन, अहमन, प्रत्न और सुपर्ण नामक पाँच गोत्र प्रवर्तक ऋषियों से प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस सन्ताने उत्पन्न हुई जिससे विशाल विश्वकर्मा समाज का विस्तार हुआ है ।
शिल्पशास्त्रो के प्रणेता बने स्वंय भगवान विश्वकर्मा जो ऋषशि रुप में उपरोक्त सभी ज्ञानों का भण्डार है, शिल्पो कें आचार्य शिल्पी प्रजापति ने पदार्थ के आधार पर शिल्प विज्ञान को पाँच प्रमुख धाराओं में विभाजित करते हुए तथा मानव समाज को इनके ज्ञान से लाभान्वित करने के निर्मित पाणच प्रमुख शिल्पायार्च पुत्र को उत्पन्न किया जो अयस ,काष्ट, ताम्र, शिला एंव हिरण्य शिल्प के अधिषश्ठाता मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी एंव दैवज्ञा के रुप में जाने गये । ये सभी ऋषि वेंदो में पारंगत थे ।
कन्दपुराण के नागर खण्ड में भगवान विश्वकर्मा के वशंजों की चर्चा की गई है । ब्रम्ह स्वरुप विराट श्री.विश्वकर्मा पंचमुख है । उनके पाँच मुख है जो पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऋषियों को मत्रों व्दारा उत्पन्न किये है । उनके नाम है झ्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ ।

1-ऋषि मनु विष्वकर्मा - ये "सानग गोत्र" के कहे जाते है । ये लोहे के कर्म के उध्दगाता है । इनके वशंज लोहकार के रुप मे जानें जाते है ।
2-सनातन ऋषि मय - ये सनातन गोत्र कें कहें जाते है । ये बढई के कर्म के उद्धगाता है। इनके वंशंज काष्टकार के रुप में जाने जाते है।
3-अहभून ऋषि त्वष्ठा - इनका दूसरा नाम त्वष्ठा है जिनका गोत्र अहंभन है । इनके वंशज ताम्रक के रूप में जाने जाते है ।
4-प्रयत्न ऋषि शिल्पी - इनका दूसरा नाम शिल्पी है जिनका गोत्र प्रयत्न है । इनके वशंज शिल्पकला के अधिष्ठाता है और इनके वंशज संगतराश भी कहलाते है इन्हें मुर्तिकार भी कहते हैं ।
5-देवज्ञ ऋषि - इनका गोत्र है सुर्पण । इनके वशंज स्वर्णकार के रूप में जाने जाते हैं । ये रजत, स्वर्ण धातु के शिल्पकर्म करते है, ।
परमेश्वर विश्वकर्मा के ये पाँच पुत्रं, मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी और देवज्ञ शस्त्रादिक निर्माण करके संसार करते है । लोकहित के लिये अनेकानेक पदार्थ को उत्पन्न करते वाले तथा घर ,मंदिर एवं भवन, मुर्तिया आदि को बनाने वाले तथा अलंकारों की रचना करने वाले है । इनकी सारी रचनाये लोकहितकारणी हैं । इसलिए ये पाँचो एवं वन्दनीय ब्राम्हण है और यज्ञ कर्म करने वाले है । इनके बिना कोई भी यज्ञ नहीं हो सकता ।
मनु ऋषि ये भगनान विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र थे । इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था इन्होने मानव सृष्टि का निर्माण किया है । इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये है ।
भगवान विश्वकर्मा के दुसरे पुत्र मय महर्षि थे । इनका विवाह परासर ऋषि की कन्या सौम्या देवी के साथ हुआ था । इन्होने इन्द्रजाल सृष्टि की रचना किया है । इनके कुल में विष्णुवर्धन, सूर्यतन्त्री, तंखपान, ओज, महोज इत्यादि महर्षि पैदा हुए है ।
भगवान विश्वकर्मा के तिसरे पुत्र महर्षि त्वष्ठा थे । इनका विवाह कौषिक ऋषि की कन्या जयन्ती के साथ हुआ था । इनके कुल में लोक त्वष्ठा, तन्तु, वर्धन, हिरण्यगर्भ शुल्पी अमलायन ऋषि उत्पन्न हुये है । वे देवताओं में पूजित ऋषि थे ।
भगवान विश्वकर्मा के चौथे महर्षि शिल्पी पुत्र थे । इनका विवाह भृगु ऋषि की करूणाके साथ हुआ था । इनके कुल में बृध्दि, ध्रुन, हरितावश्व, मेधवाह नल, वस्तोष्यति, शवमुन्यु आदि ऋषि हुये है । इनकी कलाओं का वर्णन मानव जाति क्या देवगण भी नहीं कर पाये है ।
भगवान विश्वकर्मा के पाँचवे पुत्र महर्षि दैवज्ञ थे । इनका विवाह जैमिनी ऋषि की कन्या चर्न्दिका के साथ हुआ था । इनके कुल में सहस्त्रातु, हिरण्यम, सूर्यगोविन्द, लोकबान्धव, अर्कषली इत्यादी ऋषि हुये ।
इन पाँच पुत्रो के अपनी छीनी, हथौडी और अपनी उँगलीयों से निर्मित कलाये दर्शको को चकित कर देती है । उन्होन् अपने वशंजो को कार्य सौप कर अपनी कलाओं को सारे संसार मे फैलाया और आदि युग से आजलक अपने-अपने कार्य को सभालते चले आ रहे है ।
विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है। आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है। उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निमार्ता और प्रवर्तक कहा माना गया है। वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं-
देवौ सौ सूत्रधार: जगदखिल हित: ध्यायते सर्वसत्वै।

वास्तु के 18 उपदेष्टाओं में विश्वकर्मा को प्रमुख माना गया है। उत्तर ही नहीं, दक्षिण भारत में भी, जहां मय के ग्रंथों की स्वीकृति रही है, विश्वकर्मा के मतों को सहज रूप में लोकमान्यता प्राप्त है। वराहमिहिर ने भी कई स्थानों पर विश्वकर्मा के मतों को उद्धृत किया है।
विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे।
सूर्य की मानव जीवन संहारक रश्मियों का संहार भी विश्वकर्मा ने ही किया। राजवल्लभ वास्तुशास्त्र में उनका जिÞक्र मिलता है। यह जिÞक्र अन्य ग्रंथों में भी मिलता है। विश्वकर्मा कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र धारक हैं, हंस पर आरूढ़, सर्वदृष्टिधारक, शुभ मुकुट और वृद्धकाय हैं—
कंबासूत्राम्बुपात्रं वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम्।
हंसारूढ़स्विनेत्रं शुभमुकुट शिर: सर्वतो वृद्धकाय:॥ 

उनका अष्टगंधादि से पूजन लाभदायक है।
विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर विमर्श है। विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। मेवाड़ में लिखे गए अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर लगभग साढ़े सात हजार श्लोकों में दिए गए हैं। संयोग से यह ग्रंथ 239 सूत्रों तक ही मिल पाया है। इस ग्रंथ से यह भी पता चलता है कि विश्वकर्मा ने अपने तीन अन्य पुत्रों जय, विजय और सिद्धार्थ को भी ज्ञान दिया।
अब यदि परशुराम की बात करें तो हिन्दू ग्रंथों में एक कहानी का वर्णन है। कहानी यह कि प्राचीन काल में कन्नौज में गाधि नाम के एक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करना और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्ति से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। इस पर सत्यवती ने भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे।
भृगु ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे - रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम।
कथानक है कि हैहय वंशाधिपति कार्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएँ तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुँचा और देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया।
कुपित परशुराम ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस काण्ड से कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश किया। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका।
इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।

सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त। महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला। भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे। कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है। कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी अराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्त्तवीयार्जुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहस्रबाहु कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।
युद्ध का कारण: ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी। सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया। जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्त्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाएँ कट गईं और वह मारा गया।
तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि को मार डाला। परशुराम की माँ रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया-"मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा"। उसके बाद उन्होंने अहंकारी और दुष्ट प्रकृति के हैहयवंशी क्षत्रियों से 21 बार युद्ध किया। क्रोधाग्नि में जलते हुए परशुराम ने सर्वप्रथम हैहयवंशियों की महिष्मती नगरी पर अधिकार किया तदुपरान्त कार्त्तवीर्यार्जुन का वध। कार्त्तवीर्यार्जुन के दिवंगत होने के बाद उनके पाँच पुत्र जयध्वज, शूरसेन, शूर, वृष और कृष्ण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे।
इसी प्रकार परशुराम को लेकर कई और हिन्दू ग्रंथों में कई अन्य उल्लेख भी मिलते हैं। कहा जाता है कि उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर प्रथम तो स्वयं को "विश्व-विदित क्षत्रिय कुल द्रोही" बताते हुए "बहुत भाँति तिन्ह आँख दिखाये" और क्रोधान्ध हो "सुनहु राम जेहि शिवधनु तोरा, सहसबाहु सम सो रिपु मोरा" तक कह डाला। तदुपरान्त अपनी शक्ति का संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना करते हुए "अनुचित बहुत कहेउ अज्ञाता, क्षमहु क्षमामन्दिर दोउ भ्राता" तपस्या के निमित्त वन को लौट गये। रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ साक्षी हैं- "कह जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गये वनहिं तप हेतू"। असल सवाल यही खड़ा होता है कि परशुराम की भूमिका पूरे रामायण में महज इतनी ही क्यों रही।
परशुराम इसके बाद सीधे द्वापर युग में तब नजर आते हैं जब भीष्म द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुराम के पास आयी। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा। उन दोनों के बीच २३ दिनों तक घमासान युद्ध चला। किन्तु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम उन्हें हरा न सके। हालांकि इस बात का भी उल्लेख नहीं मिलता कि इस युद्ध का अंतिम परिणाम क्या हुआ। क्या भीष्म ने परशुराम का वध कर डाला था या फिर परशुराम जिन्हें भगवान की उपाधि हासिल थी, भगवान होकर भी हार गये। वह भी एक क्षत्रिय से।
महाभारत में ही एक और प्रसंग सामने आता है। प्रसंग द्रोणाचार्य से जुड़ा है। हालांकि इससे पहले कर्ण और परशुराम का प्रसंग सामने आता है। प्रसंग यह कि कर्ण ने फर्जी तरीके से स्वयं को गैर क्षत्रिय बताकर परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की विद्या हासिल की। लेकिन परशुराम को जब यह जानकारी मिली तो उन्होंने कर्ण को शाप दिया। परिणाम यह हुआ कि अर्जुन के साथ युद्ध में कर्ण शस्त्रविहीन हो गये और मारे गये। वहीं एक और प्रसंग यह भी है कि परशुराम अपने जीवन भर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे। किन्तु दुर्भाग्यवश वे तब तक सब कुछ दान कर चुके थे। तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा। तब चतुर द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं आपके सभी अस्त्र शस्त्र उनके मन्त्रों सहित चाहता हूँ ताकि जब भी उनकी आवश्यकता हो, प्रयोग किया जा सके। परशुरामजी ने कहा-"एवमस्तु!" अर्थात् ऐसा ही हो। इससे द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हो गये।
बहरहाल हिन्दू धर्म ग्रंथों के आधार पर किसी भी चरित्र अथवा लोक नायक की संपूर्ण एवं समग्र व्याख्या स्पष्ट तौर पर नहीं की जा सकती है। परंतु परशुराम की जो परिकल्पना अबतक सामने आती है, वह इतना तो स्पष्ट प्रमाण देती है कि सत्ता के वर्चस्व को लेकर आदिकाल से संघर्ष चलता आ रहा है। इस संघर्ष में केवल तथाकथित रूप से उच्च जातियों के लोग ही नहीं बल्कि शुद्र समझे जाने वाले लोग भी शामिल थे। वैसे यह दिलचस्प है कि जिन्हें हिन्दू ग्रंथों में शुद्र कहकर उपेक्षित किया गया, वे आज ब्राह्म्णवादियों की नजर में भगवान हैं। कहने का आशय यह कि शुद्रों के नायकत्व को हड़पने की साजिश शुरू से की जाती रही है, ठीक वैसे ही जैसे ब्राह्मणवादियों ने गौतम बुद्ध को भगवान बुद्ध कहा है।
बहरहाल यह अलग अलग विचारको के मत है। -------देखते है की परशुराम और सहस्त्रबाहु अर्जुन का युद्ध क्यों हुआ....   
       कामधेनु के साधारण से प्रसंग को लेकर सहस्त्रबाहु और परशुराम के पिता श्री जमदग्नि से युद्ध हुआ. इस युद्ध में ऋषि जमदग्नि सहस्त्रबाहु के किसी सैनिक द्वारा पंचतत्व को प्राप्त हो गए. अपने पिता कि मृत्यु का प्रतिकार लेने के लिए परशुराम जी ने अपने गुरु श्री भगवान् शंकर जी से उपाय पूछा. भगवान् शंकर जी बोले कि चूंकि सहस्त्रबाहु ने श्री भगवान् दत्तात्रेय जी से अपनी मृत्यु का वरदान किसी अधिक श्रेष्ठ के द्वारा माँगा है. इसलिए आवश्यक है कि तुम श्री रामावतार की शक्ति प्राप्त करो. इसके लिए भगवान् विष्णु की तपस्या करनी आवश्यक है. तदनुसार परशुराम भगवान् विष्णु की तपस्या के लिए विष्णु कुण्ड स्थान पर चले गए. जब भगवान् बिष्णु ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए एवं उनसे बरदान मांगने को कहा तब परशुराम ने सहस्त्रबाहु के संहार के लिए भगवान् रामावतार की अमोघ शक्ति की याचना की. भगवान् ने उन्हें शक्ति प्रदान की. शक्ति प्राप्त कर परशुराम ने महिष्मति पर धावा बोल दिया. परशुराम और सहस्त्रबाहु के मध्य भयंकर युद्ध हुआ. बार-बार युद्ध में परशुराम जी को मैदान छोड़कर भागना पड़ता, इस प्रकार उन्होंने २१ बार क्षत्रियो का संहार किया. युद्ध में अजेय महापराक्रमी विश्व विजेता सहस्त्रबाहु का संहार भगवान् विष्णु की दी हुयी उस अमोघ शक्ति के द्वारा की.

Sahstrabahu ranging from simple context of Kamdhenu and Sri Jamadagni Parasurama's father was the war. By a soldier in the war to the shades of sage Jamadagni was Sahstrabahu. To take revenge for the death of his father Parshuram ji asked his guru Sri Bhagavan Shankar measures. God said, that the Sahstrabahu Mr. Lord Dattatreya Shankar ji blessing of his death is asked by a superior. Therefore essential that you possess the power of Mr. Ex-CM. It is necessary penance of Lord Vishnu. Accordingly, for the austerity of Vishnu Vishnu Parashuram Kund moved on. Bishnu when God appeared to him jauntily, and told him to ask for the gift, the Parashurama Sahstrabahu Ex-CM's unfailing power of God for the destruction of the solicitation. God granted him power. Mahishmti stormed Parashurama gaining strength. Parshuram and fierce war between Sahstrabahu. Parshuram ji turf war to flee again, thus massacred Kshtriyo 21 times. Vishnu invincible in war of extermination of the redoubtable champion Sahstrabahu given good by the effectual power.



              त्रेतायुग के अंत रामावतार के समय जब मिथिला नरेश महाराज जनक के यहाँ धनुष यज्ञ हुआ, तब श्री भगवान् रामचंद्र जी ने अपनी शक्ति पुनः परशुराम जी से वापस ले ली और परशुराम जी तपस्या हेतु वन में चले गए. और क्षत्रियो का संहार करना उनके द्वारा बंद हुआ. 

Ex-CM Tretayug end when the King of Mithila King Janak was the sacrificial bow here, then Mr. Lord Ramachandra Parshuram ji ji divested its power and Parshuram jee exile for penance. Kshtrias  be slaughtering and close by them.

पिता जमदग्नि की हत्या और परशुराम का प्रतिशोध



 सहस्त्रार्जुन से युद्धरत परशुराम का एक चित्र

 (नीचे लिखी हुयी सामग्री परशुराम विकिपीडिया से ली गयी है जिसके अनुसार इस प्रकार से समाज में विकृतिया फ़ैली हुयी है --------------------------------

               कथानक है कि हैहय वंशाधिपति का‌र्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएँ तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुँचा और देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार पर लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया।

             कुपित परशुराम ने फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस काण्ड से कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश किया। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका।

             इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं,उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।

(Taken from Wikipedia Parshuram material, was written down according to which the society is requested Vikritia spanning ---------------------------- ----

               Plot that Hahy Vanshadipti कार्त्तवीर्यअर्जुन (Shstrarjun) by the abject penance to please Lord Dattatreya a thousand arms and had God not to be defeated in battle.

             Parshuram furious attack from the ax used to cut off all his arms and head separated from the body. Parshuram Shstrarjun in reprisal for the absence of sons killed Jamadagni in his meditation father. Citagni husband entered Renuka became sati. Incensed by this case, the velocity Mahishmti Parashurama city invaded and conquered over it. Since then he has ruined an entire twenty times the Kshatriyas from the earth. Moreover, from the blood of the Kshatriyas descent Hahy Sthlt quintet lake area cleared and the father of five sons of Shstrarjun memorial was blood. Finally Maharishi revealed Parashurama prevented from doing so atrocious acts.

             Subsequently, he was Mahayagna Ashwmeg Maharishi Kashyap donated Sptdweep rich earth. Not only that, Devraj Indra before he dropped his arms and started living in the Ashram at Mount Mahendra Sagar pickings territory.

Note: Written up distorted, by the ignorance of people's power. Purano obvious in the written form, the Agdirev to satiate the appetite of the state, was donated his entire umbrella. So Agdirev the ashram of sage Jamadagni was lit not lit and the Emperor Shstrbahu Putro murder of his ashram. This fact is completely unfounded, the Shstrbahu memorial service for his father's blood had their Putro.cause unnecessary destruction of Kshtrio closed.

हैहयवंशी क्षत्रियों का विनाश

         माना जाता है कि परशुराम ने 21 बार हैहयवंशी क्षत्रियों को समूल नष्ट किया था। क्षत्रियों का एक वर्ग है जिसे हैहयवंशी समाज कहा जाता है यह समाज आज भी है। इसी समाज में एक राजा हुए थे सहस्त्रार्जुन। परशुराम ने इसी राजा और इनके पुत्र और पौत्रों का वध किया था और उन्हें इसके लिए 21 बार युद्ध करना पड़ा था।

कौन था सहस्त्रार्जुन ?: सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त। महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला। भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे। कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है। कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी अराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्त्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहस्रबाहु कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।

युद्ध का कारण: ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी। सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया। जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर कामधेनु वापस लाने की सोची और सहस्त्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाएँ कट गईं और वह मारा गया।

             तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोधवश परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि को मार डाला। परशुराम की माँ रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया-"मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा"। उसके बाद उन्होंने अहंकारी और दुष्ट प्रकृति के हैहयवंशी क्षत्रियों से 21 बार युद्ध किया। क्रोधाग्नि में जलते हुए परशुराम ने सर्वप्रथम हैहयवंशियों की महिष्मती नगरी पर अधिकार किया तदुपरान्त कार्त्तवीर्यार्जुन का वध। कार्त्तवीर्यार्जुन के दिवंगत होने के बाद उनके पाँच पुत्र जयध्वज, शूरसेन, शूर, वृष और कृष्ण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे।

एक दुसरे ब्रहार्शी ब्लॉग के अनुसार  http://brahmeshwarmukhiya.blogspot.in/2012/08/lord-parashurama-part-02.html

नीचे लिखी गई बाते बेबुनियाद, तथ्यों से रहित और अज्ञानता वश इन्टरनेट पर फैलाई गई है, जो शर्मनाक है. हम हैहयवंशी क्षत्रिय इसका व्यापक विरोध करते है. कहावत है की आधा अधूरा ज्ञान काले सर्प के जैसा होता है, समाज के कुछ अज्ञानी लोग और समाज विरोधी व्यक्ति ही ऐसा करते है. जिसके लिए उन्हें इश्वर भी क्षमा नहीं करता और पाप के भागी होते है. 

महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे | सहस्त्रार्जुन का वास्तवीक नाम अर्जुन था, इसने घोर तपशया कर दत्तत्राई को प्रशन्न करके १००० हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया था, तभी से इसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा | इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है |

कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चूका था | उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी | वेद - पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था |

एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड - जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा | महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी | कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी | महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया | कामधेनु गाय के अदभुत गुणों से प्रभावित होकर सहस्त्रार्जुन के मन में भीतर ही भीतर लालच समां चूका था | कामधेनु गाय को पाने की उसकी लालसा जाग चुकी थी | महर्षि जमदग्नि के समक्ष उसने कामधेनु गाय को पाने की अपनी लालसा जाहिर की | सहस्त्रार्जुन को महर्षि ने कामधेनु के विषय में सिर्फ यह कह कर टाल दिया की वह आश्रम के प्रबंधन और ऋषि कुल के जीवन के भरण - पोषण का एकमात्र साधन है | जमदग्नि ऋषि की बात सुनकर सहस्त्रार्जुन क्रोधित हो उठा, उसे लगा यह राजा का अपमान है तथा प्रजा उसका अपमान कैसे कर सकती है | उसने क्रोध के आवेश में आकार महर्षि जमदग्नि के आश्रम को तहस नहस कर दिया, पूरी तरह से उजाड़ कर रख दिया ऋषि आश्रम को और कामधेनु को जबर्दस्ती अपने साथ ले जाने लगा | वह क्रोधावाश दिव्य गुणों से संपन्न कामधेनु की अलौकिक शक्ति को भूल चूका था, जिसका परिणाम उसे तुरंत ही मिल गया, कामधेनु दुष्ट सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई और उसको अपने महल खाली हाँथ लौटना पड़ा |

जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने विस्तारपूर्वक सारी बातें बताई | परशुराम क्रोध के आवेश में आग बबूला होकर दुराचारी सहस्त्राअर्जुन और उसकी पूरी सेना को नाश करने का संकल्प लेकर महिष्मती नगर पहुंचे | वहाँ सहस्त्रार्जुन और परशुराम के बीच घोर युद्ध हुआ | भृगुकुल शिरोमणि परशुराम ने अपने दिव्य परशु से दुष्ट अत्याचारी सहस्त्राबाहू अर्जुन की हजारों भुजाओं को काटते हुए उसका धड़ सर से अलग करके उसका वध कर डाला | जब महर्षि जमदग्नि को योगशक्ति से सहस्त्रार्जुन वध की बात का ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने पुत्र परशुराम को प्रायश्चित करने का आदेश दिया | कहते हैं पितृभक्त परशुराम ने अपने पिता जमदग्नि ऋषि के आदेश का धर्मपूर्वक पालन किया |

भगवान परशुराम महेंद्र पर्वत पर तपस्या किया करते थे | एक बार जब भगवान परशुराम अपने तपस्या में महेंद्र पर्वत पर लीन थे तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया | सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला | माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा | जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो पिता का कटा हुआ सिर और माता को विलाप करते देखा | माता रेणुका ने महर्षि के वियोग में विलाप करते हुए अपने छाती पर २१ बार प्रहार किया और सतीत्व को प्राप्त हो गईं | माता - पिता के अंतिम संस्कार के पश्चात्, अपने पिता के वध और माता की मृत्यु से क्रुद्ध परशुराम ने शपथ ली कि वह हैहयवंश का सर्वनाश करते हुए समस्त क्षत्रिय वंशों का संहार कर पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन कर देंगे | पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने २१ बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया | कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका | तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया |

निष्कर्ष :- उपरोक्त ब्लोगों में  समाज में बिभिन्न प्रकार के प्राणी , मनुष्य, बुद्धि वाले, नासमझ बुद्धि वाले है, चूंकि वे हैहय समाज से वास्ता नहीं है, शायद इसीलिए सहस्त्रबाहु महाराज के चरित्र का चित्रण नितांत गलत ढंग से कर रहे है। यदि परशुराम जी महान थे, तो क्या सहस्त्रबाहु महाराज का चरित्र ख़राब था। वे भगवान् विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए थे और स्वयं भगवान् दत्तात्रेय जी ने उनकी तपस्या से प्रभावित होकर उन्हें स्वेक्षा से वरदान दिया था। सहस्त्रबाहु महाराज ने मांगे गए वरदानो का वर्णन पूर्व में किया गया है जिसे यहाँ पर पुनः लिखना आवश्यक प्रतीत होता है, ताकि आप (हैहय समाज) समाज में फ़ैली विकृतियों से अनभिग्य हो सके। कि किस प्रकार से दुसरे समाज के लोग परशुराम जी की महानता और सहस्त्रबाहु को निम्नता प्रदान कर रहे है। हमारे समाज को समाज के युवाओ को जागने की आवश्यकता है, अभी सवेरा हुआ है, रात बाकी है, जब जागो तभी  सवेरा।

              दस वरदान जिन्हें भगवान् दत्तात्रेय ने  कार्तवीर्यार्जुन महाराज को प्रदान किये

1- ऐश्वर्य शक्ति प्रजा पालन के योग्य हो, किन्तु अधर्म न बन जावे।
2- दूसरो में मन की बात जानने का ज्ञान हो।
3- युद्ध में कोई सामना न कर सके।
4- युद्ध के समय उनकी सहत्र भुजाये प्राप्त हो, उनका भार  न लगे 
5- पर्वत, आकाश। जल। प्रथ्वी और पाताल में अब्याहत गति हो।
6- मेरी मृत्यु अधिक श्रेष्ठ हाथो से हो।
7- कुमार्ग में प्रवृत्ति होने पर सन्मार्ग का उपदेश प्राप्त हो।
8- श्रेष्ठ अतिथि की निरंतर प्राप्ति होती रहे।
9- निरंतर दान से धन न घटे।
10- स्मरण मात्र से धन का आभाव दूर हो जावे एवं  भक्ति बनी रहे। 

        मांगे गए वरदानो से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि सहस्त्रबाहु अर्जुन अर्थात कार्तवीर्यार्जुन ऐश्वर्यशाली, प्रजापालक, धर्मानुसार आचरण करने  वाले, शत्रु में मन की बात जान लेने वाले, हमेशा सन्मार्ग में विचरण करने वाले, अतिथ सेवक, दानी महापुरुष थे, जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से पूरे विश्व को जीत लिया और चक्रवर्ती सम्राट बने। प्रथ्वी लोक मृत लोक है, यहाँ जन्म लेने वाला कोई भी अमरत्व को प्राप्त नहीं है, यहाँ तक की दुसरे समाज के लोग जो परशुराम को भगवान् की संज्ञा प्रदान करते है और सहस्त्रबाहु को कुछ और की संज्ञा प्रदान कर रहे है, परशुराम द्वारा निसहाय लोगो/क्षत्रियो का अनावश्यक बध करना जैसे कृत्यों से ही क्षुब्ध होकर त्रेतायुग में भगवान् राम जी ने उनसे अमोघ शक्ति वापस ले ली थी, और उन्हें तपस्या हेतु बन जाना पड़ा, वे भी अमरत्व को प्राप्त नहीं हुए। भगवान् श्री रामचंद्र जी द्वारा अमोघ शक्ति वापस ले लेना ही सिद्ध करता है की, परशुराम जी सन्मार्ग पर स्वयं नहीं चल रहे थे। एक समाज द्वारा दुसरे समाज के लोगो की भावनाओं को कुरेदना तथा भड़काना सभ्य समाज के प्राणियों, विद्वानों को शोभा नहीं देता है। महाराज कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन हमारे लिए पूज्यनीय थे, पूज्यनीय रहेगे।

 *जोर से बोलो महाराजाधिराज कार्तवीर्यार्जुन की जय हो*

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